आदरणीय साथिओ,
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कथा में थोड़ा विरोधाभाष लगता है, अगर वह नर्तकी राजा और उसके प्रेमिका की पुत्री है तो वह रानी के लिए संकट कैसे हो सकती है| राजा द्वारा कहा गया वाक्य इसे और बेहतर तरीके से स्पष्ट कर सकता था, बहरहाल बधाई इस रचना के लिए
बहुत बढ़िया रचना कही है आदरणीया नीता कसार जी, सादर बधाई स्वीकार करें|
अनुत्तरित प्रश्न (लघु कथा )
‘क्या समझते हो, उसे अपनी बेरोजगारी से दुःख नहीं है . कौन जानता था कि शादी के दो महीने बाद ही उसकी नौकरी छूट जायेगी . अरे इन प्राइवेट नौकरियों का भरोसा भी का है . देखो आज भैया आये तो रोज की तरह यह मत पूछना कि क्या हुआ. तुम्हारे सवालों से तो वह और परेशान हो जाता है . उसे अहसास है की अब उस पर पत्नी की जिम्मेदारी भी है और तुम रोज-रोज वही सवाल पूंछ कर कोंचते रहते हो ‘- पत्नी ने पति को समझाते हुए कहा .
‘हम का करें, मगर जी नहीं मानता. जुबान से जुमला निकल ही जाता है.’
‘नाहीं खबरदार... जब लगने का होगा तो लग ही जावेगा. बहू को भी सुन सुनकर तकलीफ होती है. उसके खेलने-खाने के दिन हैं , कभी तो राम जी सुधि लेंगे .’
अचानक बाहर आहट हुयी. उनका बेटा रोजगार की तलाश में दिन भर थक=भटक कर हमेशा की तरह हताश –निराश शाम को घर वापस लौटा था . पिता ने आशा भरी आँखों से उसे देखा और हठात उसके मुख से फिर वही वाक्य निकला - ’कुछ काम बना, बेटा !’
यूँ तो हर रोज इस प्रश्न को सूना अनसुना कर वह अपने कमरे में चला जाता था .पर आज उसने आग्नेय नेत्रों से पिता की और देखा - ‘क्या ख़ाक बना ----और बनेगा कैसे ? बड़े-बड़े डिग्री वाले तलुए घिस रहे हैं तो हमारी क्या बिसात ? आज नौकरी और धंधा दोनों के लिए लाखों की दरकार है . हमारे पास क्या है ? तुमने जिदगी भर खटकर कौन सा महल खड़ा कर लिया ?’
‘चुप कर बेटा !’- माँ ने हस्तक्षेप करना चाहा- ‘ अपने बापू से तू यह क्या कह रहा है ?’
‘तो क्या गलत कह रहा हूँ . खुद तो जिदगी में कुछ ख़ास कर न सके और मुझ से जाने कौन सी उम्मीद लगाये बैठे हैं . जो कसर थी वह वियाह कर के पूरी कर दी . अब खिलाने की जिम्मेदाई मेरी ---‘
अन्दर कमरे से बहू के सिसकियों की आवाज आयी . माँ की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे . उधर बेटे का आक्रोश आसमान छू रहा था – ‘मैं तो यह समझ ही नहीं पाता की आखिर आप लोगों ने मुझे पैदा ही क्यों किया ?.’
‘चुप, बदतमीज----‘- माँ ने कांपते हुए कहा .
पिता का चेहरा क्षोभ से लाल हो गया. जुबान मानो तालू से चिपक गयी . आज उन्हें इस अनुत्तरित प्रश्न के दारुण दर्द की वास्तविक अनुभूति हुयी. उनकी आँखों के सामने चालीस वर्ष पूर्व का एक दृश्य घूम गया . हठात ही उनके भाव-लोक में स्वर्गीय पिता का चेहरा नुमायाँ हुआ जो आज व्यंग्य से धीरे-धीरे मुस्करा रहा था .
(MAULIK /APRAKASHIT )
सुंदर लघुकथा है आ० डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, बधाई प्रेषित हैI
(बोल्ड टेक्स्ट से आपका मोह नहीं छूटता आदरणीय अग्रज श्री)
कहते हैं न इतिहास अपने को दोहराता है कभी यही प्रश्न उसने अपने पिता से भी किया होगा | बहुत बढिया लघु कथा लिखी है आद० डॉ गोपाल भाई जी दिल से बधाई स्वीकारें प्रस्तुतिकरण तो बहुत शानदार हुआ |
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी।बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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