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ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक 52 में सम्मिलित सभी ग़ज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

आदरणीय मित्रजनों 

 

५२ वे तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| इस बार का तरही मिसरा "फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में" जनाब एहतराम इस्लाम साहब की ग़ज़ल से लिया गया था| इसलिए संकलन से पूर्व प्रस्तुत है यह ग़ज़ल:-

कतारें दीपकों की मुस्कुराती हैं दिवाली में
निगाहें ज्योति का संसार पाती हैं दिवाली में

छतें, दीवारें, दरवा़जे पहन लेते हैं आभूषण
मुँडेरें रौशनी में डूब जाती हैं दिवाली में

अँधेरों की घुटन से मुक्ति मिल जाती है सपनों को
फ़जाएँ नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

नए सपनों की चंचल अप्सराएँ नृत्य करती हैं
तमन्नाएँ दिलों को गुदगुदाती हैं दिवाली में

निराशाओं के जंगल में लगाकर आग चौतऱफा
उमीदें ज़िंदगी के गीत गाती हैं दिवाली में

नए संकल्प लेने पर सभी मजबूर होते हैं
कुछ ऐसी भावनाएँ जन्म पाती हैं दिवाली में।

भुला दो `एहतराम इस्लाम' सारे भेद-भावों को,
मेरी ग़जलें यही पै़गाम लाती हैं दिवाली में

मंच पर बहुत ख़ूबसूरत गज़लें प्रस्तुत हुई जिन्होंने दीपावली के पर्व के आनंद को और बढ़ा दिया| कई शायर रदीफ़ को लेकर गलतियाँ करते दिखाई दिए, दरअसल रदीफ़ ही तो है जो ग़ज़ल को बांधे रखता है| उस्तादों का कहना होता है कि जिस शायर ने रदीफ़ को पहचान लिया उसके लिए ग़ज़ल कहना बिलकुल आसान हो जाता है, अपने ख्यालों को एक ही रदीफ़ के साथ बांधना थोडा तो कठिन होता ही है पर एक बार जब रदीफ़ के साथ भावों, ख्यालों का सही गठबंधन हो गया तो जो शेर निकलता है वह कमाल करता है| उम्मीद है कि जिन शायरों ने यह गलतियाँ की हैं वो इस मुशायरे को एक सबक की तरह लेंगे और भविष्य में ऐसी गलतियाँ दुबारा नहीं करेंगे|

 

मिसरों में दो रंग भरे गए हैं लाल अर्थात बेबहर मिसरे नीले अर्थात ऐब वाले मिसरे|

 

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Saurabh Pandey

पटाखों संग फुलझरियाँ सुहाती हैं दिवाली में
नुमाइश की चमक रंगीं बनाती हैं दिवाली में

करें कल्लोल आपस में चहकती लड़कियाँ कितनी
इशारों में कई किस्से बनाती हैं दिवाली में

जगे चूल्हे, सजे बरतन, वहीं पकवान की खुश्बू,
रँगोली पूरती दुल्हन.. लुभाती हैं दिवाली में

बताशे-खील से पूजा, मिठाई भोग लगती है
शुभंकर दीप-आभाएँ सुहाती हैं दिवाली में

इधर अँगड़ाइयाँ लेती धरा जब कुनमुनाती है
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

दिया यम का लिये चुपचाप आँखें मूँद माँ अबभी-
दरिद्रों को बहुत लानत सुनाती हैं दिवाली में !

यहाँ था चौर तुलसी का.. यहाँ तब दीप जलते थे
कई बातें पुरानी अब सताती हैं दिवाली में

सजी रातों की फितरत देखिये जो बालकों को खुद
’नज़र से जीमना क्या है’ - बताती हैं दिवाली में

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Tilak Raj Kapoor

दियों की पंक्तियॉं राहें दिखाती हैं दिवाली में
अमावस की सियाही को मिटाती हैं दिवाली में।

दुपहरी गुनगुनी होकर सुहाती हैं दिवाली में
शिशिर का आगमन संदेश लाती हैं दिवाली में।

हुआ अरसा कभी देखा नहीं उसने मुझे छूकर
सुना है मां की ऑंखें डबडबाती हैं दिवाली में।

समय की दौड़ में हम छोड़ आये हैं जिन्‍हें पीछे
वो गलियॉं गॉंव की अब तक बुलाती हैं दिवाली में।

तड़प दिल में मगर प्रत्‍यक्ष मिलना हो न पाये तो
हमारी खैर मॉं काकी मनाती हैं दिवाली में।

