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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog (232)

जनकवि (लघुकथा)

झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”

कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”

झील बोली,…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2016 at 10:04am — 22 Comments

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है

वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है

 

दूर गुणगान से मैं रहता हूँ

एक तो जह्र तिस पे मीठा है

 

मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं

सच बड़ा गर्म और तीखा है

 

देखिए बैल बन गये हैं हम

जाति रस्सी है धर्म खूँटा है

 

सब को उल्लू बना दे जो पल में

ये ज़माना मियाँ उसी का है

 

अब छुपाने से छुप न पायेगा

जख़्म दिल तक गया है, गहरा है

 

आज…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 16, 2016 at 1:00am — 10 Comments

मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे आगे (ग़ज़ल)

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

 

क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे

नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे

 

डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा

भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे

 

सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले

जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे

 

ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना

हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे

 

सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है

मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 9, 2016 at 6:30pm — 10 Comments

मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं

मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

 

मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ

ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं

 

आइने से मिला तो ये पाया

मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं

 

फेसबुक पर मुझे लगा ऐसा

आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं

  

अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’

क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 1, 2016 at 10:00am — 19 Comments

रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ २१२२ २१२

 

रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ

पर न रंगों की दुकाँ हैं तितलियाँ

 

गुनगुनाता है चमन इनके किये

फूल पत्तों की जुबाँ हैं तितलियाँ

 

पंख देखे, रंग देखे, और? बस!

आपने देखी कहाँ हैं तितलियाँ

 

दिल के बच्चे को ज़रा समझाइए

आने वाले कल की माँ हैं तितलियाँ

 

बंद कर आँखों को क्षण भर देखिए

रोशनी का कारवाँ हैं तितलियाँ

 ------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 16, 2016 at 1:59am — 12 Comments

जिन्दगी की अलगनी पर शाइरी को साधना (ग़ज़ल)

बह्र : 2122 2122 2122 212

 

कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना

चन्द पल में सैकड़ों युग दूर जाती कल्पना

 

स्वप्न है फिर सत्य है फिर है निरर्थकता यहाँ

और ये जीवन उसी में अर्थ कोई ढूँढ़ना

 

हुस्न क्या है एक बारिश जो कभी होती नहीं

इश्क़ उस बरसात में तन और मन का भीगना

 

ग़म ज़ुदाई का है क्या सुलगी हुई सिगरेट है

याद के कड़वे धुँएँ में दिल स्वयं का फूँकना

 

प्रेम और कर्तव्य की दो खूँटियों के बीच…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 10, 2016 at 10:30pm — 8 Comments

रात रो देते हैं बच्चे और जी जाता है वो (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

 

धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो

रात रो देते हैं बच्चे और जी जाता है वो

 

आपको जो नर्क लगता, स्वर्ग के मालिक, सुनें

बस वहीं पाने को थोड़ी सी खुशी जाता है वो

 

जिन की रग रग में बहे उसके पसीने का नमक

आज कल देने उन्हीं को खून भी जाता है वो

 

वो मरे दिनभर दिहाड़ी के लिए, तू ऐश कर

पास रख अपना ख़ुदा ऐ मौलवी, जाता है वो

 

खौलते कीड़ों की चीखें कर रहीं पागल उसे

बालने…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 9, 2016 at 12:07am — No Comments

सब खाते हैं एक बोता है (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२

 

सब खाते हैं एक बोता है

ऐसा फल अच्छा होता है

 

पूँजीपतियों के पापों को

कोई तो छुपकर धोता है

 

एक दुनिया अलग दिखी उसको

जिसने भी मारा गोता है

 

हर खेत सुनहरे सपनों का

झूठे वादों ने जोता है

 

महसूस करे जो जितना, वो,

उतना ही ज़्यादा रोता है

 

मेरे दिल का बच्चा जाकर

यादों की छत पर सोता है

 

भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’

सच्चा तो केवल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2016 at 11:37am — 8 Comments

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै (ग़ज़ल)

बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२

 

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै

मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै

 

फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर

आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै

 

दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं

द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै

 

स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को

प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै

 

आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’

फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 9:00pm — 16 Comments

देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम (ग़ज़ल)

बह्र : 22 22 22 22 22 22

 

तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम

देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम

 

दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है

शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम

 

सिक्का यदि इंकार करे अपनी कीमत से

झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम

 

नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की

फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम

 

पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को

फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 9, 2016 at 10:10pm — 8 Comments

सब में मिट्टी है भारत की (नवगीत)

किसको पूजूँ

किसको छोड़ूँ

सब में मिट्टी है भारत की

 

पीली सरसों या घास हरी

झरबेर, धतूरा, नागफनी

गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची

है फूलों में, काँटों में भी

 

सब ईंटें एक इमारत की

 

भाले, बंदूकें, तलवारें

गर इसमें उगतीं ललकारें

हल बैल उगलती यही जमीं

गाँधी, गौतम भी हुए यहीं

 

बाकी सब बात शरारत की

 

इस मिट्टी के ऐसे पुतले

जो इस मिट्टी के नहीं हुए

उनसे मिट्टी वापस ले…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 31, 2016 at 7:30pm — 14 Comments

सब आहिस्ता सीखोगे (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २

जल्दी में क्या सीखोगे

सब आहिस्ता सीखोगे

 

एक पहलू ही गर देखा

तुम सिर्फ़ आधा सीखोगे

 

सबसे हार रहे हो तुम

सबसे ज़्यादा सीखोगे

 

सबसे ऊँचा, होता है,

सबसे ठंडा, सीखोगे

 

सूरज के बेटे हो तुम

सब कुछ काला सीखोगे

 

