परिचित अपरिचय
गीले भाव, भीगे गाल, स्वप्न रूआँसे
विवेकी-अविवेकी कोषों में बसे
सूक्षमातिसूक्षम खयाल मेरे
रातों तिलमिलाते, क्यूँ ?
गुँथे खयालों से तुम्हारे
अभी बिंधे तुमसे, अभी उलझे मुझमें
सूर्य की किरणों का उल्लास बटोरती
अकेले-अकेले में अपने से सहजतम
तुम भी तो बातें करती नहीं थकती थीं
खयालों की धारा-गति अनचीन्ही
सोच-सोच कर मुझको पगली-सी हँसती ..
आँचल की लहरीली सलवटें शरमा…
ContinueAdded by vijay nikore on January 26, 2014 at 11:30am — 12 Comments
आत्म-धन
होगी ज़रूर कोई गहरी पहचान
दर्द की तुम्हारे इस दर्द से मेरे
कि जाने किन-किन तहों से उभरती
छटपटाती
लौट आती है वही एक याद तुम्हारी
यादों के कितने घने अँधियाले
पेड़ों के पीछे से झाँकती ...
मैंने तो कभी तुमको
इतना स्नेह नहीं दिया था
भीगी आँखों से, हाँ,
भीगी आँखों को देखा था
कई बार... खड़े-खड़े ... चुपचाप
पंख कटे पक्षी-सा तड़पता
ठहर नहीं पाता है मन पल-भर…
ContinueAdded by vijay nikore on January 21, 2014 at 11:00am — 23 Comments
नित्यानंदम स्तयं निरूपम !
श्यामल गंभीर रात्रि
सुनता हूँ संवेदनमय स्वर
"विचारों में गुँथे, वेदना से बिंधे
अस्वीकृत एकाकी मन
तू उदास न हो"
टूटे संबंधों के
वीरान प्रवहमान प्रसारों में
कल की पुरानी किसी की
प्यार भरी हँसी, स्नेहमयी आँखों में
देखो, शायद सुख-शांति मिल जाए
देखो उन आँखों में, इतना न देखो
कि तुम्हें अनजाने
अज्ञात दर्द कोई और मिल जाए
मानवीय…
ContinueAdded by vijay nikore on January 15, 2014 at 2:30pm — 20 Comments
दोस्ती
देखता हूँ सहचर मीत मेरे
सहसा, दोस्ती की निगाहें हैं झुकी हुई
पलकें भीगी
घिरते आए संत्रस्त ख़यालों पर
खरोंचते-उतरते संतप्त ख़याल ...
फिसलते भीगे गालों पर
दोस्ती के वह सुनहले रंग
बिखरते गीले काजल-से
कहाँ हैं दोस्ती की रोश्नी की
वह अपरिमय चिनगियाँ
बनावटी थीं क्या ? नहीं, नहीं,
चमकती थीं वह अपेक्षित आँखों में ...
रुको, माप लूँ मैं बची हुई थोड़ी-सी
उस चमक की…
ContinueAdded by vijay nikore on January 5, 2014 at 9:00am — 24 Comments
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