सरला का छोटा सा सुखी परिवार था. वह बहुत ही अनुशासप्रिय थी. उसके दो बच्चे थे. एक बेटा एक बेटी. बेटा पाँच साल का था और बेटी तीन की. दोनों को अपने काबू में रखती थी सरला.
जब भी कहीं बाहर जाती बच्चों को घर के अंदर रहने की हिदायत देकर बाहर से मुख्य द्वार में ताला लगा देती. बच्चे जब तक बोलने लायक न थे सबकुछ ठीक चलता रहा. एक दिन सरला कहीं बाहर से आयी तो देखा बेटा घर में नहीं है. वह सारा घर छान मारी, आस पास देखा. मगर
बेटा कहीं भी नहीं मिला. वह परेशान होकर अपने पति को जब फ़ोन करना चाही…
Added by coontee mukerji on March 31, 2013 at 2:00am — 9 Comments
ऐसी ही एक शाम थी
कुछ गुलाबी थोड़ी सुनहरी
सूर्य किरणें जल में तैरती
तरल स्वर्ण सी चमकीली
फैली थी घनी लताएँ
हरित पत्तों बीच गहरी
बैगनी फूलों की छाया
हृदय में थी ठहरी सी
मन झील सा शांत
इच्छाएँ थीं चंचल , अकिंचन
पहेलियाँ कितनी अनबुझी
तैर रही थी मीन सी
गोद में खुला पड़ा था
पत्र एक , किसी अंजान का
उपेक्षित सा यूँ ही
बरसों पहले था पढ़ा
कितनी रातें बीती थी
सपनों में भटकती थी
उपवन में कभी , कभी –
निविड़…
Added by coontee mukerji on March 27, 2013 at 12:30am — 8 Comments
शोभना जितनी सुन्दर थी उतनी ही बेबाक और गर्वीली भी थी. वह अमरीका से उच्च शिक्षा प्राप्त थी. होम मिनिस्ट्री में बहुत ही ऊँचे पद पर आसीन थी. उसे शादी नाम से बहुत चिढ़ थी. जब वह पैंतीस साल की हो गयी तो एकदिन उसके पिता ने उससे कहा- “ शोभना ! अगर तुम्हें कोई पसंद हो तो बता देना मैं तुम्हारी शादी उसीसे कर दूँगा. ”
शोभना ने भी सोचा अब शादी कर ही लेनी चाहिये. अतः अपने पिता से बोली – “ठीक है पिता जी, लेकिन मुझे मेरे ही ग्रेड का वर चाहिये. ’’
शोभना स्वयं अपने वर की तलाश करने लगी.…
Added by coontee mukerji on March 25, 2013 at 9:00pm — 6 Comments
रंगों के बाज़ार में खड़ी हूँ सखि !
मेरा घर सूना , आंगन सूना ,
बाग बगीचे , पेड़ पात सूना
दिन रात सूना, सूना मेरा आंचल,
पिया परदेश , संसार मेरा सूना.
होली रंगों की थाल लिये
द्वार खड़ी हँस रही , क्या करूँ सखि !
उदासी मेरा रूप श्रृंगार, हाय !
नौकरी बनी सौतन मेरी.
बिन बादल बरसात होती नहीं,
डाल पर मैना अब गाती नहीं -
उड़ता है रंग हर कहीं,
कोई रंग मुझको भाता नहीं.
फूलों की बरसात हो रही,
मेरे जूड़े में फूल लगता नहीं -
अंतहीन…
Added by coontee mukerji on March 24, 2013 at 7:16pm — 5 Comments
लुढ़क के वहीं आ खड़ी हुई ज़िंदगी
जहाँ थे कभी खड़े,
कदम थे कितने नपे तुले
किस राह पर , कहाँ फिसल के रह गये.
मुड़कर देखना क्या ?
सोच के पछ्ताना क्या ?
हवा भी कुछ ऐसी बही,
चट्टान ढलान में ठहरता क्या ?
दूर दूर तक था रेगिस्तान
नैनों में कितने रेत पड़े,
आँसू किसके बहकर रहे
अतीत के या आने वाले कल के.
फूलों पर चलते थे कभी -
कब पंखुड़ियाँ रह गये मुरझा के,
एक शुष्क पात भी नहीं रहा
देखूँ जिसे कभी नज़र भर के.
जिधर भी गये हाथ…
ContinueAdded by coontee mukerji on March 20, 2013 at 9:50pm — 7 Comments
जब ढल जाती है रात
कृष्ण-पक्ष की काली गह्वर सी अकेली,
एक सितारा टिमटिमाता हुआ
उलटा लटका सा नज़र आता है.
शय्या पर बैठी उनींदी,
एक सांस खींचती गहरी सी,
खोलती हूँ जब आँखें पूरी
दूर कहीं निगाह भटक जाती है.
निःस्तब्ध रात्रि और मेरा अकेलापन
अपने विचारों को समेटती,
अनगिनत नक्षत्रों को गिनती
रहती हूँ शून्य में खोई सी.
दूर कहीं बादल भटकते,
कुछ यादें शूल से चुभते,
बाग में पत्रहीन वृक्ष भीड़ में…
Added by coontee mukerji on March 15, 2013 at 8:41pm — 4 Comments
सुंदर छवि पा,
नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?
मधुपों की प्रियतमा,
जग में जो अनुपमा,
शशि की किरणों की बाँहें थाम
कमलिनी निशा में खिलती है –
सुंदर छवि पा,
नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?
सागर की उत्ताल तरंगें,
चट्टानों से टकराती लहरें,
होती हैं क्यों छिन्न-भिन्न !
क्या है यह नज़रों का भ्रम
क्षितिज की मृगतृष्णा लिये,
धरा गगन को छूती है –
सुंदर छवि पा,
नयन भर आंसू ,…
ContinueAdded by coontee mukerji on March 8, 2013 at 12:51am — 9 Comments
मौलिक एवं अप्रकाशित
मेरे पूर्वज भारत से आये थे इतना सुनकर
मारीच में सोना मिलता है पत्थर पलटकर
उन्नीसवीं सदी का दौर था,
अंग्रेज़ों का कठोर राज था,
हर दिशा हाहाकार मचा था,
बिहार से हर कोई भाग रहा था.
प्रथम पग रखे जब मारीच के रेतीले धरती पर
उन्हें क्या पता कि वे लाये गये ठगकर
बंद कोठरी में वे कितने दिन पड़े थे,
आदमी जानवर की तरह गिने जाते थे,
जिससे डर के इतने दूर भागे…
ContinueAdded by coontee mukerji on March 4, 2013 at 2:18pm — No Comments
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