फिर आ गया
नववर्ष लेकर
नयी उमंग ।
नयी सौगात
उम्मीद की किरण
नव वर्ष में ।
जन जीवन
चमकें उल्लास में
नव वर्ष में ।
यादों का रेला
खामोश समंदर
बहा जो पाता ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 2, 2018 at 2:44pm — 6 Comments
सूखी सी शाख
बैठा पंछी अकेला
पतझड़ में ।
नयी नवेली
लाजवंती वधू सी
सिमटी धूप ।
सूरज जब
अलसाया, चल पड़ा
क्षितिज पार ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on December 21, 2017 at 2:34pm — 9 Comments
ठिठुरी अम्मा
धूप तो लाजवंती
दुपहरी में ।
कच्ची सी उम्र
नौकरी खँगालता
खाली है झोली
मान न मान
जिंदगी के दो रंग
जीना मरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on December 14, 2017 at 4:00pm — 8 Comments
Added by Neelam Upadhyaya on December 12, 2017 at 3:48pm — 2 Comments
एक कार आकर रज़ाई बनाने वाले की दुकान के आगे खड़ी हुयी । कार के पिछले दरवाजे से साहबनुमा व्यक्ति बाहर निकला । दुकान वाले की बांछें खिल गईं । भला कौन इस तरह उसकी दुकान पर इतनी बड़ी गाड़ी लेकर आता है ।
दुकानदार से उन्मुख होते हुए साहब ने छोटे साइज़ के रज़ाई, गद्दा, तकिया और चद्दर दिखने को कहा । दुकानदार ने सोचा साहब को अपने छोटे बच्चे के लिए ये सब चाहिए, सो बड़े उत्साह से चीजें दिखने लगा । पर साहब ने बताया कि उन्हें ये सब समान अपने "डौगी" के लिए लेना है ।…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on December 7, 2017 at 10:30am — 8 Comments
काले कोलतार की चमक लिए पक्की सड़क । वहीं बगल में थोड़ी निचाई पर पक्की सड़क के साथ-साथ ही चलती एक पगडंडी ।
सड़क पर लोगों की खूब आमोदरफ्त रहती, गाड़ियों का आवागमन रहता । अपना मान बढ़ता देख सड़क इतराती रहती । एक दिन उसने पगडंडी से कहा – "मेरे साथ चल कर क्या तू मेरी बराबरी कर लेगी । कहाँ मैं चमकती हुयी चिकनी सड़क और कहाँ तू कंकड़-पत्थर से अटी हुयी बदसूरत सी पगडंडी । महंगी से महंगी और बड़ी से बड़ी गाडियाँ मेरे ऊपर से आराम से गुजर जाती हैं । और तू...हुंह... ।" क्यों अपना समय बेकार करती है । यहीं रुक…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on March 27, 2017 at 2:00pm — 3 Comments
"साहेब, कोई पुराना चद्दर हो तो दे दीजिये । बहुत ठंढा गिरने लगा है । कोई पुराना चद्दर दे दीजिये ।"
यूं तो वर्किंग डे पर रात के किसी भी आयोजनों में जाने का प्रोग्राम कम ही बनता है । लेकिन फिर भी कभी-कभी कुछ ऐसे मौके भी आ ही जाते हैं जब इस तरह के किसी आयोजन में जाना पड़ जाता है । ऐसे ही एक आयोजन को अटेण्ड कर वापस आते-आते रात के साढ़े ग्यारह बज गए । गोल्फ कोर्स मेट्रो स्टेशन से घर तक जाने के लिए आटो…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on March 14, 2017 at 4:23pm — 4 Comments
पहाड़ पर
चढ़ना भी पहाड़
सोचा ही नहीं
स्नेह आशीष
से भरा रहा सदा
माँ का आंचल
xxxxx
महकी हवा
वासंती हैं नजारे
फागुन आया ।
मादक टेसू
रंग गई चूनर
फागुन आया ।…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on February 22, 2017 at 4:48pm — 2 Comments
सहमी सर्दी
कारागृह में अब
फागुन आया
सड़क संग
चलती ही रहती
पगडंडी भी
टंगे रहते
सोने के झूमर से
अमलतास
…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on February 16, 2017 at 4:00pm — 4 Comments
सुबह-सुबह कॉलेज जाने की तैयारी कर ही रही थी कि ऊपर वाली चाची की सीढ़ियों से उतरने की धमक के साथ ही उनकी आवाज सुनाई दी – "ए नीलम, सुनलू ह· कि ना, कमली म·र गइल ।" मुझे थोड़ा गुस्सा भी आया पर संस्कारगत आदत के मारे कुछ जतला नहीं पायी । इतना तो समझ आ ही गया कि अब आज का पहला पीरियड अटेण्ड नहीं कर पाऊँगी । अब चाची आ ही गयी हैं तो थोड़ा बैठना ही ठीक होगा और मैंने उन्हें बैठा कर झट पानी का ग्लास पकड़ाया ।…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on February 15, 2017 at 3:30pm — 10 Comments
मन की बात
करते, कभी जाना
मन की बात
समझौते हैं
समझ का फेर, जो
समझ सको
रिश्ते नाते तो
ज्यों पतंग की डोर
उलझे जाते
मौलिक एवं अप्रकाशित.
