वो आँखें थी या ख्वाब के बगूले, वो जुल्फें थीं या रात के समंदर की लहरें, वो होंठ थे या सेब तराशे हुए, वो चेहरा था या किसी नदी का सुनहरा टुकड़ा, वो कामत थी या लहलहाते फसल का खेत, उसका पैरहन था या जिस्म के तनासुब में बनाया कालिब, उसकी नज़र थी या कि कोई नीली बर्क, उसकी हंसी थी या प्यार का गुदगुदाता ऐतेराफ़, उसकी चाल थी या किसी सपेरे की हिलती बीन, उसके कॉल थे या ख्वाब से जागती अंगड़ाई, उसकी उदासी थी या मीलों लंबा पहाड़ का दामन, उसकी खुशी थी या कहकशाँ में भीगे सितारे, उसका लम्स था या किसी शिफागर…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:57pm — No Comments
कहाँ चले जाते हैं लोग करीब आके. किधर मुड़ जाती है राह आँखों से ओझल होके. क्या होता है उनका जो अब अपनी वाबस्तगी में नहीं. धूप जो अभी अभी पूरे एअरपोर्ट पे बिखरी थी, कहाँ गुम हो गई. इक उदासी भरी धुन जो बज रही था, वो क्या कह के चुप हो गई.
लाउंज की खाली-खाली कुर्सियां, और कुछ कुर्सियों में सिमटे सिकुड़े लोग, कहाँ जा रहे हैं ये लोग, कौन इनका इंतज़ार करता होगा और किस जगह पे. हम इनसे फिर कभी मिलेंगे भी या नहीं और मिले भी तो कैसे जान पायेंगे. दिन यूँ आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहा है जैसे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:56pm — No Comments
कुछ उदासियों के चेहरे होते हैं जो जब हंसते हैं तो और भी रुलाते हैं! कुछ खामोशियाँ बाजुबां होती हैं, जो जब बोलती हैं तो दिल की गहराइयों में लहरें उठती हैं, कुछ ख़याल टहलते हैं गिर्दोपेश में कि उनके मानी को सरापा पढ़ा जा सकता है. कोई दिन पपीहे की तरह गाता है गोया बारिश की फुहारों ने समूची कायनात को इक मजलिसेमूसीकी बना दिया हो, कोई रात आके सिरहाने खडी़ हो जाती है मानो मेरे काँधे पे सर रख के दो आंसूं रो लेना चाहती हो. कुछ लोग ज़हन में यूँ बस जाते हैं गोया कोई बीती निस्बतों का नेस्तेनाबूद न होने…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:30pm — No Comments
ख़ुदाकी जलाई शम्मा तो कबसे रौशन है
कोई है तो खुद अपनी दानाई चिल्मन है
कुछ किताबें, कपड़े, एक तोशक, तकिया
और तेरी फुर्कतसे चरागाँ मेरा नशेमन है
न होता इश्क तो हुस्न की कद्र क्या थी
आशिकों को दीवाना कहना पागलपन है
क्यूँ भला पूछें हम बगलगीरों के मसाइल
अपना-अपना घर अपना-अपना आँगन है
हुए खानाखराब इश्कमें फिरेहैं खानाबदोश
रहलेवें हैं हम जिस शह्रमें जैसा चलन है
मौत किस तरहा मुश्कबूसी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 8:30pm — No Comments
मैं पैदा ही हुआ हूँ दर्द को जीने के लिए
जैसे लहरें बनींहैं जाँकश सफीनेके लिए
मुझको क्या गिजा चाहिए जीने के लिए
तुम्हारा गम काफी है पूरे महीने के लिए
कुछ तो चाहिए दिलको गम दवा या दारु
इकअदद आब काफी नहींहै पीने के लिए
क्यूँ बढ़ालीहैं हमने अपनी सब ज़रुरीयात
बढ़ीहुई तंख्वाह चाहिए हर महीने के लिए
मैं भटकता हुआ दरिया हूँ समंदर है कहाँ
कोई ठहराव चाहिए तामीरेनगीने के लिए
अपनी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:50am — 2 Comments
