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December 2022 Blog Posts (30)

व्यवस्था के नाम पर

कोई रोए, दुःख में हो बेहाल

असहाय, असुरक्षित, अभावग्रस्त

टोटा संगी-साथी, हो कती कंगाल

अत्याचार, अव्यवस्था से त्रस्त

किसी को क्या फर्क पड़ता है ।



यहां-वहां घूमे, दुःख के आंसू पीए

गिड़गिड़ाए, झुके, करे…

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Added by आचार्य शीलक राम on December 8, 2022 at 8:00pm — 1 Comment

ग़ज़ल - मैं अँधेरी रात हूंँ और शम्स के अनवर-से आप

2122 2122 2122 212

मैं अँधेरी रात हूंँ और शम्स के अनवर-से आप

शाम-सी मुझ में उदासी, सुब्ह के मंज़र-से आप

जाने कैसे मिलना होगा अपना इक मे'यार पर

मैं ज़मीं की ख़ाक-सी हूंँ चर्ख़ के मिम्बर-से आप

जो भी आया चल दिया वो मुझ से हो कर आप तक

मैं अधूरी रहगुज़र हूँ और मुकम्मल घर-से आप

क्यों पसंद आये किसी को भी कभी होना मेरा

मैं कि अनचाही सी बेड़ी क़ीमती ज़ेवर-से आप

आपके बिन इस जहांँ में कुछ…

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Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on December 8, 2022 at 6:00pm — 13 Comments

गीत -६ ( लक्ष्मण धामी "मुसाफिर")

रूठ रही नित गौरय्या  भी, देख प्रदूषण गाँव में।

दम घुटता है कह उपवन की, छितरी-छितरी छाँव में।।

*

बीते युग की बात हुए हैं

घास-फूँस औ' माटी के घर।

सूने - सूने, फीके - फीके

खेतों खलिहानों के मञ्जर।।

*

अन्तर जैसे पाट दिया है, आज नगर औ' गाँव में।

दम घुटता है अब उपवन की, छितरी-छितरी छाँव में।।

*

शेष हुए हैं देशी व्यञ्जन,

और  विदेशी  रीत  हुए।

तीजों - त्यौहारों से गायब,

परम्परा  के  गीत हुए।।

*

लगता  जैसे  आन  बसे  हों, किसी  विदेशी …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2022 at 6:45am — 6 Comments

ग़ज़ल - अभी बस पर ही टूटे हैं अभी अंबर नहीं टूटा

1222 1222 1222 1222

अभी बस पर ही टूटे हैं अभी अंबर नहीं टूटा

परिंदा टूटा है बाहर अभी अंदर नहीं टूटा /1

सितारा यूंँ तो टूटा है मेरी तक़दीर का लेकिन

ख़ुदा का शुक्र है तदबीर का अख़्तर* नहीं टूटा /

हमारे ख़ैर ख़्वाहों ने बहुत चाहा मगर अब तक

हमारे दिल में है उम्मीद का जो घर नहीं टूटा /3

सियासत के सताने पर भी बोला जो हमेशा सच

वो जाने कैसी मिट्टी का है ज़र्रा भर नहीं टूटा /4

कई मख़्लूक़* की है ज़िंदगी…

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Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on December 6, 2022 at 10:13pm — 3 Comments

नर हूँ ना मैं नारी हूँ

नर हूँ ना मैं नारी हूँ, लिंग भेद पर भारी हूँ

पर समाज का हिस्सा हूँ मैं, और जीने का अधिकारी हूँ

 

जो है जैसा भी है रुप मेरा, मैंने ना कोई भेष धरा

अपने सांचें मे कसकर हीं, ईश्वर ने मेरा रुप गढ़ा 

माँ के पेट से जन्म लिया, जब पिता ने मुझको गोद लिया

मेरी शीतल काया पर ही, शीतल मेरा नाम दिया

 

