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Pratibha pande's Blog – August 2015 Archive (8)

इसीलिए फूले फिरते हो [कविता ]

 दुःख से अब तक नहीं मिले हो

इसीलिए फूले फिरते हो I

 

 ज्ञान  ध्यान की बातें सारी 

सुख सुविधा संग लगती प्यारीI

चेहरे पर पुस्तक  चिपकाये

दूजों को ही पाठ पढ़ाये

खुद  उनको तुम सीख न पाए I

खुद को पढ़ना  भूल गए  हो

इसीलिए  फूले फिरते हो I

 

 चीज़ों का बस संचय करना

अलमारी को हर दिन भरना I 

नया जूता जो देता छाला

लगता कितना  पीड़ा वाला I

नंगे पैरों के छालों से

अब तक शायद नहीं मिले…

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Added by pratibha pande on August 30, 2015 at 6:00pm — 9 Comments

फ़ास्ट फॉरवर्ड [लघु कथा ]

"यहाँ आम ,यहाँ अमरुद और वहां पर पपाया के पेड़ लगायेंगे ,ठीक मम्मा ? पेड़ लगाने के लिए उसके दस साल के बेटे का उत्साह फूटा पड़ रहा था I

एक महीने पहले ही वो लोग अपने इस नए बने घर में आये थे Iबगीचे वाले घर का उसका बचपन का सपना अब आकार  ले रहा थाI क्यारियाँ तैयार थीं ,बस पौधे  रोपने थे I

"मम्मा ,अपना बगीचा भी बुआ दादी के बगीचे जैसा बन जायेगा ना एक दिन ?खूब सारे बड़े बड़े पेड़ और ...."I

बेटे की चेहरे की चमक ने एकदम उसके दिमाग का फ़ास्ट फॉरवर्ड का बटन दबा दिया ...Iबेटा बहु  ,पोते पोती…

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Added by pratibha pande on August 24, 2015 at 6:30pm — 14 Comments

गुलाबी जिल्द वाली डायरी [कविता ]

वो थी एक डायरी

गुलाबी जिल्द वाली

अन्दर के चिकने पन्ने

खुशनुमा छुअन लिए

मुकम्मल थी एकदम

कुछ खूबसूरत सा

लिखने के लिए I

 

सिल्क की साड़ियों की

तहों के बीच,

अल्मारी में सहेजा था उसे   

उन मेहंदी लगे हाथों ने,  

सेंट की खुशबू

और ज़री की चुभन

 को   करती रही थी वो  जज़्ब,

हर दिन रहता था      

बाहर आने का  इंतज़ार 

अपने चिकने  पन्नों पर

प्यारा सा कुछ

लिखे जाने का इंतज़ार…

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Added by pratibha pande on August 20, 2015 at 5:00pm — 17 Comments

विदाई [लघु कथा ]

"क्या कर रहा है i,बार बार साँस तोड़ कर सुर गड़बड़ा रहा है ..ध्यान कहाँ है तेरा ?"

"जी ,वो रात से घरवाली की हालत बहुत खराब है ,..यहाँ से फारिग हो जाऊं ,और पैसे मिल जाएँ तो अस्पताल ले जाऊं "

"मिल जाएंगे पैसे , करोड़ों की इस शादी का इंतजाम लिया है मैंने ,तू अच्छी शहनाई बजाता है खासकर बिदाई की ,इसलिए तुझे पूरे दो हज़ार दे रहा हूँ एक घंटे के  ,बस 10-15 मिनट में  हो जाएगी बिदाई,  चले जाना "I

उसने शहनाई पर होंठ रखे ही थे कि कंधे पर हाथ महसूस किया ,छोटा भाई था .. बदहवास, चेहरा…

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Added by pratibha pande on August 18, 2015 at 10:30am — 22 Comments

तरक्की [ लघु कथा ]

"'अरे छोरा छोरी आ जाओ  देखो कित्ती सारी चीज़ें मिली हैं आज..."कम्मो भिखारन अपनी जर्जर झुग्गी में कदम रखते हुए चिल्लाई

तीनों बच्चों ने उसे घेर लिया.

"सारा दिन बगल में टीवी देखना है बस्स ..माँ भीख मांगती फिरे ...., वो आज झंडे वाला दिन है ना , देखो क्या क्या मिला है ....लड्डू ,पूड़ी नमकीन ....."कम्मो झोले में से खाने के सामान की छोटी छोटी पौलीथीन की थैलियाँ निकालने  लगी .

कचरे से मिले एंड्राइड फोन के कवर पर हाथ फिराता, बारह साल का पप्पू बोला "अम्मा, तू धीरे धीरे ,एक एक करके…

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Added by pratibha pande on August 12, 2015 at 11:30am — 16 Comments

ट्रॉफी [लघु कथा]

"बधाई कर्नल कपूर i बेटे ने नाम रौशन कर दिया " कमांडेंट साहब ने गर्म जोशी से कर्नल से हाथ मिलाते  हुए कहा

 

"थैंक्यू सर "

 

आकाश देख रहा था अपने पिता को जो गर्व से फूले फिर रहे थे अपने ऑफिसर्स दोस्तों के बीच और सबकी बधाइयाँ ले रहे थे

 

उसके  काव्य संकलन को राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिला था ,हफ्ते भर से टीवी ,अखबारों में उसी के चर्चे थे

 

वो सोचने लगा .. ,' उसके जैसा  नाकारा बेटा जो आर्मी में नहीं गया ,  जिसने हिंदी साहित्य विषय चुना  और…

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Added by pratibha pande on August 9, 2015 at 1:30pm — 10 Comments

रंगीन छाता (लघुकथा)

"बेटा आज  तेरा जन्म दिन है ..मंदिर में पूजा करनी है , बाहर बूंदाबांदी है ..गाड़ी में मंदिर ले चलेगा ?" उसने कमरे के बाहर  से ही पूछा

"माँ i  जनम दिन भागा नहीं जा रहा है कहीं .. सोने दो , आज सन्डे है ...और आप भी ये खाली पेट  पूजा का नाटक छोड़ दो "

पीछे से बहू के भुनभुनाने की आवाज़ भी उसने साफ़ सुन ली थी

वो चुपचाप बाहर आ गई ,गाल में ढुलक आये आंसूओं को  उसने जल्दी से पोंछा और छाता ढूँढने  लगी

"चलो दादी मै चलता हूँ ,छाता भी है मेरे पास " अपना रंग बिरंगा बच्चों वाला छाता…

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Added by pratibha pande on August 5, 2015 at 12:30pm — 15 Comments

भूत [ कविता ]

क्यों तू बात नहीं करता

उस  नीम के पेड़ की?

जिसके भूत की बातों से,

बचपन में मुझे डराता था

और फिर मजे लेकर

मेरी हंसी उडाता  थाI

 

उस कुँए की भी तू

अब बात नहीं करता ,

जिसमे पत्थर फेंक

हम दोनों चिल्लाते थे ,

फिर कुँए के भूत भी

पलटकर आवाज़ लगाते थेI

 

उन इस्माइल चाचा का भी

जिक्र    तू टालता है

जिनके बाग़ से कच्चे 

अमरुद खाते थे और  

वो कितना चिल्लाते थे, 

पर रात को पके…

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Added by pratibha pande on August 2, 2015 at 11:08pm — 12 Comments

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