सीखोगे जो ख़ुद पढ़कर

सबसे अच्छा सीखोगे

 

पहले प्यार का पहला ख़त

पुर्ज़ा पुर्ज़ा सीखोगे

 

हाकिम बनते ही…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 18, 2016 at 11:00pm — 12 Comments

तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी (कविता)

तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी

जैसे धरती से मिलने आती है बारिश

जैसे सागर से मिलने आती है नदी

 

मिलकर मुझमें खो जाओगी

जैसे धरती में खो जाती है बारिश

जैसे सागर में खो जाती है नदी

 

मैं हमेशा अपनी बाहें फैलाये तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा

जैसे धरती करती है बारिश की

जैसे सागर करता है नदी की

 

तुमको मेरे पास आने से

कोई ताकत नहीं रोक पाएगी

जैसे अपनी तमाम ताकत और कोशिशों के बावज़ूद

सूरज नहीं रोक पाता…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 14, 2016 at 2:00pm — 6 Comments

ऐसे लूटा गया साँवला कोयला (ग़ज़ल)

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

 

था हरा औ’ भरा साँवला कोयला

हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला

 

वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन

इसलिए हो गया साँवला, कोयला

 

चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये

जिन्दगी भर जला साँवला कोयला

 

खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये

जल के विद्युत बना साँवला कोयला

 

हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर

और जलता रहा साँवला कोयला

 

चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है

ऐसे लूटा गया…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 27, 2016 at 10:16am — 16 Comments

बरसात आँसुओं की और प्यार की फ़सल हो (ग़ज़ल)

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

 

इस दिल की लालसा पर एक बार तो अमल हो

बरसात आँसुओं की और प्यार की फ़सल हो

 

नाले की गंदगी है समुदाय की ज़रूरत

बहती हुई नदी में पर साफ शुद्ध जल हो

 

देवों के शीश पर चढ़ ये हो गया है पागल

ऐसा करो प्रभो कुछ फिर कीच का कमल हो

 

गर्मी की दोपहर को पूनम की रात लिखना

गर है यही ग़ज़ल तो मुझसे न अब ग़ज़ल हो

 

सरलीकरण में फँसकर विकृत हैं सत्य सारे

हारेगा झूठ ख़ुद ही यदि सच न अब सरल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 7, 2016 at 9:16pm — 2 Comments

ग़ज़ल : इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

ये दिमागी बुखार टेढ़ा है

यही सच है कि प्यार टेढ़ा है

 

स्वाद इसका है लाजवाब मियाँ

क्या हुआ गर अचार टेढ़ा है

 

जिनकी मुट्ठी हो बंद लालच से

उन्हें लगता है जार टेढ़ा है

 

खार होता है एकदम सीधा

फूल है मेरा यार, टेढ़ा है

 

यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये

इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:43pm — 15 Comments

ग़ज़ल : जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

२२ २२ २२ २२ २२ २२ २

----------------

जब धरती पर रावण राजा बनकर आता है

जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

 

केवल घोटाले करना ही भ्रष्टाचार नहीं

भ्रष्ट बहुत वो भी है जो नफ़रत फैलाता है

 

कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में

दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है

 

भूख अन्न की, तन की, मन की फिर भी बुझ जाती

धन की भूख जिसे लगती सबकुछ खा जाता है

 

करने वाले की छेनी से पर्वत कट जाता

शोर मचाने वाला…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2016 at 1:38pm — 8 Comments

ग़ज़ल : पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं

बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22

 

वो तो बस पुल पर चलते जो गहराई से घबराते हैं

पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं

 

जिनसे है उम्मीद समय को वो पूँजी के सम्मोहन में

काम गधों सा करते फिर सुअरों सा खाकर सो जाते हैं

 

धूप, हवा, जल, मिट्टी इनमें से कुछ भी यदि कम पड़ जाए

नागफनी बढ़ते जंगल में नाज़ुक पौधे मुरझाते हैं

 

जिनके हाथों की कोमलता पर दुनिया वारी जाती है

नाम वही अपना पत्थर के वक्षस्थल पर खुदवाते…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 19, 2016 at 10:05pm — 4 Comments

जहाँ में पाप जो पर्वत समान करते हैं (ग़ज़ल)

बह्र : 1212 1122 1212 22

 

जहाँ में पाप जो पर्वत समान करते हैं

वो मंदिरों में सदा गुप्तदान करते हैं

 

लहू व अश्क़, पसीने को धान करते हैं

हमारे वास्ते क्या क्या किसान करते हैं

 

कभी मिली ही नहीं उन को मुहब्बत सच्ची

जो अपने हुस्न पे ज़्यादा गुमान करते हैं

 

गरीब अमीर को देखे तो देवता समझे

यही है काम जो पुष्पक विमान करते हैं

 

जो मंदिरों में दिया काम आ सका किसके?

नमन उन्हें जो सदा रक्तदान करते…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 14, 2016 at 10:10pm — 14 Comments

प्रेम (पाँच छोटी कविताएँ)

(१)

 

जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती

वो नफ़रत करते हैं

बेइंतेहाँ नफ़रत

 

जिनमें प्रेम करने की बेइंतेहाँ क्षमता होती है

उनके पास नफ़रत करने का समय नहीं होता

 

जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती

वो अपने पूर्वजों के आखिरी वंशज होते हैं

 

(२)

 

तुम्हारी आँखों के कब्जों ने

मेरे मन के दरवाजे को

तुम्हारे प्यार की चौखट से जोड़ दिया है

 

इस तरह हमने जाति और धर्म की दीवार…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2016 at 3:01pm — 18 Comments

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