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आदरणीया प्राचीजी, भाव विह्वल करते इस गीत पर क्या कहूँ ? बस मुग्ध हूँ. पंक्तियों के माध्यम से जो निवेदन हुआ हैम् वह इस तन्मयता से हुआ है कि विरह की दशा के मुखर प्राकट्य की अनुभूति हो रही है.
एक-एक पंक्ति तीर की तरह आती है.
हर इक रंग तुम्हीं से लेकर
सतरंगी थे ख्वाब सँवारे,
तुम क्या बिछुड़े,अब तो अपने
साथी हैं केवल अँधियारे
सुबह सुनहरी तुम ही रख लो, रातों को हम रख लेते हैं....
वाह वाह !
अलबत्ता, आदरणीय मिथिलेश जी ने विधाजन्य जो प्रश्न उठाये हैं उनकी ओर ध्यान देना समीचीन होगा.
सादर
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी, बहुत प्यारा गीत लिखा है आपने. हार्दिक बधाई. मुखड़े में राहों और आहों की तुकांतता देख अंतरों की टेक से पहले बाँहों, चाहों, फाहों, पनाहों जैसी तुकांतता खोजने को तत्पर हो गया किन्तु बाद में समझ आया आपने स्वर आधारित तुक लिया है. सादर
बहुत प्यारा गीत लिखा है प्रिय प्राची जी हार्दिक बधाई
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी बहुत ही गहन भावों को समेटे आपके इस की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। बहरहाल इस प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें।
आदरणीया प्राची जी सुन्दर गीत के लिये बधाई स्वीकार करें
सुन्दर गीत रचा है निश्चित
सजे हुए है शिल्प सुहाने
कलम आपकी सक्षम है पर
दर्शन बिम्ब प्रतीक पुराने
शब्द यहींं पर वापस धर के भावों को हम रख लेते है
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