बैंगलोर शहर से चिंतामणि, (जिला चिक्काबल्लापुर) और फिर वहाँ से कोलार तक का कार का सफर. ऊँचे नीचे खेत खलिहानों में तस्वीर सा चस्पां कर्नाटका सूबे का देहाती जीवन, छोटी छोटी पहाडियों के पसेमंज़र साफ़ सुथरे घरों की कतारें, और बीच बीच में आते जाते गाँव कसबे- सब कुछ बहुत ही दिलकश था. ताड़ और नारियल के दरख्त खेतों में अपनी मह्वियत में खड़े थे और नज़र भर भर कर सब्जियत के साये नज़रों में तहलील हो रहे थे. मैं सोच रहा था लोग गाँवों को छोड़ शहरों की ओर क्यूँ जाते हैं. दूर खलिहानों से बहके आती खुनक हवाएं…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:20am — No Comments
तशवीशात के अजीमुश्शान महल में जैसे खो गया हूँ. हज़ार रास्ते, मगर कौन सही है, दीवारें जो दिख रहीं हैं वो आँखों का धोखा तो नहीं. दरीचों में समाया मंज़र शायद वहम हो. जगह जगह फिक्रों के फानूस टंगे हैं, अज़ीयतों के जौहर से दरोदीवार आरास्ता हैं. दूर कहीं आँगन में अंदेशों के आबशार से बह रहे हैं, बगीचे खौफ के दरख्तों से गुंजान और उलझनों के टिमटिमाते चरागों से शबिस्ताँ रौशन है. गलियारों में कशीदगी के कालीन बिछे हैं, कफेपा से जिनपे दिल की शोरीदगी के नक्श उभर आए हैं. बैठकखानों में मखफी सायों की मजलिस…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 21, 2012 at 8:00pm — 4 Comments
रायपुर से भोपाल का हवाई सफर- घरों के घरौंदे होकर नुक्ते में बदलकर खो जाने और आसमाँ के पहाड़ के ऊपर मील दर मील चढ़ते जाने का अद्भुत सफर. चंद लम्हों में ज़मीनी सच्चाइयों का दामन छूट चुका था और हम ख़्वाबों के एक खामोश तैरते समंदर के ऊपर तैर रहे थे. हर सम्त बादलों के बगूले तरह तरह की नौइयत और शक्ल में परवाज़ कर रहे थे- उनकी आहिस्ताखिरामी और लहजे के सुकून को देखकर ऐसा लग रहा था गोया किसी फ़कीर ने अपने फैज़ का खज़ाना लुटा दिया हो और नीले सफ़ेद रुई के फाहों में ज़िंदगी की तपिश से नजात के मरहम बंट…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 3:08pm — 4 Comments
अब कहाँ आएँगे लौट के सबेरे कल के
रातमें तब्दील हो गए हैं उजाले ढल के
कोई खुशबू तेरे दामन की एहसासों में
कुछ लम्स से हथेली में तेरे आँचल के
मौत आई तो बेसाख्ता ये महसूस हुआ
कि ज़िंदगी आईहै वापिस चेह्रे बदल के
जाने वालातो सामनेसे रुख्सत हो गया
जाने क्या सुकूं मिलता है हाथ मल के
मैं कोई ख्वाब में हूँ या कोई गफलत है
आसमां में उड़ रहा हूँ, पंख हैं बादल के
बुझरही शमाने कराहते हुए मुझसे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 10:24am — No Comments
पुणे से पत्नी को लिखा पत्र
प्यारी बिन्नी,
वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे
जहाँ के पेड पौधे, खेत खलिहान और
कुत्ते भी हमसे बातें किया करते थे
वो गांव क्या था पूरा परिवार था
हर आदमी इक दूसरे के प्रति
कितना जिम्मेवार था
सबकी खुशियाँ हमारी खुशियाँ थीं और
हमारे दुःख में हर कोई हिस्सेदार था
गांव के चौधरी यही तो कहा करते थे
वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 1:00pm — 5 Comments
पूरा हो या अधूरा अरमाँ निकल ही जाता है
करीब आ के दूर कारवाँ निकल ही जाता है
जो न बदलें हालात तो खुद को बदल डालो
जंगलोंसे निकलो आस्माँ निकल ही जाता है
रहेंगे कबतक मुन्हसिर गुंचे खिलही जाते हैं
कभीतो ज़िंदगीसे बागवाँ निकल ही जाता है
पत्थरोंसे भी मिट जाती हैं इबारतें समय पे
हो गहरा दिल का निशाँ निकल ही जाता है
मसीहा आते हैं इम्तेहा-ए-गारतपे हर दौर में
दौरेज़ुल्मियत से ये जहाँ निकल ही जाता…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:56pm — 2 Comments
मरना क्या है?
