आदरणीय साथिओ,
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स्त्री जीवन स्वयं में ही एक भंवर से कम नहीं. बढ़िया लगी आपकी लघुकथा आ. कल्पना जी. शीर्षक बहुत उम्दा है. कहानी कहने का अन्दाज़ भी पसन्द आया. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
सहज व तीक्ष्ण प्रभाव से विषय को सार्थक करने के सफल व सार्थक प्रयास हेतु शुभकामनाएं । सधा हुआ शिल्प व कसवाट भरपूर शिल्प की बारीक बुनावट और ऊपर से सटीक शीर्षक चयन । वाह! हार्दिक शुभकामनाएं ।
(अँधेरी सुरंग)
सब कुछ इतनी तेज़ी से घटित हुआ कि वह भौचक्का रह गया थाI शाम के धुंधलके में वह दूर खड़ा अपने घर की छत पर जगमगाती झालरों को अपलक निहार रहा था कि तभी ब्रेक लगने की तेज़ आवाज़ से वह चौंक उठा थाI इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, चार पाँच नकाबधारी उसे ज़बरदस्ती गाड़ी में डालकर अज्ञात स्थान की तरफ चल पड़े थेI
"अरे कौन हो तुम लोग? मुझे कहाँ लिए जा रहे हो?" वह गला फाड़कर चिल्लाया था, उसने कई बार छूटने की कोशिश की किन्तु असफल रहा थाI आबादी से दूर जब उसको गले से पकड़ कर नीचे उतारा गया तो सामने एक लम्बे चौड़े आदमी को देखकर उसके मुँह से बरबस निकला:
"कमांडर साहिब! आप?"
"इधर आ बे! तुझे कई बार संदेसा भिजवाया, तू आया क्यों नहीं?"
"मैंने आपको पहले ही बता दिया था कि मैं अब ये काम नहीं करूँगाI"
"कमीने! जुबान लड़ाता है?" कमांडर की ऑंखें ज्वाला उगल रही थींI
"नहीं कमांडर! मैंने आपका कोई हुकुम टाला आज तक? कितनी बार अपनी जान की बाज़ी लगाई आपके एक बोल परI" वह डर से काँप रहा थाI
"तो कोई एहसान किया साले? उसके एवज़ हमने तुझे आलीशान मकान दिया, पैसा दिया, ऐशो आराम की हर चीज़ दीI तेरी माँ के इलाज पर लाखों रुपये खर्च किए, भूल गया सूअर?"
“नहीं कमांडर, लेकिन...”
"तू चुपचाप हथियार उठा, आज रात बहुत बड़े मिशन पर जाना है हमेंI" कमांडर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थाI
"लेकिन आज तो मैं बिलकुल भी कहीं नहीं जा सकताI"
"क्यों? आज क्या तकलीफ़ है तुम्हें?" कमांडर ने आँखें तरेरते हुए पूछाI
"आज रात मेरी बहन की शादी हैI"
"शादी-वादी छोड़, सिर्फ अपने मकसद पर ध्यान देI" कमांडर ने उसकी बात अनसुनी करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहाI
"मगर मेरी एक ही तो बहन है, मेरा वहाँ रहना बेहद ज़रूरी हैI" उसने गिड़गिड़ाते हुए कहाII
"सीधी तरह मिशन के लिए तैयार हो जा, कहीं ये न हो कि तेरी बहन की सुहागरात यहीं मना देंI" कमांडर की धमकी सुनकर वह सूखे पत्ते की तरह काँप उठाII
"ले आएँ उठाकर उसे कमांडर?" एक बंदूकधारी ने मूँछ को ताव देते हुए कहा कुटिल स्वर में कहाI
"नहीं नहीं! ऐसा गज़ब मत करना, मैं अभी तैयार होता हूँI” उसने कमांडर के पैरों में गिरते हुए कहाI “लेकिन कमांडर बस ये आखरी बार है, इसके बाद मैं यह काम हरगिज़ नहीं करूँगाI” उसने हिम्मत बटोरते हुए कहाI
“आखरी बार? हाहाहाहा!!” एक सामूहिक ठहाका गूँजाI
कमांडर ने उसे कंधे से पकड़ कर उठाया और बंदूक उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा:
“ध्यान से सुन! जो रास्ता हमने चुना है न, वहाँ अन्दर आने का दरवाज़ा तो है मगर बाहर जाने का नहीं हैI”
उसने बंदूक पकड़ तो ली, लेकिन आज उसे बंदूक से भयानक घिन आ रही थीI
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(मौलिक और अप्रकाशित)
रचना पसंदीदगी के लिए दिल से शुक्रिया भाई उस्मानी जी.
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