212 212 212
बात जो हो कहा कीजिए
दिल में ही क्यों रखा कीजिए?
चार दिन की है ये जिंदगी
बस ख़ुशी से रहा कीजिए
जो बुराई करे आपकी
आप उसका भला कीजिए।
रूठना बात अच्छी नहीं
है गिला, तो गिला कीजिए
मिल गये जब जरूरत हुई
बे ग़रज भी मिला कीजिए।
टूटता वो अकड़ता है जो
वक्त आए झुका कीजिए।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 3, 2017 at 11:00pm —
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गजल
2122 1212 22/112
पत्ता जब शाख से गिरा होगा
दर्द कुछ तो उसे हुआ होगा
अब्र से आस क्या करे कोई
खुद भी प्यासा तड़प रहा होगा
हाथ में जिसके आज पत्थर हैं
कौन कल उसका रहनुमा होगा?
सिर्फ बातें नहीं अमल भी हो
ऊंचा फिर तेरा मर्तबा होगा।
दिल से राणा निकल गया हर शक
सोच लोगे भला,भला होगा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 21, 2017 at 10:00pm —
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तरही गजल
2122 2122 212
काफ़िया हमको मिला *अम* क्या करें
लाज़िमी कहनी ग़ज़ल हम क्या करें
सब दिवाने हैं दिखावे के यहाँ
और' हुनर के दाम हैं कम क्या करें?
रौशनी ने दी है दस्तक देख लो
पर खड़ा है फिर भी ये तम क्या करें
बुलबुलों ने छोड़े जब से घोंसले
टहनियों की आँख हैं नम क्या करें
पास है जो वो भी तो अपना नहीं
*जाने वाली चीज का गम क्या करें
बैठकर सब साथ गम थे बाँटते
सिलसिला वो अब गया थम क्या…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 16, 2017 at 10:00pm —
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2122 1212 22
उनको हिचकी सता रही होगी
याद मेरी दिला रही होगी
चैन दिल का खो गया होगा
आँसुओं को बहा रही होगी
फ्रेम कस के पकड़ लिया होगा
प्यार तस्वीर पा रही होगी
हौंसला काम कर गया होगा
पास मंजिल अब आ रही होगी
वक्त के साथ सब बदलते हैं
रुत यही तो सिखा रही होगी
भूख ने दूर कर दिए बच्चे
कैसे माँ मन लगा रही होगी ?
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 7, 2017 at 7:00am —
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2122 2122 212
बस झुके हमको तो सबके सर मिले
बुत यहाँ भारी ज़माने पर मिले
काँच के जिनके बनें हैं घर यहाँ
हाथ में उनके ही बस पत्थर मिले।
विष गले में रख सके जग का सकल
है कहाँ मुमकिन कि फिर शंकर मिले।
दिल में उनके है धुआँ गम का बहुत
पर मिले जिससे भी वो हँसकर मिले
फूल को कैसे समझ लें फूल जब
पास उसके ही हमें खंजर मिले
मिल गया अब रहनुमा देखो नया
झोपड़ी को भी नया छप्पर मिले
हैं जहाँ पर दौलतों की…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 21, 2017 at 9:00pm —
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1222 1222 122
बिखरकर फिर इकट्ठा हो रहा है
जवाँ फिर से इरादा हो रहा है।
जिसे अपना समझते थे,न जाने
वही क्यों अब पराया हो रहा है?
समन्दर सी छलकती हैं ये आँखें
कोई तो ज़ख्म गहरा हो रहा है।
किसे जाकर सुनाएँ हाल अपना
हमारा शाह बहरा हो रहा है।
भरोसा टूटना लाज़िम हुआ अब
जहाँ का दौर झूठा हो रहा है।
ज़ुबाँ कैसे किसी की अब उठेगी
ज़ुबाँ पे सख़्त पहरा हो रहा है।
मौलिक/अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 16, 2017 at 10:11pm —
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2122 2122 2122.212
प्यार के अहसास को दिल की चुभन तक ले चलो
नफरतों को भूलकर फिर से मिलन तक ले चलो।
आदमी को आदमी ही अब समझ ले आदमी
आदमीयत को जमाने के चलन तक ले चलो
बन नहीं सकती अगर सरकार खुद के जोर से
साथ लेकर औरों को इसके गठन तक ले चलो
भूख से तड़पे न कोई ठण्ड से काँपे नहीं
रोटी कपड़ा हर किसी के अब बदन तक ले चलो
छोड़ कर जिसको हूँ आया चन्द सिक्कों के लिए
याद आता है मुझे,मेरे वतन तक ले चलो
छोड़ना तन को था मुश्किल…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 10, 2017 at 9:30pm —
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(16 14 मात्रा भार)
.