सितारे आस्‍मां से ज्‍यूँ उतर आये मुंडेरों पर
दियों की वल्‍लरी यूँ झिलमिलाती है दिवाली में।

जहॉं अंधियार दिख जाये, मिटाने को हुई आतुर
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में।

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शिज्जु "शकूर"

धुआँ होकर बलाएँ भाग जाती हैं दिवाली में
दुआएँ खुल के यूँ जल्वे दिखाती हैं दिवाली में

घरों में जलते हैं दीपक मुहब्बत के हज़ारों और
ज़माने भर की खुशियाँ मुस्कुराती हैं दिवाली में

अँधेरा मुँह छुपा लेता है शरमा के कहीं यारो
“फ़िज़ाएँ नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में”

ज़मीं पर आसमाँ मानो उतर आता है हर सू जब
चरागों की सफें, लौ जगमगाती हैं दिवाली में

पटाखों को जलाकर खुश हैं कुछ उड़ते शरर को देख
निगाहें यूँ भी खुशियाँ ढूँढ लाती हैं दिवाली में

चरागों, रौशनी की वुसअतों के दरमियाँ बेबस
कहीं तारीकियाँ भी छटपटाती हैं दिवाली में

कहीं गुर्बतज़दा मजबूरियों के जाल में फँसकर
तमन्नाएँ मचलती कसमसाती हैं दिवाली में

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vandana

सजी दहलीज कंदीलें बुलाती हैं दिवाली में
कतारें नवप्रभावर्ती रिझाती हैं दिवाली में

अमा की रात में कैसे लिखे वो छंद पूनम के
हुनर ये दीपमालाएं सिखाती हैं दिवाली में

भुलाकर रिश्तों के बंधन डटें हैं सीमा पर भाई
तो बहनें चैन की बंसी बजाती हैं दिवाली में

जले दीपक से दीपक तो खिले है खील सा हर मन
तो गलियाँ गाँव की हमको बुलाती हैं दिवाली में

दिये को ओट में रखकर नयन के ज्योतिवर्धन को
ख़ुशी से माँ मेरी काजल बनाती हैं दिवाली में

जला कब दीप है बोलो निरी माटी की यह रचना
उजाले बातियाँ स्नेहिल सजाती हैं दिवाली में

अकेले भी करो कोशिश अगर तम को हराने की
सफलताएँ सगुन-मंगल मनाती हैं दिवाली में

हठीली आग रख सिर पर निभाती है कसम कोई
फिज़ाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

अनूठा दृश्य रचते हैं कतारों में सजे दीपक
विभाएं शुद्ध अनुशासन दिखाती है दिवाली में

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Akhand Gahmari

किये श्रृंगार सोलह वो बुलाती हैं दिवाली में
छुपा मुखड़ा मुझे पागल बनाती हैं दिवाली में

अँधेरी रात को मैने जला कर दिल किया रौशन
जला दिल देख मेरा मुस्‍कुराती हैं दिवाली में

कहीं जलते हुए दीपक कहीं ठंडा पड़ा चुल्‍हा
बता दो तुम गरीबी क्‍यों न जाती हैं दिवाली में

सजाता खुद को था मै तो बड़े अरमान से लेकिन
मुझे वो प्‍यार करने अब न आती हैं दिवाली में

उतर आये सितारे सब गगन से आज धरती पे
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

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dilbag virk

दिलों को दीपमालाएँ लुभाती है दिवाली में
जमीं को देख परियाँ मुस्कराती हैं दिवाली में |

जले दीये, अँधेरा मिट गया काली अमावस का
फिजाएँ नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में |

जरूरी हार इनकी, ये अँधेरे हार जाते हैं
शमाएँ मिल असर अपना दिखाती हैं दिवाली में |

मजे से ज़िंदगी जीना कभी तुम सीखना इनसे
जवां दिल की उमंगें गीत गाती हैं दिवाली में |

यही सच, दौर कितना भी बुरा हो बीत जाता है
गमों को जीत खुशियाँ जगमगाती हैं दिवाली में |

न समझो शोर इसको ' विर्क ' बच्चों के पटाखों का
दबी-सी ख्बाहिशें आवाज़ पाती हैं दिवाली में |

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rajesh kumari

सितारों से सजी बारातें आती हैं दिवाली में
तबस्सुम की भरी सौगातें लाती हैं दिवाली में

सजी पगडंडियाँ भी मुस्कुराती हैं दिवाली में
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

