सूरज की लालिमा और
उसे इस कदर थका हुआ देख ...
पंक्षियों को लौटते देख
दरख्तों के साये लंबे होते देख
ये आभास हुआ कि
सूरज डूबने वाला है
बच्चों का कलरव
गाड़ियों का सड़क पर
अचानक भागते हुये देख
यह एहसास हुआ
कि....
ये दिन डूबने वाला है
फिर आंखे मूंदकर
मैंने डूबते सूरज से कुछ मांगा
इस बात से बेपरवाह
कि डूबती हुयी चीज
किसी को कुछ नहीं दे सकती
जो खुद अँधेरों मे डूब रहा…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 15, 2013 at 10:30pm — 6 Comments
जरूरत है प्रयास की
कोशिश की
कंक्रीट का जंगल
और ठसाठस सड़के हैं
नीला अंबर धूल धूसरित है
उहापहो की स्थिति है
इतने विशाल शहर में
हम और तुम निहायत अकेले हैं
जीवन का उद्देश्य
केवल जीवन यापन है
नित्य क्रम की नियति को
समझ लिया खुशी का समागम
खोखली हंसी
छिछला प्यार
दिखावे के लिए मिलना जुलना
केवल सतही संतुष्टि है
झाँक कर देखा अंदर
तो अजीब तरह का खोखलापन है
गाहे…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 14, 2013 at 10:30pm — 6 Comments
संबंध
बेमतलब , बेमानी ...
भाई चारे की तरह
ढोते हैं रिश्तों की लाश को
आफ्नो को
अपने ही देते कंधे
चलते जाते हैं
नाकों मे फैलती
अपनों की सड़ांध
आसान नहीं है चलना
और फिर
जला आते है अपनों की लाश को
अपने ही , मगर
ढ़ोना तो पड़ता है
छाँव की तलाश मे
रिश्तों की आस मे
संबंध
बेमानी , बेमतलब
भाई चारे की तरह ...
"मालिक व अप्रकाशित"
Added by Amod Kumar Srivastava on July 11, 2013 at 10:00pm — 11 Comments
शिखर को छूने की चाहत में
जमीन को भूल गया हूँ
झूठ को जीते जीते
सच को भूल गया हूँ...
खुद्दार हैं वो जो
मर के भी जीते हैं
बेबसी हमारी हम
जी के भी मरते हैं
सच है चराग जलाने से
अंधेरा मिटेगा
मगर वो आचरण कहाँ से आए
जिससे पाप मिटेगा ....
कतरा कतरा जमा करो
समंदर बनेगा
अपना हृदय विशाल करो
जिसमे वो बहेगा ....
आंखे बंद करने से अंधेरा
होगा…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 11, 2013 at 7:59am — 5 Comments
तू तो वह पल है
जिसे मैंने पाला है
जिसको मैंने जिया है
जिसने मुझे रुलाया
और
हँसाया भी है
मुझे, तुमसे मिलाया भी है
और मुझको, मुझसे भी मिलाया है
पद दिया
मान दिया
सम्मान दिया
कभी अर्श पे
कभी फर्श पे
बैठाया ....
मगर पल का क्या
पल की आदत है
बीत जाना
तो वो पल था
जो छोड़ गया
ये पल है
कल ये भी न होगा
पल का क्या
पल की तो आदत है
बीत जाना ....
"मालिक व अप्रकाशित "
Added by Amod Kumar Srivastava on July 7, 2013 at 5:00pm — 5 Comments
मैं क्या लिखूँ
कहाँ से पकड़ू
कहाँ से जोड़ू
न भाव है
न आधार है
अंतहीन है सिलसिला
गुजरता जाता है
सब कुछ इस जहां मे
निराकार है, निराधार है
लालसाए हैं
न ठिकाना है, न ठहरना है
फैले हुये शब्दों के जंजाल
महत्वाकांक्षाएं, मौलिकता
सब दिखावा है
क्या लिखूँ
यह व्यथा की कथा है
शब्दों का सूनापन है
क्या लिखूँ
न भाव हैं ... न ही आधार है…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 6, 2013 at 7:30am — 5 Comments
ये सच है पुराना जाता नहीं
तो नया आता नहीं
पर पुराना जब
टूट कर जाता है
तो उसे बहुत याद आता है
कल तक जिस टहनी पर
वह इतना इतराता था
इतना ईठलाता था
आज बेबस पड़ा है
सड़कों पर आ खड़ा है
जरा सी हवा आई
और उड़ा ले गई
कल तक जो हवा अपने
आँचल सहलाती थी
आज वही हवा
उसे दर-बदर कर रही है
तकदीर बदलते
देर नहीं लगती
कल तक हरा
आज धूप मे पड़ा
खड़खड़ा रहा…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 3, 2013 at 9:00pm — 6 Comments
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |