परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 74 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब शकील "बदायूँनी" साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
" ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे "
फइलातु फाइलातुन फइलातु फाइलातुन
1121 2122 1121 2122
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 26 अगस्त दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 27 अगस्त दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीय सुरेश कल्याण जी, काफ़िया और रदीफ़ पर आपका अभ्यास सधा हुआ है. बहर की समझ केलिए ग़ज़ल सम्बन्धी आलेखों को एक दफ़े फिर से देखना उचित होगा. भाव पक्ष के लिए हार्दिक बधाई.
प्रयास के लिये हार्दिक बधाई
आदरणीय सुरेश कल्याण जी ग़ज़ल का बढ़िया प्रयास हुआ है. सहभागिता और प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. बहर के हवाले से शेर दर शेर बात करें तो-
वो हाथ उठे भी तो क्या जो राम तक न पहुंचे
वो लफ्ज भी चीज क्या जन तमाम तक न पहुंचे।
वो उठे भी हाथ तो क्या, जो कि राम तक न पहुँचे।
वो भी लफ्ज़ चीज क्या है, जो अवाम तक न पहुँचे।
तेरी नजरों का जादू था या बाहरी ताकत कोई
मधुशाला में रहकर भी हाथ जाम तक न पहुंचे ।
था तेरी नज़र का जादू, या तिलिस्म कोई हमदम
रहे मैकदे में लेकिन, कभी जाम तक न पहुँचे।
करम जो किये हैं तुम छुपाओगे कैसे
डर है कहीं ये राज अवाम तक न पहुंचे ।
कोई राज़ इश्क का तो, है छुपाना आज मुश्किल
यही डर कि बात कोई भी तमाम तक न पहुँचे।
मिल गई आजादी है मगर ये भय सबको
ये सहर भी रफ्ता-रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे।
हैं स्वतंत्र फिर भी सबको, यही भय सता रहा है
ये सहर भी रफ्ता-रफ्ता कहीं शाम तक न पहुँचे।
इसी तरह से पूरी ग़ज़ल पर प्रयास कीजिये. साथ ही मंच पर उपलब्ध ग़ज़ल की कक्षा और ग़ज़ल की बातें भी देख जाइए.
बहरहाल इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर
आदरणीय सुरेश कुमार जी सादर, अच्छा प्रयास हुआ है गजल पर.सादर.
आदरनीय सुरेश भाई , ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है हार्दिक बधाई
तेरे नाम से शुरू हो मेरे नाम तक न पहुँचे
है वो खत बिना पते का जो मुकाम तक न पहुँचे
मेरी धड़कनें तू सुन ले तेरी खामुशी मै पढ़ लूँ
है जो राज़ ए दिल हमारा सरेआम तक न पहुँचे
कहीं खत्म हो ना जाये ये सफर भी दुश्मनी में
वो जो सुबह प्यार की हो मेरी शाम तक न पहुँचे
करें उससे क्या शिकायत करें उसपे क्या भरोसा
वो जो सुबह से चला हो वो जो शाम तक न पहुँचे
है वो बेखबर अगर तो उसे बेखबर ही रखना
मेरी ज़िंदगी का अंतिम सलाम तक न पहुँचे
गमे आशिकी बहुत है मुझे और गम न देना
मेरा दिल भटक गया तो कहीं जाम तक न पहुँचे
जो गुनाह हो चुके हैं करो आज उनसे तौबा
जो छुपा हुआ है सबसे सरेआम तक न पहुँचे
बनी खूब योजनायें हुई खूब वाह-वाही
वो भलाई क्या भलाई जो अवाम तक न पहुँचे
ये जो फ़िक्र है तुम्हारी यही दर्द है हमारा
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बहुत बढ़िया नादिर भाई अच्छी कोशिश हुई है, इस ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई
बहुत शुक्रिया जनाब शिज्जु साहब सीखने की कोशिश जारी है ।
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