(1)
हाथ जोड़ कर फिरते दिखते जब-जब सीजन आता है
दर-दर पर मिन्नत होती है हर इक जन तब भाता है
काम साध कुर्सी को पाकर याद नहीं फिर कुछ आता
झुककर जो वादे कर जाते उनको कौन निभाता है?
(2)
मौसम जैसा हाल सजन का समझ नहीं कुछ आता है
इस पल होता है तौला उस पल माशा बन जाता है
प्रीत हमारी लगती झूठी जाने क्या दिल में रखते?
वादे उनके ऐसे लगते ज्यों नेता कर जाता है।
(3)
आँखों को झूठा मत समझो आँखें सच ही कहती हैं…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 22, 2017 at 2:30pm —
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22 22 22 2
भले ही' मैं अंजाना हूँ
सारी बात समझता हूँ
कड़वा चाहे लगता हूँ
सच की रो में बहता हूँ।
सुख दुख के हर पहलू को
चुपके-चुपके सहता हूँ।
बोल रहा उनके आगे
जिनको सुनता आया हूँ।
काम बहुत करना मुझको
लेकिन मैं अलसाया हूँ।
जख्म नहीं हूँ दे सकता
जब मरहम के जैसा हूँ
देख भुलाकर रंजो गम
गुल बनकर फिर महका हूँ।
जिससे धारा फ़ूट पड़े
टूटा वही किनारा हूँ।
आँखों में क्या ढूँढ…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 5, 2017 at 9:00pm —
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गीतिका छ्न्द पर गीत प्रयास(14,12)(तीसरी,दसवीं,सत्रहवीं,छब्बीस वीं लघु)अंत गुरु लघु गुरु
ठंड की ठिठुरन चली मधुमास ज्यों है आ रहा
कोंपलें सब खुल रहीं हर वृक्ष अब लहरा रहा
पीत पहने सब वसन यह प्रीत का मौसम हुआ
अब धरा देखो महकती धूप ने ज्यों ही छुआ
पर्ण अब हैं झूमते सब औ पवन है गा रहा
कोंपलें सब खुल रहीं हर वृक्ष अब लहरा रहा।
पीत वर्णी पुष्प चहुँदिक खेत में हैं खिल रहे
सब भ्रमर गाते हुए हर पुष्पदल से…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 1, 2017 at 11:00am —
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122 122 122 122
बिना बात बातें बनाता रहेगा
शरारत से सब को छकाता रहेगा।
निराशा को आशा बनाता रहेगा
तेरा दिल ये तुझको सिखाता रहेगा।
हमेशा ही मन काला जिसका रहा है
वो नजरें सभी से चुराता रहेगा।
मजा जिसको आता चिढ़ाने में सबको
चढ़ाता रहेगा गिराता रहेगा।
नहीं भूल ये,नूर तुझमें बसा है
तू तारों सा ही टिमटिमाता रहेगा।
फरेबों में जिसकी चली जिंदगानी
वो हरदम किसी को सताता रहेगा।
रहे जुल्म होते जो जनता पे…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 30, 2017 at 10:41am —
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1222 1222 1222 122
चला दुनिया को समझाने जो घर तकरार रखता है
नहीं हैं पूछते अपने वो क्या अधिकार रखता है?
चला है जीतता वो जो,खुदा से प्यार रखता है
भले ही जीत मिलती याद फिर भी हार रखता है
जमीं अपनी नहीं कोई यही लेकिन गुमाँ दिल में
*वो अपनी मुठ्ठियों में बांधकर संसार रखता है!*
लगा क्यों दब गया है वो सभी जुल्मों से अब डरकर?
