पहले वह रोज आती थी
कभी बरामदे के मुंडेर पर बैठती
कभी खिड़की पर
और कभी-कभी तो
हद ही हो जाती जब वो
कमरे के अन्दर तक आ जाती ।
रोज सबेरे
जब उसकी आवाज सुनते
तब लगता
कि सुबह हो गई है
तब शुरू हो जाता
हमारा रोजनामचा ।
दिन ऐसे ही
रोज गुजरते रहे
वह रोज आती रही
हम रोज उसे देखते रहे
फिर एक दिन अचानक
लगा कुछ " मिसिंग" है ।
फिर अखबार में पढ़ा
गौरैया "एक्सटिंक्ट" होने के कगार पर है
एक सदमा…                      
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                                                        Added by Neelam Upadhyaya on June 24, 2010 at 3:11pm                            —
                                                            3 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      मित्रो, यह कोई कविता नहीं , बल्कि कविता के रूप में नदियों से होने वाले खतरे के प्रति मित्रो को आगाह करती है ..शायद आपको अच्छी लगे ...चुकी मैं इस छेत्र से जुड़ा हू ..तो लिखना मेरा फ़र्ज़ है ..
सर्पीली रूप में बहना
मेरी नियति है ॥
बाँधने की कोशिस में
उग्र हो जाती हू ॥
किनारे का बाँध तोड़
निकल जाना चाहती हू ...
फिर पूछो मत ...
कई सभ्यता /संस्कृतियों के
विनाश का कारण बन जाउगी ॥
बहना चाहती हू
जैसे , उन्मुक्त उड़ना चाहती है
पिंजरे का…                      
Continue
                                          
                                                        Added by baban pandey on June 24, 2010 at 10:48am                            —
                                                            1 Comment
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      जिसमे शब्द नही, हो चेहरा तेरा ला मुझे वो किताब देदे
जो बहाएँ हें हर पल मेने, मेरे इन आंसूओं का हिसाब देदे
कोई पीता है आँसू यहाँ तो किसीने पिए हैं अपने सारे गम
मैं तो हर रात यह कहता हू ला साकी थोड़ी और शराब देदे
अब देगी या तब देगी यही सोच कर काट दी उमर अपनी मैने
जो पूछा था तुझसे मैने अब तो मेरे उस सवाल का जवाब देदे
नही पता तुझे काँटों का चुभना दर्द नही देता थोड़ा भी मुझे
ला मुझे तेरे बदन की खुश्बू वाला,तुझसा हसीन एक गुलाब देदे
कहती…                      
Continue
                                          
                                                        Added by Pallav Pancholi on June 24, 2010 at 1:31am                            —
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                      मुक्तिका:
आँख का पानी
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आजकल दुर्लभ हुआ है आँख का पानी.
बंद पिंजरे का सुआ है आँख का पानी..
शिलाओं को खोदकर नाखून टूटे हैं..
आस का सूखा कुंआ है आँख का पानी..
द्रौपदी को मिल गया है यह बिना माँगे.
धर्मराजों का जुआ है आँख का पानी..
मेमने को जिबह करता शेर जब चाहे.
बिना कारण का खुआ है आँख का पानी..
हजारों की मौत भी उनको सियासत है.
देख बिन बोले चुआ है आँख का पानी..
किया…                      
Continue
                                          