अमावस की हदें तक भुनभुनाती हैं दिवाली में
वतन की सरहदें जब झिलमिलाती हैं दिवाली में

ख़ुदा की रहमतें क्या खूब आती हैं दिवाली में
बिना महताब राहें जगमगाती हैं दिवाली में

जले दीपक जली लड़ियाँ लुभाती हैं दिवाली में
मुक़द्दस लौ गिले शिकवे मिटाती हैं दिवाली में

पतंगों को शमाएँ यूँ रिझाती हैं दिवाली में
पिघल कर उन्स की दौलत लुटाती हैं दिवाली में

जियायें मुफ़लिसी की कसमसाती हैं दिवाली में
कई मासूम आँखें डबडबाती हैं दिवाली में

ख़ुशी से बस्तियाँ जब खिलखिलाती हैं दिवाली में
कई खबरें जुए , चोरी की आती हैं दिवाली में

कहीं टोने कहीं जादू चलाती हैं दिवाली में
बुरी कुछ शक्तियाँ भय से सताती हैं दिवाली में

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Kewal Prasad

तमस को जीत कर रोशन, बताती है दिवाली में।
मिठाई-खील-गट्टा मॉं खिलाती है दिवाली में।।

सदा दुर्गा - सती सीता, मॉ लक्ष्मी पुजाती है,
दिलों का डर पटाखों सा जलाती है दिवाली में।

मिले जिसको दिया, महताब बन रोशन करे जीवन,
शिवालय-घूर-घर-नाली, सुहाती है दिवाली में।

अॅंधेरों ने जलाई है मशालें, सीख ले मानव,
निराशा में सदा आशा जगाती है दिवाली में।

बड़ी तकलीफ में चन्दा-सितारे-आसमॉं जीते,
भरे भण्डार मॉं लक्ष्मी, सुहाती है दिवाली में।

अमावस रात की खुशियॉ, अजी बॉंहो समाती कब?
फिजाएं नूर की चादर बिछाती है दिवाली में।

हमे आजाद भारत से शिकायत एक है लेकिन,
बुराई मार कर, सत्यम जगाती है दिवाली में।

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Ayub Khan "BismiL" 


ज़मीं मिस्ले क़मर जब जगमगाती है दिवाली में
नज़र फिर तीरगी हमको कब आती है दिवाली में

जनाबे राम लोटे थे इसी दिन तो अयोध्या में
उस आमद की ख़ुशी दुनिया मनाती है दिवाली में

भुलाकर दुश्मनी अपनी गले मिल जाते हैं दुश्मन
तो फिर इंसानियत भी मुस्कुराती है दिवाली में

मसर्रत के तराने गूँजतें है हर गली घर मैं
कहाँ गम की कोई आहट फिर आती है दिवाली में

मुअत्तर घी की खुशबू से हुआ जाता है ये आलम
दिये दुनिया जब आँगन में जलाती है दिवाली में

उतर पाती नहीं लज़्ज़त ज़ुबाँ से साल भर उसकी
वो गुझिया मीठी सी जो माँ बनाती है दिवाली में

जहाँ हो क़द्र रिश्तों की मुहब्बत और अपनापन
हाँ लक्ष्मी भी उसी घर में तो आती है दिवाली में

मुनव्वर ये जहाँ सारा हुआ जाता है जब बिस्मिल
फिजायें नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

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अजीत शर्मा 'आकाश'

हसीं ख़्वाबों की लड़ियाँ झिलमिलाती हैं दिवाली में ।
अँधेरा ना-उमीदी का मिटाती हैं दिवाली में ।

दिशाएँ मस्त होकर छेड़ती हैं राग -रागिनियाँ
हवाएँ ख़ुश्बुओं के गीत गाती हैं दिवाली में ।

क़तारों में सजे दीपक ख़ुशी से मुस्कराते हैं
दमकती झालरें मन को लुभाती हैं दिवाली में ।

उजालों में नहा कर छत, मुंडेरें और दीवारें
तराने ज़िन्दगी के गुनगुनाती हैं दिवाली में ।

फ़लक से चाँद और तारे उतर आये हैं धरती पर
शुआएं रौशनी की खिलखिलाती हैं दिवाली में ।

नहीं टिक पायेगा कोई अँधेरा ज़िन्दगी में अब
दिलों में सौ उमीदें जगमगाती हैं दिवाली में ।

