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काम से काम शब्दों में गहन और चिंतनीय सत्य उजागर करती लघुकथा!
आदरणीय रवि भाई , आज कल बिना सेटिंग के कहाँ कुछ संभव है , पर आपकी पारखी नज़र बच पाना भी असंभव है | बहुर सही सटीक बात लघुकथा के माध्यम से बाहर आई है , आपको दिली बधाइयाँ |
बहुत बढ़िया लघुकथा रवि प्रभाकर जी | बस आखिरी पंक्ति में " डॉक्टर साहिब के केबिन की ओर बढ़ रहा था" होना चाहिए शायद |
दृश्य सा घूम गया आँखों के सामने ! यह विशिष्टता है इस लघुकथा की.
निःशुल्क कार्य का अर्थ अब निस्स्वार्थ कार्य रहा कहाँ, भाई रविजी ? ’फेस-वैल्यू’ चाहे बदल कर शून्य हो जाये, ’ऐक्चुअल वैल्यू’ कई गुना बढ़ न जाय, तबतक अब ’समाजिक कार्य’ होते ही नहीं.
आजकल के निःशुल्क स्वास्थ्य शिविरों की कलई खोलती अतिसघन कथा के लिए हार्दिक बधाई तथा अनेकानेक शुभकामनाएँ स्वीकार करें.
आदरणीय रवि जी.
परोपकार और दान के व्यावसायीकरण होने से ही आज ये शब्द अपनी महत्ता खो चुके हैं. सुन्दर कथा. आज कल तो ब्लड-डोनेशन कैम्प भी इसी रोग से ग्रसित हो गये हैं.
सादर.
मैं पिछले 14 वर्षों से दवा विक्रय एवं विपणन में एक प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहा हूँ उसका मेरा जो अनुभव कहता है वही आपकी इस लघुकथा के माध्यम से सामने आया है, चिकित्सा भी अब व्यवसाय हो गया है और नित दिन कमाई के नये नये तरीके सामने आ ऱहे हैं सेवाभाव तो जैसे विलुप्त हो गया है। आपको बहुत बहुत बधाई इस कामयाब लघुकथा पर।
आजकल ऐसे पुण्य का जैसे प्रचलन सा हो गया हो
हम बेचारे इसको पुण्य ही समझते हैं ..............
सुन्दर प्रस्तुति .... सादर बधाई!
ये एक ऐसा मकड़ जाल है जिसे आपने काटने का नेक प्रयास किया है बहुत बढ़िया लघु कथा ...हार्दिक बधाई .
बहुत ही बढ़िया विषय पर आपने लघुकथा साझा की, आदरणीय रवि जी. आजकल बस यही सब कुछ हो रहा है परामर्श -शुल्क से ज्यादा कमीशन. मेडिकल स्टोर, पैथोलाजी हर जगह से कमीशन. इंसान के दर्द और दुःख से कहीं कोई लेना देना नही. यह रिपोर्ट नही चलेगी उस पेथोलोजी पर जाओ. एक और सच को सामने लाकर रखती लघुकथा पर आपको बहुत-२ बधाई
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