देहरी लांघ चली
आशाएं
मुंह बाएं प्रीत
भगोना
अँखुवाती भर देह
विवशता
जिद अपनी छोड़े ना
आदिम सब
चट्टान…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on July 18, 2013 at 4:30pm — 5 Comments
बंजर बादल चूम रहे हैं
फिर से प्रेत शिलाएं
लोकतंत्र की
लाश फूलती
गंध भरे
गलियारों में
यहां-वहां बस
काग मचलते
तुष्ट-पुष्ट
ज्योनारों में
नित्य बिकाउ नारे लेकर
चलती तल्ख हवाएं
गंगा का भी
संयम टूटा
वक्र बही
शत धारों में
क्षुब्ध, कुपित
पर्वत, हिमनद भी
कह गए बहुत
ईशारों में
पछताते चरणों से लौटी
कितनी विकल…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on July 11, 2013 at 4:52pm — 16 Comments
इक औरत सी तन्हाई को
जब यादें कंधा देती हैं
दीर्घ श्वांस की
चंड मथानी
मथ जाती
देह-दलानों को
टूटे प्याले
रोज पूछते
कम-ज्यादा
मयखानों को
गलते हैं हिमखण्ड कई पर
धारा कहां निकलती है
नि:शब्द सुलगती
रात पसरती
उष्ण रोध दे
प्राणों को
कौन रिफूगर
टांक सकेगा
इन चिथड़े
अरमानों को
कैसे पाउं मंजिल ही जब
पल-पल जगह बदलती…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on July 10, 2013 at 1:24pm — 23 Comments
तमस मंथरा
के निवास में
ईच्छा जब
पग धरती है
**दश रथों की
धीर धुरी भी
विकल हाथ
बस मलती है
ऐसे में
अक्सर ही संयम
दूर भरत सा
रहता है
हो अधीर कुछ
मनस लखन भी
चाप चढ़ाए
फिरता है
बस विवेक तब
राम रूप में
सबको पार
लगाते हैं
ज्ञान तापसी
वेश सिया धर
बढ़ते चल
कह जाते हैं
इतना ही तो
लिखा हुआ है
तुलसी…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on July 5, 2013 at 12:01pm — 9 Comments
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