                                                        Added by sanjiv verma 'salil' on June 23, 2010 at 10:30pm                            —
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                      जग की कटुता देख, ह्रदय की कोमलता मत खो देना.
मधुमास सुबास सुमन तन की, हर इक सांसों में भर देना.
तेरे होठों की लाली से, उषा का अवतरण हुआ.
तेरी जुल्फों की रंगत से, ज्योति का अपहरण हुआ.
अपने खंजन- नयन में रम्भे, अश्रु कभी मत भर लेना.
मधुमास सुबास सुमन तन का, हर इक साँसों में भर देना.
पाता है रवि रौनक तुमसे, चाँद- सितारे शीतलता.
पवन सुगंध- हिरण चंचलता, रसिक - नयन को मादकता.
जग को मिलता प्राण तुम्हीं से, तुम्हे जगत से क्या लेना.
मधुमास सुबास सुमन तन का,…                      
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                                                        Added by satish mapatpuri on June 23, 2010 at 3:53pm                            —
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                      मुझे हसाना तो नहीं आता
मगर, रुलाना आता है ..दोस्त !
मुझे स्तुति -गान नहीं आता
मगर ,निंदा -गान आता है ...दोस्त !
मुझे तैरना नहीं आता
मगर , डुबाना आता है ....दोस्त !
मुझे धोती पहनाना नहीं आता
मगर , नंगा करना आता है ...दोस्त !
मैं गाली नहीं सुन सकता
मगर ,मगर गाली देना आता है ...दोस्त !
मुझे लिखना नहीं आता
मगर ,गलतियां निकाल लेता हू ...दोस्त !
सच में ,
मैं जानता कुछ नहीं ...मेरे दोस्त
फिर भी ,…                      
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                                                        Added by baban pandey on June 23, 2010 at 3:35pm                            —
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                      तेरे प्यार में दर्द लाखों सहें.
मगर बेवफा तुमको कैसें कहें.
जिन्हें प्यार से तुमने चुमा कभी.
उन्हीं आँखों से गम का दरिया बहे.
मगर बेवफा तुमको कैसे कहें.
अब भी हमें ऐसा लगता अक्सर.
तुम्हीं सामने से चले आ रहे.
मगर बेवफा तुमको कैसे कहें.
टूटे हुए दिल की है ये सदा.
जफा करने वाले सदा खुश रहें.
मगर बेवफा तुमको कैसे कहें.
मापतपुरी की यही एक ख्वाहिश.
किसी मोड़ पे वो ना फिर से मिलें.
मगर बेवफा तुमको कैसे कहें.
गीतकार- सतीश…                      
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                                                        Added by satish mapatpuri on June 21, 2010 at 4:01pm                            —
                                                            5 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      भारत
कुत्तों के भौकने की
इधर -उधर सूघने की
एक अच्छी जगह ॥
गाहे -बगाहे
समय -कुसमय
चोर देखकर भौकना
और कभी -कभी
बिना चोर देखे
तेजी से भौकना ॥
गज़ब चरित्र है इनका ...
साधारण जनता
इनकी मानसिकता नहीं समझ सकते ॥
कुत्तों की सर्वोच्च संस्था
कहती है .....
भौकने की यह प्रवृति
परिपक्वता को दर्शाता है ॥                                          
                    
                                                        Added by baban pandey on June 21, 2010 at 1:59pm                            —
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                      माँ - जब हम पैदा भईनी
हम त कुछ न जानत रहनी
कि डायबिटीज भी कुछ होखेला
आ एकरा से जीवन में कुछ फरक परेला
हम त ईहे जानत रहनी कि
अइसही होखत होई - खूब भूख लगत होई -
अइसहीं होखत होई - कबो खूब घुमरी आवत होई
हाथ - पैर झनझनात होई - चश्मा लगवले पर ठीक लऊकत होई I
हमरा खातिर त ई दुनिया
तबो अइसने रहे - सामान्य
हमरा खातिर ई दुनिया
आजो अइसने बा - सामान्य
बाकिर हमार - ना - तहार दुनिया बदल गईल
तब तूं खूब रोवलू
जब तहरा के बतावल गईल…                      
Continue
                                          
                                                        Added by Neelam Upadhyaya on June 21, 2010 at 11:46am                            —
                                                            6 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      घर
प्यार औ अपनत्व
जब दीवारों की
छत बन जाता है
वो मकान
घर कहलाता है
रजनी छाबरा                                          
                    
                                                        Added by rajni chhabra on June 21, 2010 at 10:55am                            —
                                                            3 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      तुम्हें दिखाउगा आइना, क्योकि वह केवल सच बोलता है
उनके लिए कौन लडेगा , जो केवल अपना हक मांगता है ॥
क्या मेरा इधर -उधर झाकना , तुम्हें नागबार लगता है
तो खुद ही बता दो वे बातें , जो हमें ख़राब लगता है ॥
सूरज तो निकलेगा एक दिन ,बादलों की उम्र ही क्या है
सच्चाई वय़ा करेंगे वे लोग , जिन्हें आज डर लगता है ॥
वो परेशां है इसलिए क़ि उनकी झूठ पकड़ ली गई है
इधर देखें ,उधर देंखें वे कही देखें , अब शर्म लगता है ॥
वे नंगे थे शुरू से ही ,नंगापन…                      
Continue
                                          
                                                        Added by baban pandey on June 21, 2010 at 6:10am                            —
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                      स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
संजीव 'सलिल'
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों…                      
Continue
                                          
                                                        Added by sanjiv verma 'salil' on June 20, 2010 at 7:49pm                            —
                                                            2 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      भोजपुरी के संग: दोहे के रंग
संजीव 'सलिल'
भइल किनारे जिन्दगी, अब के से का आस?
ढलते सूरज बर 'सलिल', कोउ न आवत पास..
*
अबला जीवन पड़ गइल, केतना फीका आज.
लाज-सरम के बेंच के, मटक रहल बिन काज..
*
पुड़िया मीठी ज़हर की, जाल भीतरै जाल.
मरद नचावत अउरतें, झूमैं दै-दै ताल..
*
कवि-पाठक के बीच में, कविता बड़का सेतु.
लिखे-पढ़े आनंद बा, सब्भई…                      
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                                                        Added by sanjiv verma 'salil' on June 20, 2010 at 7:33pm                            —
                                                            2 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      आज पिर्तु दिवस पर मै श्रधान्जली के रूप में अपना नाम ;; कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा'' रखता हूँ ,आने वाली रचनाओ में इसी नाम से आप लोग ,अपना प्यार और आशीर्वाद दें...धन्यवाद                                          
                    
