प्रकाश को काटते नभोचुम्बी पहाड़
अब हुआ अब हुआ अँधेरा-आसमान ...
अनउगा दिन हो यहाँ, या हो अनहुई रात
किसी भी समय स्नेह की आत्मा की दरगाह
दीवारों के सुराख़ों में से बुलाती है मुझको
और मैं आदतन चला आता हूँ तत्पर यहाँ
पर आते ही आमने-सामने सुनता हूँ आवाज़ें
इस नए निज-सर्जित अकल्पनीय एकान्त में
अनबूझी नई वास्तविकताओं के फ़लसफ़ों में
और ऐसे में अपना ही सामना नहीं कर पाता
झट किसी दु:स्वप्न से जागी, भागती,…
ContinueAdded by vijay nikore on August 25, 2017 at 6:49am — 23 Comments
यह संस्मरण लेखक, कवि, उपन्यासकार डा० रामदरश मिश्र जी के संग बिताय हुए सुखद पलों का है।
सपने प्राय: अप्रासंगिक और असम्बद्ध नहीं होते। कुछ दिन पहले सोने से पूर्व मित्र-भाई रामदरश मिश्र जी से बात हुई तो संयोगवश उनका ही मनोरंजक सपना आया ... सपने में बचपन के किसी गाँव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, कुनकुनी धूप, और बारिश एक संग, ... और उस बारिश में बच्चों-से भागते-दोड़ते रामदरश जी और मैं ... कुछ वैसे ही जैसे उनकी सुन्दर कविता “बारिश में भीगते बच्चे” मेरे सपने में जीवंत हो गई…
ContinueAdded by vijay nikore on August 15, 2017 at 4:00pm — 8 Comments
प्रतीक्षातुर पलों में, नींदों में
आर-पार जाती पारदर्शी सोच में
परस्पर आत्मीय पहचान
हम दोनों के ओंठ मुस्करा देते
हवा में आगामी प्रातों की ओस-सुगन्ध
हमारी बातों में कहीं "न" नहीं थी
कभी कोई इनकार नहीं था, पुकार थी बस
धधकते हुए सूरज में प्रखर तेज था तब
उस प्रदीप्त धूप की छाती में
कुछ भसम करने की चाह नहीं थी
मैदानों को चीरती हवाओं में
थी रोम-रोम में उमंग
सूरज की उजाड़ किरणों में अब
अपने…
ContinueAdded by vijay nikore on August 7, 2017 at 4:31pm — 4 Comments
तुमसे मिलने की उदात्त प्रत्याशा ...
प्रेरणा के प्रहर थे
स्वत: मुस्कराने लगे
तुम्हारे आने का मौसम ही होगा
वरना वीरान हवाओं में
ध्वनित-प्रतिध्वनित न होते
यूँ वह गीत-आलाप सुरीले पुराने
उस अमुक अरुणोदय से पहले ही एक संग
हर फूल, कली, हर पत्ते का झूम-झूम गाना
हाथ-में-हाथ पकड़ खेलना, तुम्हें गुनगुनाना
और नवजात-सी उत्सुक पक्षिणियों का
सांवले पंख फैला
चोंच-मार खेलना, चहचहाना…
ContinueAdded by vijay nikore on August 6, 2017 at 7:57pm — 9 Comments
(इस वर्ष आ रही ४५ वीं वर्षगाँठ के लिए
जीवन-संगिनी प्रिय नीरा जी को सप्रेम समर्पित)
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हो विश्वव्यापी सूर्य
या हों व्योम की तारिकाएँ
गहन आत्मीयता की उष्मा प्रज्ज्वलित
तुम्हारा स्वर्णिम सुगंधित साथ
काल्पनिक शून्य में भी हो मानो
तुम यहीं-कहीं आस-पास ...
सम्मोहित
शनै:-शनै: सहला देती हूँ तुम्हारा हाथ
संकुलित कटे-छंटे शब्द हमारे
मन्द्र मौन में रीत जाते
और कुछ और…
ContinueAdded by vijay nikore on August 5, 2017 at 4:00pm — 14 Comments
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