बह्र : २२११ २२११ २२११ २२
क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे
नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे
डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा
भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे
सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले
जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे
ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना
हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे
सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है
मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 9, 2016 at 6:30pm — 10 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं
मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं
मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ
ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं
आइने से मिला तो ये पाया
मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं
फेसबुक पर मुझे लगा ऐसा
आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं
अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’
क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 1, 2016 at 10:00am — 19 Comments
बह्र : २१२२ २१२२ २१२
रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ
पर न रंगों की दुकाँ हैं तितलियाँ
गुनगुनाता है चमन इनके किये
फूल पत्तों की जुबाँ हैं तितलियाँ
पंख देखे, रंग देखे, और? बस!
आपने देखी कहाँ हैं तितलियाँ
दिल के बच्चे को ज़रा समझाइए
आने वाले कल की माँ हैं तितलियाँ
बंद कर आँखों को क्षण भर देखिए
रोशनी का कारवाँ हैं तितलियाँ
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 16, 2016 at 1:59am — 12 Comments
बह्र : 2122 2122 2122 212
कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना
चन्द पल में सैकड़ों युग दूर जाती कल्पना
स्वप्न है फिर सत्य है फिर है निरर्थकता यहाँ
और ये जीवन उसी में अर्थ कोई ढूँढ़ना
हुस्न क्या है एक बारिश जो कभी होती नहीं
इश्क़ उस बरसात में तन और मन का भीगना
ग़म ज़ुदाई का है क्या सुलगी हुई सिगरेट है
याद के कड़वे धुँएँ में दिल स्वयं का फूँकना
प्रेम और कर्तव्य की दो खूँटियों के बीच…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 10, 2016 at 10:30pm — 8 Comments
बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो
रात रो देते हैं बच्चे और जी जाता है वो
आपको जो नर्क लगता, स्वर्ग के मालिक, सुनें
बस वहीं पाने को थोड़ी सी खुशी जाता है वो
जिन की रग रग में बहे उसके पसीने का नमक
आज कल देने उन्हीं को खून भी जाता है वो
वो मरे दिनभर दिहाड़ी के लिए, तू ऐश कर
पास रख अपना ख़ुदा ऐ मौलवी, जाता है वो
खौलते कीड़ों की चीखें कर रहीं पागल उसे
बालने…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 9, 2016 at 12:07am — No Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२
सब खाते हैं एक बोता है
ऐसा फल अच्छा होता है
पूँजीपतियों के पापों को
कोई तो छुपकर धोता है
एक दुनिया अलग दिखी उसको
जिसने भी मारा गोता है
हर खेत सुनहरे सपनों का
झूठे वादों ने जोता है
महसूस करे जो जितना, वो,
उतना ही ज़्यादा रोता है
मेरे दिल का बच्चा जाकर
यादों की छत पर सोता है
भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’
सच्चा तो केवल…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2016 at 11:37am — 8 Comments
बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२
आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै
फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै
दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै
स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै
आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 9:00pm — 16 Comments
बह्र : 22 22 22 22 22 22
तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम
देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम
दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है
शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम
सिक्का यदि इंकार करे अपनी कीमत से
झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम
नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की
फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम
पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को
फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 9, 2016 at 10:10pm — 8 Comments
किसको पूजूँ
किसको छोड़ूँ
सब में मिट्टी है भारत की
पीली सरसों या घास हरी
झरबेर, धतूरा, नागफनी
गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची
है फूलों में, काँटों में भी
सब ईंटें एक इमारत की
भाले, बंदूकें, तलवारें
गर इसमें उगतीं ललकारें
हल बैल उगलती यही जमीं
गाँधी, गौतम भी हुए यहीं
बाकी सब बात शरारत की
इस मिट्टी के ऐसे पुतले
जो इस मिट्टी के नहीं हुए
उनसे मिट्टी वापस ले…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 31, 2016 at 7:30pm — 14 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २
जल्दी में क्या सीखोगे
सब आहिस्ता सीखोगे
एक पहलू ही गर देखा
तुम सिर्फ़ आधा सीखोगे
सबसे हार रहे हो तुम
सबसे ज़्यादा सीखोगे
सबसे ऊँचा, होता है,
सबसे ठंडा, सीखोगे
सूरज के बेटे हो तुम
सब कुछ काला सीखोगे
सीखोगे जो ख़ुद पढ़कर
सबसे अच्छा सीखोगे
पहले प्यार का पहला ख़त
पुर्ज़ा पुर्ज़ा सीखोगे
हाकिम बनते ही…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 18, 2016 at 11:00pm — 12 Comments
तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी
जैसे धरती से मिलने आती है बारिश
जैसे सागर से मिलने आती है नदी
मिलकर मुझमें खो जाओगी
जैसे धरती में खो जाती है बारिश
जैसे सागर में खो जाती है नदी
