2122 2122 212
लोग कब दिल से यहाँ बेहतर मिले ।
जब मिले तब फ़ासला रखकर मिले ।।
है अजब बस्ती अमीरों की यहां ।
हर मकाँ में लोग तो बेघर मिले ।।
तज्रिबा मुझको है सापों का बहुत ।
डस गये जो नाग सब झुककर मिले ।।
कर गए खारिज़ मेरी पहचान को ।
जो तसव्वुर में मुझे शबभर मिले ।।
मैं शराफ़त की डगर पर जब चला ।
हर कदम पर उम्र भर पत्थर मिले ।।
मौत से डरना मुनासिब है नहीं ।
क्या पता फिर जिंदगी बेहतर मिले ।।
भुखमरी के दौर से गुजरे हैं वो ।
खेत सारे गाँव के बंजर मिले ।।
आप से उम्मीद अच्छे दिन की थी ।
हाथ में क्यों आपके ख़ंजर मिले ।।
है बहुत इल्ज़ाम उन पर आपका ।
आप भी उनसे कहाँ कमतर मिले ।।
सिर्फ दौलत तक नज़र सबकी रही ।
अब तलक भी जो हमें रहबर मिले ।।
जब भी माँगा पांच सालों का हिसाब ।
आपके बदले हुए तेवर मिले ।।
--- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 गंगा धर शर्मा जी हार्दिक आभार
आ0 गुमनाम पिथौरा गढ़ी साहब शुक्रियः।
वाह खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई,,,
तज्रिबा मुझको है सापों का बहुत ।
डस गये जो नाग सब झुककर मिले ।।..........वाह....आदरणीय त्रिपाठी जी .....बहुत ही उम्दा ग़ज़ल लिए हार्दिक बधाई............
आ. भाई नवीन जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।लाज़वाब गज़ल।
आप से उम्मीद अच्छे दिन की थी ।
हाथ में क्यों आपके ख़ंजर मिले ।।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई! |
वाह लाजबाब गजल के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीय नवीन जी
आदरणीय नवीन जी अचछी गजल कही अापने बघाई स्वीकार करें
आदरणीय नवीन जी,
कर गए खारिज़ मेरी पहचान को ।
जो तसव्वुर में मुझे शबभर मिले ।।
बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ ....बधाई स्वीकार करें ।
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