212 212 212 212
चार दीवारें भी हों छतों के लिये
और क्या चाहिये मुफलिसों के लिये
महफिलें भूख की हो रहीं हैं ज़बां
है सियासत मगर रहबरों के लिये
अत्ड़ियाँ पेट की घुटनों से मिल गईं
अब कहाँ तक झुकें रहमतों के लिये
जिन दरख्तों तले पल रहा आदमी
प्यार की हो नमी उन जड़ों के लिये
लाख दौलत अकूबत है हासिल जिन्हें
वो तरसते मिले कहकहों के लिये
ठोकरें नफरतें झिड़कियों के सिवा
और…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 24, 2016 at 4:30pm — 12 Comments
1222 1222 1222 1222
हमें अब याद आते हैं सुहानी शाम के चर्चे
तुम्हारी बज़्म की बातें तुम्हारे नाम के चर्चे
सदायें ये मुहब्बत की दिशायें गुनगुनायेंगी
कहीं राधा कहीं मीरा कहीं पे श्याम के चर्चे
लिये बैठा हूँ नम आँखें अधूरा प्यार का किस्सा
कभी मजनू कभी राँझे कभी खय्याम के चर्चे
किसी ने राग जो छेड़ा घुली खुशबू…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 4, 2016 at 9:00pm — 20 Comments
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