जब मेरे दादा मरे थे तो मैं बहुत छोटा था, मुझे मालूम न हो सका कि मरना क्या है
कुछ अजीब सा माहौल था मगर फिर सब अच्छा लगा
घर में भोज हुआ और खाने पीने को अच्छा मिला.
जब मेरे चाचा मरे तो मैं कुछ बड़ा हो चुका था, माहौल ग़मगीन था, लोग रो रहे थे, सन्नाटा था
मगर फिर सब अच्छा लगा
घर में भोज हुआ और खाने पीने को अच्छा मिला.
जब मेरे पिता मरे तो पहली बार दुःख हुआ, लगा…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:49pm — 10 Comments
मैं मंजिल के करीब आकर बिखर न जाऊं
सोचता हूँकि आज रात अपने घर न जाऊं
मुझे भी है इन्तेज़ार उम्रदराज़ हो जाने का
दिनभर बेरोज़गार रहूँ और दफ्तर न जाऊं
लहरोंको देख तेरी नज़रों की याद आती है
मैंने सोचा हैकि फिर कभी समंदर न जाऊं
गली में कुहराम मचा है और मैं बच्चा हूँ
माँ ने कहा है कि मैं घर से बाहर न जाऊं
छोड़ गया है अपना कुनबा बीवीकी खातिर
अब्बा कहतें हैंकि मैं बड़े भाई पर न जाऊं
रोक…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:32pm — 2 Comments
....तो तुम होती
रातों में तन्हाई नहीं होती
तो तुम होती
दुखों की परछाई नहीं होती
तो तुम होती
ज़िंदगी में बेपर्वाई नहीं होती
तो तुम होती
खुदा ने मेरी किस्मत बनाई नहीं होती
तो तुम होती
ये अयालदारी, ये जीस्तेकुनबाई नहीं होती
तो तुम होती
खामखाह हमने बात बढ़ाई नहीं होती
तो तुम होती
पैदाइशेखल्क के मरकज़ में जुदाई नहीं होती
तो तुम होती
हममें तुममें तश्वीशेआबाई नहीं…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:20pm — 2 Comments
शब्दों में जो लिखा है....
---------------------------------
शब्दों में जो लिखा है
अपना भोगा यथार्थ गढ़ा है
तराशी हैं मन की सभी छोटी बड़ी बातें
जो कभी किसी कोने में दुबका सिकुड़ा है
और जो कभी आकाश से भी उन्नत और बड़ा है
शब्दों में लिख लिख के सश्रम
उसके ही परिहास और वंचनाओं को गढ़ा है
बदल गए अपनों की व्यथाएं
आँखों से झांकती क्लांत आशाएं
संबंधों की अपरिभाषित सीमाएं
कुछ करने न करने की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 8:30am — No Comments
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |