कब हुयी थी बात जनता से
कब आए थे तुम हमारे गाँव
कब फांकी थी तुमने गलियारे की धूल
कब तुम्हारी खादी पर जमी थी गर्द की परतें
कब दिया था आख़री भाषण यहाँ पर डूब कर पसीने में
कब किया ब्यालू यहाँ के एक हरिजन संग
और पानी था पिया अकुआगार्ड का जो साथ थे लाये
गाँव को तो याद है वह दिन, भूल जाते हो मगर तुम
देश की संसद बड़ी है, डूब जाते हो वही तुम
देश का दुर्भाग्य है वह नहीं मिल पाता कभी भी
चाह कर तुमसे बड़े बंधन है अजब…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 23, 2015 at 9:30am — 4 Comments
ईश्वर अलक्ष्य है क्या ?
शायद –
तब तुमने माँ को नहीं जाना
न समझा न पहचाना
सचमुच
अभागा है तू
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 15, 2015 at 9:30am — 22 Comments
जलते तो है सभी
पर जलने का भी होता है
एक ढंग, एक कायदा,
एक सलीका
जब मै किसी दिए को
किसी निर्जन में
जलते देखता हूँ निर्वात
तब समझ पात़ा हूँ
कि क्या होता है
तिल–तिल कर जलना,
टिम-टिम करना
घुट-घुट मरना
और तब मुझे याद आती है
मुझे मेरी माँ
जीवनदायिनी माँ
सब को संवारती
खुद को मिटाती माँ !
(अप्रकाशित व् मौलिक )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2015 at 8:30pm — 15 Comments
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