आह ! वह सुख ----
पावसी मेह में भीगा हुआ चंद्रमुख I
यौवन की दीप्ति से राशि-राशि सजा
जैसे प्रसन्न उत्फुल्ल नवल नीरजा I
मुग्ध लुब्ध दृष्टि ----
सामने सदेह सौंदर्य एक सृष्टि I
अंग-प्रत्यंग प्रतिमान में ढले
ऐसा रूप जो ऋतुराज को छले I
नयन मग्न नेत्र------
हुआ क्रियमाण कंदर्प-कुरुक्षेत्र I
उद्विग्न प्राण इंद्रजाल में फंसे
पंच कुसुम बाण पोर-पोर में धंसे I
वपु धवल कान्त…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 22, 2013 at 1:06pm — 32 Comments
टूटी चूड़ियाँ
बह गया सिन्दूर
साथ ही टूटा
अनवरत
यंत्रणा का सिलसिला
बह गया फूटकर
रिश्तों का एक घाव
पिलपिला
अब चाँद के संग नहीं आएगा
लाल आँखें लिए
भय का महिषासुर
कभी कभी अच्छा होता है
असर
जहरीली शराब का ..
... नीरज कुमार ‘नीर’
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on November 14, 2013 at 8:30pm — 32 Comments
देश काल निमित्त की सीमाओं में जकड़े तुम
और तुम्हारे भीतर एक चिरमुक्त 'तुम'
-जिसे पहचानते हो तुम !
उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा
एक अभिन्न को-
खामोश मन मंथन की गहराइयों में
चिंतन की सर्वोच्च ऊचाइंयों में
पराचेतन की दिव्यता में.....
पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'
क्या पहचान भी पाओगे
अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-
एक सदेह व्यक्त प्रारूप में......?
(मौलिक और…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 11, 2013 at 2:30pm — 39 Comments
नव युवा हे ! चिर युवा तुम
उठो ! नव युग का निर्माण करो ।
जड़ अचेतन हो चुका जग,
तुम नव चेतन विस्तार करो ।
पथ भ्रष्ट लक्ष्य विहीन होकर
न स्व यौवन संहार करो ।
उठो ! नव युग का निर्माण करो ...............
दीन हीन संस्कार क्षीण अब
तुम संस्कारित युग संचार करो ।
अभिशप्त हो चला है भारत !!
उठो ! नव भारत निर्माण करो ।
नव युवा हे ! चिर युवा ..............................
गर्जन तर्जन ढोंगियों का
कर रहा मानव मन…
ContinueAdded by annapurna bajpai on November 8, 2013 at 7:00pm — 31 Comments
उसकी बातों पे मुझे आज यकीं कुछ कम है
ये अलग है कि वो चर्चे में नहीं कुछ कम है
जबसे दो चार नए पंख लगे हैं उगने
तबसे कहता है कि ये सारी ज़मीं कुछ कम है
मैं ये कहता हूँ कि तुम गौर से देखो तो सही
जो जियादा है जहां वो ही वहीँ कुछ कम है
मुल्क तो दूर की बात अपने ही घर में देखो
'कहीं कुछ चीज जियादा है कहीं कुछ कम है'
देख कर जलवा ए रुख आज वही दंग हुए
जो थे कहते तेरा महबूब हसीं कुछ कम है
कुछ तो…
ContinueAdded by Rana Pratap Singh on November 6, 2013 at 11:26pm — 41 Comments
सुनो ऋतुराज- 15
सुनो ऋतुराज!!
वह एक अन्धी दौड थी
हांफती हुई
हदें फलांगती हुई
परिभाषाओं के सहश्र बाड़ो को
तोडती हुई
फिर भी वह भ्रम नही टूटा
जिसे तोडने के लिये संकल्पित थे हम
ऋतुओं का मौन यूँ ही बना रहा
सावन बरस् बरस कर सूख गया
हम अन्धड़ के वेग मे भी तने रहे
और आसक्ति का वृक्ष सूख गया
सुनो ऋतुराज
लमहों का बही खाता
जब भी खोलोगे
दग्ध ह्रदय पर लिखा
शुभलाभ अवश्य दिखेगा …
Added by Gul Sarika Thakur on November 5, 2013 at 11:30am — 11 Comments
दोस्तो,
अंजुमन प्रकाशन द्वारा 27 अक्टूबर 2013 को लखनऊ के पुस्तक लोकार्पण समारोह में की गयी घोषणा के अनुसार अंजुमन ग़ज़ल नवलेखन पुरस्कार-2014 के नियम एवं शर्त उपलब्ध हैं | युवा शाइरों से निवेदन है कि इस पुरस्कार योजना में शामिल हो कर इसे सफल बनाएँ व इसका लाभ उठायें |…
Added by वीनस केसरी on November 3, 2013 at 7:30pm — 27 Comments
बसंता लगभग एक साल बाद अपने गाँव लौट रहा था । बसंता इतना खुश था कि जो भी वेंडर ट्रेन मे आता वो कुछ न कुछ खरीद लेता, माला, गुड़िया, चूड़ी, बिंदी, सोनपापड़ी और भी बहुत कुछ । पैसे देने के लिए हर बार वह नोटों से भरा पर्स खोल लेता । अगल बगल के यात्रियों ने उसे डांटा भी, मगर भोला भला बसंता हँस कर बात टाल जाता ।
आख़िर वही हुआ जिसका डर था, चलती ट्रेन में किसी ने उसका रुपयों से भरा पर्स निकाल लिया । बसंता ज़ोर ज़ोर से रोने लगा, तब…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 1, 2013 at 9:00pm — 34 Comments
माँ अभी तक काम से नहीं लौटी थी ।आठ साल कि बिरजू , दरवाजे पर बैठी, सामने आकाश में छूटती रंग- बिरंगी आतिशबाजी को मुग्ध भाव से देख रही थी । जिधर नज़र जाती दूर तक दीपों , मोमबत्तियों और बिजली की झालरों की कतारें दिखाई पड़ती थीं । अचानक बिरजू के दिमाग में एक विचार कौंधा। वह उठीं । अपने जमा किये पांच रुपये निकाले और दूकान से कुछ दीये खरीद लायी । झोपड़ी के कोने में बने चूल्हे के पास में रखी बोतल से सरसों का तेल निकाल कर उसने सारे दीयों में भर दिया । खाली बोतल वहीँ छोड़ कर उसने दियासलाई उठाई । तेल भरे…
ContinueAdded by ARVIND BHATNAGAR on November 1, 2013 at 6:00am — 25 Comments
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