महालक्ष्मी करें धन-धान्य की वर्षा इस आशा में
गृहिणियाँ थाल पूजा के सजाती हैं दिवाली में ।

अलौकिकता भरा वातावरण मन मोह लेता है
उमंगें भी हसीं महफ़िल सजाती हैं दिवाली में ।

अमावस की सियाही मुँह छिपाकर भाग जाती है
“फ़िज़ाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में । ”

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Sarita Bhatia

सितारों सी सजी राहें रिझाती हैं दिवाली में |
ख़ुशी की महफ़िलें जब खास आती हैं दिवाली में |

सिया औ' राम जो आए अयोध्या लौट कर तब से
नगर गलियाँ मुंडेरें टिमटिमाती हैं दिवाली में |

दुआयें माँ हमेशा दे रही बच्चों को लगता ,जब
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में |

पटाखों को नहीं कहकर, ख़ुशी से झूमते बच्चे
सुरक्षा आदतें माएं सिखाती हैं दिवाली में |


रंगोली है सजी आँगन, दिये रोशन करें जीवन
दियों के रूप में खुशियाँ ही आती हैं दिवाली में |


अँधेरा दूर कर मन का ,चले जो राह सच्ची हम
खुदा की रहमतें राहें दिखाती हैं दिवाली में |

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मोहन बेगोवाल

यही जो रौशनी अब मुसकराती है दिवाली में |
वही मन की सियायी को मिटाती है दिवाली में |

अभी वो बात उसकी याद आई तो लगा ऐसा ,
उसे कब भूल पाये जो मिलाती है दिवाली में |

कभी हम ने न सोचा था वही धोखा दे जायेगी,
रखी थी याद जो दिल में बुलाती है दिवाली में |

सुनायें झूठ तो फिर भी हमीं क्यूँ मान जाते है ,
ये कैसी सोच जो अब डगमगाती है दिवाली में |

हमारा दिल अभी से फिर नये ख्वाबों सा भर जाए,
"फिजाएं नु र की चादर बिछाती है दिवाली में "|

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Poonam Shukla

तुम्हारी यादें क्यों हर बार आती हैं दिवाली में
दिए बाती से हम तुम हैं बताती हैं दिवाली में

शहर में मिट्टी के दीपक भला अब कौन लेता है
लड़ी बिजली की ही हर दर सजाती हैं दिवाली में

अमावस को कहीं छुप बैठ चंदा देखता रहता
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

बमों से गूँज उठते हैं अमीरों के तो घर आँगन
गरीबों को मगर सिसकी सुलाती हैं दिवाली में

कहीं आतिश की गूँजों से शमा रंगीन होती है
वहीं छप्पर गरीबों के जलाती हैं दीवाली में

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भुवन निस्तेज

ये खुशियाँ हो गयी महँगी सताती है दिवाली में
बजट से पाई पाई छीन जाती है दिवाली में

किसी को गाँव की यादें जो आती हैं दिवाली में
घुटी रूहें शहर में कसमसाती हैं दिवाली में

तेरे बच्चों की उम्मीदों का सूरज कल भी निकलेगा
कई लौएँ ये कहकर फड़फड़ाती हैं दिवाली में

जो मेरा बोझ ढहकर भी ख़ुशी से झूल जाती थी
वो बूढ़े पेड़ की शाखें बुलाती हैं दिवाली में

कतारों में जले दीपक, पटाखे और फुलझड़ियाँ
किसी ‘रमुआ’ के बच्चे को लुभाती हैं दिवाली में

गुबारो-गर्द सारा धुल शरद यौवन पे आया है
फिज़ाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

जहाँ देखो वहाँ पाया है बस बाज़ार सा मंजर
पसीने की ये बूंदे बिक न पाती हैं दिवाली में

जो लाया एक कतरा रोशनी कुछ रोटियों को छोड़
उसे तारीकियाँ कितना सताती हैं दिवाली में

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Dayaram Methani

सफाई अरु मिठाई जगमगाती है दिवाली में,
मिलावट की मुसीबत भी सताती है दिवाली में।


गली बाजार है रौशन जगमगाते नजर आते,
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में।


निगाहें रात भर तकती रही राहें न आया वो,
सभी को याद अपनों की रुलाती है दिवाली में।


बतायें क्या हमें आतंक ने कितना सताया है,
पटाखों की धमक हमको डराती है दिवाली में।


बहुत बदलाव है आया समय के साथ ‘मेठानी’
कमाई छल कपट की मुस्कराती है दिवाली में।

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Satyanarayan Singh

सजे बाजार रौनक यूं सुहाती है दिवाली में
सजी गुलनार कोई दिल लुभाती है दिवाली में

इलाहाबाद नैनीताल या फिर शांत पटियाला
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

