चिन्तन-प्रश्न
आस्था की अनवस्थ रग को सहलाते
सचाई के अब भयावने-हुए मुख पर
उलझनों के ताल के उस पार उतर कर
अचानक यह कैसा उठा प्रश्नों का चक्रवात
चिंता की हवाओं का मंडराता विस्तार
एकाएक
यह क्या हुआ ?
कैसा खतरनाक है यह
सतही ज़िन्दगी का सतही स्तर
बाहरी चीख-चिल्लाहट
सुनाई नहीं देता है आत्मा का स्वर
ऐसे में असहज है कितना
द्वंद्व-स्थिति में संकल्प-शक्ति से
किसी भी…
ContinueAdded by vijay nikore on October 25, 2019 at 1:22pm — 4 Comments
स्वप्न-सृष्टि
बुझते दिन का सहारा बनी
गहन गंभीर अभागी शाम
मन में अब अपने ही पुराने घाव की
मौन वेदना की गुथियाँ समेटती
बूँद-बूँद गलती
पहले स्वयं सरकती-सी रात की ओर
अंधेरा होते ही फिर घसीट लेती है रात
बेरहमी से अपनी काली कोठरी में …
ContinueAdded by vijay nikore on October 15, 2019 at 4:30am — 2 Comments
अनपेक्षित तज्रिबों को लीलती हुई
मन में सहसा उठते घिरते
उलझी रस्सी-से खयालों को ठेलती
गलियाँ पार करती चली आती थी तुम
तब साथ तुम्हारा था
साहस हमारा
तुम्हारी मनोहर महक
थी दमकती हवाओं का उत्साह
और तुम्हारे चेहरे की चमक
थी हमारी शाम की अजब रोशनी
और मैं ...
तुम्हारी बातें सुनते नहीं थकता था
हँसी के पट्टे पर कूदते-खेलते
बीच हमारे कोई सरहदें
सीमाएँ न थीं
समय के पल्लू में…
ContinueAdded by vijay nikore on October 14, 2019 at 9:23am — 8 Comments
रात-अँधेरे सारी रात
टटोलते कोई एक शब्द
स्वयं में स्माविष्ट कर ले
जो तुम्हारे आने का उल्लास
चले जाने का विषाद
कभी बूँद-बूँद में लुप्त होती
खिलखिलाती रंग-बिरंगी हँसी
और प्यारी हिचकियाँ तुम्हारी
आँसू ढुलकाती, मेरी ओर ताकती
दीप-माला-सी तुम्हारी आँखें
कि मोहनिद्रा में जैसे
मेरे ओठों पर तुम
अपने शब्दों को खोज रही हो
यह प्रासंगकि नहीं है क्या
कि मैं रात-अँधेरे सारी रात
टटोल रहा…
ContinueAdded by vijay nikore on October 1, 2019 at 3:30pm — 8 Comments
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