ठूँठ
था हराभरा मेरा संसार
खुशियाँ लगती थी मेरे द्वार
हरी हरी मेरी शाखायें
फूल पत्ते भरकर इठलाये||
मेरा जीवन उनसे था और
उन सब से ही में जीता था
छांव पथिक सुस्ता लेता था
थकन अपनी बिसरा देता था||
समय ने ऐसा खेल दिखाया
दूर हो गयी मेरी ही छाया
छोड़ गये सब मुझको मेरे
एक एक कर देर सबेरे||
कद मेरा यूँ हुआ बढ़ा
रह गया आज अकेला खड़ा
रूप रंग सब माटी मिल गया
यौवन आंधी ले गयी उड़ा||
रह गया बनकर बस एक ठूँठ
नित जहर के पीता हूँ घूंट
काम किसी के अब ना आया
साथ किसी का मैंने ना पाया||
खुद की भी अब रक्षा करना
मेरे बस की बात नही
रीता हो गया जीवन मेरा
कुछ भी तो अब साथ नही||
सरिता पन्थी "मौलिक व अप्रकाशित "
Comment
सरिता जी
कालचक्र तो अपना काम करता हे है पर ठूंठ की अपनी उपयोगिता होती है i जब तक पिता का साया रहता है हम कितना अपने आप को सुरक्षित पाते हैं भले ही वे कितने बूढ़े हो गए हों i काया से साया का महत्त्व अधिक है i सादर i
जीवन कभी भी व्यर्थ नहीं होता हमेशा एक प्रयोजन होता है ,ठूंठ पेड़ कई जीवों का आश्रयदाता बनता है और बुजुर्गों के सान्निध्य में परिवार आगे पल्लवित होता है ,सुंदर रचना हेतु आपको बधाई
सुंदर भाव प्रस्तुति के लिए बधाई
अच्छी अभिव्यक्ति है मा० सरिता पंथी जी ।
सुंदर भाव निदर्शन।
वृक्ष का बिम्ब लेकर वृद्धावस्था के एकाकीपन का अद्दभुत चित्र खींचा है रचना में बहुत बहुत बधाई आपको सरिता जी
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... सादर बधाई |
आदरणीय सरिता पंथी जी ,
रह गया बनकर बस एक ठूँठ
नित जहर के पीता हूँ घूंट
काम किसी के अब ना आया
साथ किसी का मैंने ना पाया||
अच्छा बिम्ब है ,सुन्दर रचना हुई है सादर अभिनन्दन
इस अच्छी रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सरिता पन्थी जी
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