दिखे अनगिन दिये दहलीज पर जलते हुए न्यारे
सगुन की बात दीपक लौ बताती है दिवाली में

बढ़ी ना आय जनता की सुनो लेकिन बढ़ी मांगे
महंगाई कहर यूं यार ढाती है दिवाली में

सितारों आज चमको खूब काली रात कहती है
इसी कारण अमां की रात भाती है दिवाली में

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arun kumar nigam

हवाएँ याद के दीपक जलाती हैं दिवाली में
न जाने किन खयालों को बुलाती हैं दिवाली में

हमारे द्वार पर दीवार की साँकल लगी वरना
तुम्हारी खिड़कियाँ अब भी बुलाती हैं दिवाली में

पटाखे हों कि राकिट हों , मचाते शोर नाहक ही
घर-आँगन तो ये फुलझरियाँ सजाती हैं दिवाली में

न अब मिट्टी के चूल्हे हैं न खालिस खुशबुएँ घी की
दुकानों से मिठाई घर में आती हैं दिवाली में

न आँगन है न तुलसी है, जमीं अपनी न छत अपनी
नई कालोनियाँ रस्में निभाती हैं दिवाली में

अमावस से मिलन का आज वादा है फिजाओं का
किया था बचपने में जो , निभाती हैं दिवाली में

गया है चाँद अपनी चाँदनी के पास बतियाने
"फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में"

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रमेश कुमार चौहान

दियें तो राह सूरज सा दिखाती हैं दिवाली में
दिखे चंदा कहां शायद लजातीं हैं दिवाली में

जहां देखो वहां दीपक जले हैं इस दिवाली में
फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

छुपे नभ में कहीं तारे नजर हम से चुरा कर के
फटाखें और फुलझडि़यां बताती हैं दिवाली में

नुमाइश करते हैं बच्चे नये पहने हुये कपड़े
नई फैशन जगह अपनी बनाती हैं दिवाली में

बनाती लड़कियां रंगोली हर घर गली आंगन
सजा कर द्वार लक्ष्माी को बुलाती हैं दिवाली में

दिखावा मात्र हैं त्योहार क्यों रे इस जमाने में
बिते पल याद कर दादी सुनाती है दिवाली में

बहू बेटा गये हैं जो कमाने खाने परदेश
उसे मां की बुढ़ी आंखें बुलाती है दिवाली में

अमीरी औ गरीबी में नही है फासला किंचित
बताशें औ मिठाईंयां बताती हैं दिवाली में

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किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो अथवा मिसरों को चिन्हित करने में कोई त्रुटि हुई हो तो अविलम्ब सूचित करें|

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जगे चूल्हे, सजे बरतन, वहीं पकवान की खुश्बू,
रँगोली पूरती दुल्हन.. लुभाती हैं दिवाली में

जगे चूल्हे, सजे बरतन, पकवान की खुश्बू और रँगोली पूरती दुल्हन दिवाली में लुभाती ही हैं न ?... फिर मिसरे का नीला रंग समझ में नहीं आया, राणा भाई. किसी वाक्य में कई सज्ञाओं के रहते अंतिम संज्ञा के अनुसार क्रिया का होना  --यहाँ बहुवचन स्त्रीलिंग--  व्याकरण सम्मत ही है.

कुछ और बात हो तो अवश्य बताइये.

आदरणीय राना प्रताप जी, इस श्रम-साध्य कार्य के निष्पादन हेतु बधाइयाँ, अपनी गलतियों को जानने की जिज्ञासा तो हमेशा रहती ही है. ध्यानाकर्षण हेतु आभार............

आ. मंच संचालक राणा प्रताप जी, इस त्वरित संकलन के लिए हार्दिक बधाई कृपया निम्नवत संशोधन पर आपकी राय अवश्य दीजियेगा. 

