बस इतनी थी
खता हमारी
कि थोड़ा
जीना चाहा
कॉफी के
हर घूंट में हमने
कितना कुछ
पीना चाहा
मगर बेहया
इन रातों को
इतना भी
मंजूर न था
पलट हंसा
सारे प्रश्नों को
जब उत्तर कुछ
दूर ना था
और छपे तब
कितने किस्से
चेहरे के
अखबार में
समझ चुका था
गहन दहन ही
मिलता इस
संसार में
बस इतनी थी
ख़ता हमारी
कि…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on May 21, 2013 at 1:11pm — 7 Comments
हर रात
देखता हूं
एक नदी का सपना
जो भरती है
निर्मल धार
उष्ण अंतस की गहराई तक
नसों में बहते लावे
जिसके घने स्पर्श से
जीवंत हो उठते हैं
पर आंख खुलते ही
घबरा जाता हूं
जब देखता हूं
जलती रेत पर
फड़फड़ाते अंश को
और देह भी तब
भिनभिनाने लगती है
थके डैने थाम पंछी
भी तो सुस्ताते नहीं
और फिर
पन्नों पर दिखती है
दरिया की लकीरें
सिमटी हुई
इंच दर…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on May 14, 2013 at 4:10pm — 12 Comments
मेरे हित
सच है मां तुमने
केवल जन्नत
मांगी थी
सच कहना पर
कब बहना हित
कोई मन्नत
मांगी थी ?
सदा-सर्वदा
तेरा पूजन
रहा पिता या
मेरे नाम
बहना का पर
रहा हमेशा
एक वहीं
सबका श्रीराम
सच कहना
कब उसकी खातिर
कितनी चौखट
लांघी थी
सदा सर्वदा
मेरी खातिर
दुआ नहीं क्या
मांगी थी ?
और सास बन
तुमने ही…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on May 13, 2013 at 5:21pm — 12 Comments
तुमने जो भी बात कही थी
सबको माना तेरे बाद
हो गई अपनी पीर पराई
हँस के जाना, तेरे बाद
बोझिल राते खुल के बोलीं
दिन बतियाया तेरे बाद
तेरे रहते था मैं बूढ़ा
खिली जवानी तेरे बाद
तुझे देख जो बादल गरजे
जमकर बरसे तेरे बाद
हो गई सारी दरिया खारी
रो-रो जाना, तेरे बाद
तेरे रहते दर-दर भटका
मंजिल पाई तेरे बाद
हाथों की वो चंद लकीरें
बनीं मुकद्दर तेरे बाद
यह भी तेरी…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on May 2, 2013 at 4:46pm — 15 Comments
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