Added by Neelam Upadhyaya on February 6, 2017 at 5:02pm — 3 Comments
सिमटी रही
दो रोटियों के बीच
पूरी जिंदगी
ढूँढते रहे
जिंदगी भर सार
पर निस्सार
किसका बस
आज है कल नहीं
जिंदगी का क्या
आदि से अंत
बने अनंत, दूर
क्षितिज पर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 31, 2017 at 4:00pm — 6 Comments
व्यस्त है हवा
रुक जाए चिंगारी
दावानल से
बीमार पिता
बेटों का झगड़ना
इतना खर्च!
महानगर
भूल गये अपने
पुराने दिन
भूख ग़रीबी
क्या जाने, महलों में
पैदा हुआ जो.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 19, 2017 at 4:57pm — 8 Comments
शामिल हुआ
मौसम की दौड़ में
नव वर्ष भी।
चंचल नदी
उछली कहीं गिरी
बहती चली।
जीवन सांझ
यादों में डूबा मन
खुला झरोखा।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 13, 2017 at 1:00pm — 11 Comments
जीवन का क्या
कब झड़े ज्यूँ सूखे
पेड़ के पत्ते
माँ का दुलार
कितना भी हो, लगे
ओस की बूँद
मन बावरा
कभी जो मान जाता
मन की बात
नदी डालती
भले ही मीठा जल
सागर खारा
.
(मौलिक-अप्रकाशित)
Added by Neelam Upadhyaya on December 7, 2013 at 6:00pm — 6 Comments
Added by Neelam Upadhyaya on September 26, 2012 at 10:30am — 2 Comments
Added by Neelam Upadhyaya on July 6, 2012 at 10:00am — 6 Comments
Added by Neelam Upadhyaya on June 29, 2012 at 10:00am — 1 Comment
वो एक बड़ा अफसर है. अफसर है तो जाहिर सी बात है शहर में रहता है. पिता एक साधारण से किसान है. खेती करते हैं, सो गाँव में रहते है. अफसर बेटा अपने परिवार में बहुत व्यस्त है इसलिए गाँव जाकर पिता का हाल-समाचार लेने का समय नहीं है. बेटे से मिले बहुत दिन हो गए तो पिता ने विचार किया शहर जाकर खुद ही उससे मिल आया जाये. शहर में बेटे के रहन सहन को देख कर पिता बहुत खुश हुवे. अगले दिन गाँव वापस आने का विचार था लेकिन पोते-पोती की जिद से और रुकना पड़ा. एक - दो दिन तो ठीक ठाक बीत गए. किन्तु फिर बेटे के अफसरी…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on June 20, 2012 at 10:00am — 11 Comments
जतिन जी ने बहुत ही लाड़-प्यार से अपने दो बेटों और एक बेटी को पाला. तीनो को बराबर उच्च शिक्षा दिलवाई, दोनों बेटे इंजिनियर और बेटी डॉक्टर बन गयी. उचित और उपयुक्त समय पर तीनो बच्चों का विवाह भी कर दिया. लड़की अपने पति के साथ विदेश चली गयी. लड़के भी बड़े बड़े शहरों में बड़ी कंपनियों में नौकरियां पाकर अपने-अपने परिवार को साथ लेकर वहीँ रहने लग गए. जतिन जी स्कूल की नौकरी पूरी करके सेवा निवृत्त हो गए और अपनी पत्नी के साथ अपने गाँव के घर में अकेले रह गए.
जब बच्चे छोटे थे तो उनके साथ बिताने…
Added by Neelam Upadhyaya on June 15, 2012 at 10:00am — 9 Comments
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