दुवाएं सब असर अपना दिखाती हैं दिवाली में

बलाएं देख सारी भाग जाती हैं दिवाली में

इलाहाबाद नैनीताल या फिर शांत पटियाला

फिजाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

 

दिखे अनगिन दिये दहलीज पर जलते हुए सारे   

प्रथाएं आज निज कर्मठ निभाती हैं दिवाली में

 

बढ़ी ना आय जनता की सुनो लेकिन बढ़ी मांगे

सभी की जेब ढीली ये कराती हैं दिवाली में

 

सितारों खूब चमको तुम अमां ने छूट दे रख्खा

अमां की हर अदाएं दिल लुभाती हैं दिवाली में 

                             संशोधित 

आदरणीय सत्यनारायण जी 

"बढ़ी ना आय जनता की सुनो लेकिन बढ़ी मांगे" ..इस मिसरे में आया 'ना' जो कि २ के वजन में है उसे 'न' अर्थात 1 के वजन में कर लें, तत्पश्चात संशोधित ग़ज़ल मैं लगा दूंगा|

धन्यवाद|

आ. राणा प्रताप जी सादर ,

          मार्गदर्शन हेतु आपका हृदय से आभार आदरणीय, ग़ज़लगोई के मूलभूत नियमों को समझकर उसे आत्मसात करने  का प्रयास मैं कर रहा हूँ.  अपनी समझ के अनुसार मैंने मिसरे में  निम्नवत संशोधन करने का प्रयास किया है

       

            बढ़ी आमद न लोगों की सुनो लेकिन बढ़ी मांगें 

            सभी की जेब ढीली ये कराती हैं दिवाली में

      सादर 

   सर जी , लाल को नीले रंग के मिसरे में बदलन में  मदद करने के लिए आप सब के साथ देने का बहुत बहुत धन्यवाद

आदरणीय राणा सर कृपया निम्न मिसरों के बारे में बताइये 


उजालों में नहा कर छत, मुंडेरें और दीवारें   .... का नीला रंग

और 

कहीं आतिश की गूँजों से शमा रंगीन होती है .... का लाल रंग 

आदरणीया वन्दना जी पहले मिसरे में तकाबुले रदीफ़ का ऐब है और दूसरा मिसरा शमअ को गलत वजन में बाँधने से बेबहर हो गया है |

बहुत २ आभार आदरणीय.... तकाबुले रदीफ़ की तरफ मेरा ध्यान मेरे बहुत सोचने के बाद भी  नहीं गया यह मेरी गलती है और शमअ वाली बात अब ध्यान में रहेगी 

आदरणीय राणा साहब, इस त्वरित संकलन के लिए आपकी जितनी भी प्रशंसा की जाये कम है. इस बार मई रदीफ़ के मामले में कई एनी मित्रों की तरह ही धोखा खा गया .जिस्सेगाज़ल काफी रंग बिरंगी होगई है. मेरा आपसे सदरानुरोध है के उसे कुछ यूँ कर दें.....

 

ये खुशियाँ हो गयी महँगी सताती है दिवाली में

बजट से पाई पाई छीन जाती है दिवाली में

 

किसी को गाँव की यादें जो आती हैं  दिवाली में

घुटी रूहें शहर में कसमसाती हैं दिवाली में

 

तेरे बच्चों की उम्मीदों का सूरज कल भी निकलेगा

कई लौएँ ये कहकर फड़फड़ाती हैं दिवाली में

 

जो मेरा बोझ ढहकर भी ख़ुशी से झूल जाती थी

वो बूढ़े पेड़ की शाखें बुलाती हैं दिवाली में

 

कतारों में जले दीपक, पटाखे और फुलझड़ियाँ

किसी ‘रमुआ’ के बच्चे को लुभाती हैं दिवाली में

 

गुबारो-गर्द सारा धुल शरद यौवन पे आया है

फिज़ाएं नूर की चादर बिछाती हैं दिवाली में

 

जहाँ देखो वहाँ पाया है बस बाज़ार सा मंजर

पसीने की ये बूंदे बिक न पाती हैं दिवाली में

 

जो लाया एक कतरा रोशनी कुछ रोटियों को छोड़

उसे तारीकियाँ कितना सताती हैं दिवाली में  

मौलिक व अप्रकाशित

संशोधन कर दिया है|

आ० राणाप्रताप जी ,संकलन तथा त्रुटियाँ बताने हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुक्रिया |मेरी ग़ज़ल का ये मिसरा नीला देखकर सोच रही हूँ कहाँ गलती हुई -----जले दीपक जली लड़ियाँ लुभाती हैं दिवाली में---क्या दीपक पुर्लिंग एवं लड़ियाँ को एक साथ लेकर लुभाती जो लिखा है उसमे गलती हुई है या कुछ और प्लीज बताइये ताकि इसे दुरुस्त कर सकूँ |

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"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
20 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Sunday
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Friday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday

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