                                                        Added by कमलेश  भगवती  प्रसाद  वर्मा on June 20, 2010 at 2:15pm                            —
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                      हर जगह
छलांग नहीं लगाया जा सकता ॥
मंजिल तक
पहुचने के लिए
सीढियों की ज़रूरत
तो पड़ती ही है ॥
इन सीढियों को
हम जितनी
मेहनत /श्रम /लगन से बनायेगें ....
ये सीढिया ...
उतनी जल्दी ही
हमें अपनी मंजिल तक
पंहुचा देगी ॥
----------बबन पाण्डेय                                          
                    
                                                        Added by baban pandey on June 20, 2010 at 9:56am                            —
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                      मैं तुझ से मिलने आऊंगा
मैं तुझ से मिलने आऊंगा
हर रात हौले से जब बंद करेगी तू अपनी आँखें
तेरे सपनो के द्वार इक दस्तक मैं दे जाऊँगा
मैं तुझ से मिलने आऊंगा
मैं तुझ से मिलने आऊंगा
लाख लगा ले तू पहरा अपने महलों की द्वारों पे
नज़र उठा के देख ज़रा लिखा है मैने नाम तेरा चाँद सितारों मे
जानता हूँ हर रोज़ जाती है तू फूलों के बागों मे
बालों मे लगाती है इक गजरा पिरोके उनको धागों मे
इक दिन बनके फूल तेरे गजरे का तुझ ही को महकाऊँगा
मैं…                      
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                                                        Added by Pallav Pancholi on June 20, 2010 at 12:47am                            —
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                      कौन कहता है ........मै इन्सान नहीं हूँ ,
हरकतें तो वही हैं ,मतलब भगवान नहीं हूँ ॥
मन में सब दुनियावी इच्छओं का ढेर लगा है ,
सब है फिर भी मुझको भी, ९९ का फेर लगा है ॥
मन की सारी चिंताएं बिलकुल, सबके जैसी हैं ,
मेरी हैं सबसे अलग, तुम्हारी बताना कैसी है ॥
हम तो सबका भला मांगते, ऐसा मन कहता है ,
पर हमेशा अपने भले की ,दुआ ये मन करता है ॥
हूँ इन्सान पर कहता हूँ'' मै बेईमान नही हूँ '',
अगर यह सच है, तो लगता है ''इन्सान नही हूँ…                      
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                                                        Added by कमलेश  भगवती  प्रसाद  वर्मा on June 19, 2010 at 8:01pm                            —
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                      करो जीवन मे जो प्रण,
पुरा करने को उसे,
कर दो तन-मन सब कुछ अर्पण।
राह मे आए चाहे कितनी भी कठिनाइयां,
चाहे हँसती रहे तुमपर सारी दुनिया,
अगर पक्का है तुम्हारा इरादा,
तोड़ सकते हो तुम हर बाधा,
सदा रखो स्वयं पर नियंञण,
अस्वीकार कर दो लोभ का हर निमंञण,
ज्यों-ज्यों लक्ष्य के प्रति बढेगा आर्कषण,
चिड़िया की तरह तिनका तिनका उठाना होगा,
तुम्हे रात-दिन अपना पसीना बहाना होगा,
हिम्मत मेहनत और लगन से
पुर्ण किया जो तुमने…                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by Raju on June 19, 2010 at 12:46pm                            —
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                      माँ ....
मैं तुम्हें खोज लूँगा
तुम यहीं कहीं हो
मेरे आस -पास .... ॥
आपकी अस्थियां
प्रवाहित कर दी थी मैंने
गंगा में ॥
भाप बन कर उड़ी
गंगा -जल
और फिर बरस कर
धरती में समा गई
मैं सुबह उठकर
धरती को प्रणाम करता हू
इसे चन्दन समझ
माथे पर तिलक लगाता हू ॥
ऐसा कर
आपका
प्यार और वात्सल्य
रोज पा लेता हू .. माँ ॥
-------------बबन पाण्डेय                                          
                    
                                                        Added by baban pandey on June 19, 2010 at 6:20am                            —
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                      आस का पंछी
मन इक् आस का पंछी
मत क़ैद करो इसे
क़ैद होंने के लिए
क्यां इंसान के
तन कम हैं                                          
                    
                                                        Added by rajni chhabra on June 19, 2010 at 1:00am                            —
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