मैं हमेशा अपनी बाहें फैलाये तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा
जैसे धरती करती है बारिश की
जैसे सागर करता है नदी की
तुमको मेरे पास आने से
कोई ताकत नहीं रोक पाएगी
जैसे अपनी तमाम ताकत और कोशिशों के बावज़ूद
सूरज नहीं रोक पाता…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 14, 2016 at 2:00pm — 6 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
था हरा औ’ भरा साँवला कोयला
हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला
वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन
इसलिए हो गया साँवला, कोयला
चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये
जिन्दगी भर जला साँवला कोयला
खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये
जल के विद्युत बना साँवला कोयला
हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर
और जलता रहा साँवला कोयला
चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है
ऐसे लूटा गया…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 27, 2016 at 10:16am — 16 Comments
बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
इस दिल की लालसा पर एक बार तो अमल हो
बरसात आँसुओं की और प्यार की फ़सल हो
नाले की गंदगी है समुदाय की ज़रूरत
बहती हुई नदी में पर साफ शुद्ध जल हो
देवों के शीश पर चढ़ ये हो गया है पागल
ऐसा करो प्रभो कुछ फिर कीच का कमल हो
गर्मी की दोपहर को पूनम की रात लिखना
गर है यही ग़ज़ल तो मुझसे न अब ग़ज़ल हो
सरलीकरण में फँसकर विकृत हैं सत्य सारे
हारेगा झूठ ख़ुद ही यदि सच न अब सरल…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 7, 2016 at 9:16pm — 2 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
ये दिमागी बुखार टेढ़ा है
यही सच है कि प्यार टेढ़ा है
स्वाद इसका है लाजवाब मियाँ
क्या हुआ गर अचार टेढ़ा है
जिनकी मुट्ठी हो बंद लालच से
उन्हें लगता है जार टेढ़ा है
खार होता है एकदम सीधा
फूल है मेरा यार, टेढ़ा है
यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये
इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:43pm — 15 Comments
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २
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जब धरती पर रावण राजा बनकर आता है
जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है
केवल घोटाले करना ही भ्रष्टाचार नहीं
भ्रष्ट बहुत वो भी है जो नफ़रत फैलाता है
कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में
दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है
भूख अन्न की, तन की, मन की फिर भी बुझ जाती
धन की भूख जिसे लगती सबकुछ खा जाता है
करने वाले की छेनी से पर्वत कट जाता
शोर मचाने वाला…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2016 at 1:38pm — 8 Comments
बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22
वो तो बस पुल पर चलते जो गहराई से घबराते हैं
पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं
जिनसे है उम्मीद समय को वो पूँजी के सम्मोहन में
काम गधों सा करते फिर सुअरों सा खाकर सो जाते हैं
धूप, हवा, जल, मिट्टी इनमें से कुछ भी यदि कम पड़ जाए
नागफनी बढ़ते जंगल में नाज़ुक पौधे मुरझाते हैं
जिनके हाथों की कोमलता पर दुनिया वारी जाती है
नाम वही अपना पत्थर के वक्षस्थल पर खुदवाते…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 19, 2016 at 10:05pm — 4 Comments
बह्र : 1212 1122 1212 22
जहाँ में पाप जो पर्वत समान करते हैं
वो मंदिरों में सदा गुप्तदान करते हैं
लहू व अश्क़, पसीने को धान करते हैं
हमारे वास्ते क्या क्या किसान करते हैं
कभी मिली ही नहीं उन को मुहब्बत सच्ची
जो अपने हुस्न पे ज़्यादा गुमान करते हैं
गरीब अमीर को देखे तो देवता समझे
यही है काम जो पुष्पक विमान करते हैं
जो मंदिरों में दिया काम आ सका किसके?
नमन उन्हें जो सदा रक्तदान करते…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 14, 2016 at 10:10pm — 14 Comments
(१)
जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती
वो नफ़रत करते हैं
बेइंतेहाँ नफ़रत
जिनमें प्रेम करने की बेइंतेहाँ क्षमता होती है
उनके पास नफ़रत करने का समय नहीं होता
जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती
वो अपने पूर्वजों के आखिरी वंशज होते हैं
(२)
तुम्हारी आँखों के कब्जों ने
मेरे मन के दरवाजे को
तुम्हारे प्यार की चौखट से जोड़ दिया है
इस तरह हमने जाति और धर्म की दीवार…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2016 at 3:01pm — 18 Comments
बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२
जब जब तुम्हारे पाँव ने रस्ता बदल दिया
हमने तो दिल के शहर का नक्शा बदल दिया
इसकी रगों में बह रही नफ़रत ही बूँद बूँद
देखो किसी ने धर्म का बच्चा बदल दिया
अंतर गरीब अमीर का बढ़ने लगा है क्यूँ
किसने समाजवाद का ढाँचा बदल दिया
ठंडी लगे है धूप जलाती है चाँदनी
देखो हमारे प्यार ने क्या क्या बदल दिया
छींटे लहू के बस उन्हें इतना बदल सके
साहब ने जा के ओट में कपड़ा बदल…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 31, 2016 at 11:36pm — 20 Comments
१२२ १२२ १२२ १२२
मेरी नाव का बस यही है फ़साना
जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना
सनम को जिताना तो आसान है पर
बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना
न दिल चाहता नाचना तो सुनो जी
था मुश्किल मुझे उँगलियों पर नचाना
बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी
न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना
कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे
सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना
ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी
बनाकर मिटाना…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 28, 2016 at 9:49am — 16 Comments
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