जैसे-जैसे मैं…

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Added by AMAN SINHA on December 5, 2022 at 1:26pm — 1 Comment

तिनका तिनका टूटा मन(गजल) - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२/२२/२२/२



सोचा था हो बच्चा मन

लेकिन पाया  बूढ़ा मन।१।

*

नीड़  सरीखा  आँधी  में

तिनका तिनका टूटा मन।२।

*

किस दामन को भाता है

सारी  रात  बरसता  मन।३।

*

तन की मंजिल पास हुई

मीलों  लम्बा  रस्ता  मन।४।

*

शूल चुभा  सब  कहते हैं

मत रख पत्थर जैसा मन।५।

*

पीर  अगर  नाचे आँगन में

तब किसका घर होगा मन।६।

*

कहकर कितना रोयें अब

दुख में भी मुस्काता मन।७।

*…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 3, 2022 at 8:00am — 9 Comments

ग़ज़ल - हैं ख़ाक फिर भी उठाकर जो सर खड़े हैं पहाड़

1212 1122 1212 22/112

हैं ख़ाक फिर भी उठाकर जो सर खड़े हैं पहाड़

तो हौसला रखो क्या हमसे भी बड़े हैं पहाड़ /1

है इनके दिल में नदी-सी बड़ी नमी लेकिन

मुग़ालता* है कि वालिद-से ही कड़े हैं पहाड़़/2 

पहाड़ कह के कोई तंज़ गर करे इन पर

तो आबशार बने अश्क से झड़े हैं पहाड़ /3

पहाड़ जैसी मुसीबत उठा के हम यूंँ चले

कि हम को देखते ही शर्म से गड़े हैं पहाड़ /4

हम अपने पैर गँवा कर भी चढ़ गए इन पर

हमारे जैसे…

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Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on December 2, 2022 at 8:13pm — 6 Comments

मौन

              मौन

                          आचार्य शीलक राम

सरल-सहज है तुम्हारी सूरत

देवलोक की जैसे कोई मूरत

मूरत होकर भी अमूर्त लगती…

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Added by आचार्य शीलक राम on December 1, 2022 at 9:31pm — 1 Comment

स्वप्न अधूरे

स्वप्न अधूरे, भूखा पेट

होने को है, मटियामेट

कड़ी मेहनत, कड़े प्रयास

फिर भी बची न कोई आस।1

अनगिनत ग्रंथ, आंखें फोड़ी

मम जीवन, सम फूटी कौड़ी

सब कुछ किया, व्यर्थ जा रहा

कौन दुःख, मैंने न सहा । 2

देर तक पढ़ना, ऊंचे अंक

बेरोजगारी के, फंसा हूं पंक

कर्म का नियम, बना है निष्फल

हर पैड़ी पर, हुआ हूं असफल ।3

ऊंची-ऊंची, उपाधि अर्जित

अभिनव किया, बहुत कुछ सृजित

फिर भी यहां, नकारा बना हूं

अभाव, दुःखों से, कती सना हूं । 4

घर बैठा हूं,…

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Added by आचार्य शीलक राम on December 1, 2022 at 9:30pm — No Comments

गजल -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२२/ १२२२/१२२२

*

कठिन जैसे नगर में धूप के दर्शन

हमें  वैसे  तुम्हारे  रूप  के  दर्शन।१।

*

कभी वो नीर का साधन रहा होगा

मगर होते नहीं अब कूप के दर्शन।२।

*

सुना है नृत्य  करते  हैं तेरे आँगन

बहुत दुर्लभ हमें तो भूप के दर्शन।३।

*

कभी थोथा उड़ा कर सार गहते थे

नये युग  में  गुमें  हैं  सूप  के दर्शन।४।

*

जलन दूजे  से  होती  हो  जहाँ बोलो

किसी मुख पर हो कैसे ऊप के दर्शन।५।

*

यहाँ रूठी हुई छत नींव बागी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 1, 2022 at 12:30pm — 6 Comments

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