खमोशी सी है चहरे पे मगर ललकार रखता है।
हमेशा चाहता अच्छा जो भी अपने ही बच्चों का
दिखे है सख्त ऊपर से वो…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 6, 2017 at 4:43pm —
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तरही गजल
बह्र:122 122 122 122
काफ़िया:अर
रदीफ़:देख लेना
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गरीबों के दिल में है डर देख लेना
अमीरों की तिरछी नजर देख लेना।
नहीं तीरगी की हमें फ़िक्र कोई
नए हौंसलों की सहर देख लेना।
जरूरत नहीं है अभी बोलने की
खमोशी जो लाए ग़दर देख लेना।
मुहब्बत को मेरी भुला क्या सकेंगे?
*वो आएँगे थामे जिगर देख लेना।*
मेरा दर्द ही दर्द उनका बना है
मेरे अश्क उन गाल पर देख लेना।
सहारा बनोगे तभी फल वो देंगे
जरा…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 1, 2017 at 10:30am —
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2122 2122 212
बह रहे हो नद-से दम भर देखिये
चलते रहना पर ठहरकर देखिए।
राज दिल के मुँह पे लाकर देखिए
आज अपनों को बताकर देखिए।
जा रहे हो दूर हमसे रूठकर
थोड़ा-सा नजदीक आकर देखिये।
नफरतों से क्या किसी को कुछ मिला?
चाह दिल में भी जगाकर देखिये।
कुछ न हासिल हो सका चलके अलग
*दो कदम तो साथ चलकर देखिए।*
मुश्किलों में भी ख़ुशी को पा लिया
मिटता उनके दिल का हर डर देखिये
मुश्किलें होती हैं सच की राह…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 28, 2016 at 11:45am —
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बह्र:22 22 22 22
चाहत यार बढाने निकले
दिलको आज कमाने निकले।
जिनको समझ रहे थे अपना
आज वही बेगाने निकले।
घर छोड़ा अपनों को छोड़ा
बन कर बस अनजाने निकले।
तनहा राहें अपनी साथी
हमसे दूर जमाने निकले।
लब पर ले मुस्कान बताओ
कैसा दर्द छुपाने निकले।
जिनको समझा सबने पागल
देखो यार सयाने निकले।
अपना आपा ठीक नहीं है
गैरों को समझाने निकले।
दर्द नया यूँ ही लगता है
लेकिन जख्म पुराने…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 15, 2016 at 4:30pm —
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बह्र 2122 2122 2122 212
गर मरे उम्मीद फिर कुछ भी यहां बचता नहीं
छोड़ दें उम्मीद को ये फैसला अच्छा नहीं।
गर्दिशों में जी रही आवाम सारी जब यहाँ
ऐश से तब हुक्मरां का टूटता नाता नहीं।
जिंदगी वो डोर है जिससे बँधा इंसान है
साथ उसका भी मगर होता हमेशा का नहीं।
मर मिटा है आज तू जिसकी हिफाज़त के लिए
बेवफा हमदम वो तेरी मौत पे आया नहीं।
कायदा-ए-जिंदगी भी है जरूरी दोस्तो
कायदे को छोड़ दें तो कुछ भी फिर जीना नहीं।
एक मुफ़लिस गर…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 7, 2016 at 7:09am —
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बह्र :2122 2122 212
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उसने नगमा एक गाया देर तक
ऐसे ही हमको सुनाया देर तक।
सब्र है सबसे बड़ा जर दोस्तो
आलिमों ने यह सुझाया देर तक।
इश्क है वो रास्ता जो पाक है
सोच कर मन में बिठाया देर तक।
भाग उनके ही भले सब मानते
हो बड़ों का जिनपे साया देर तक।
भूख से तड़पा बहुत है यार वो
इसलिए उसने यूँ खाया देर तक।
भूलने की सोच कर आगे बढ़ा
भूल मैं उसको न पाया देर तक।
साथ चलने की कसम खाता रहा
आस में मुझको…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 4, 2016 at 6:30am —
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गीत (रोला छ्न्द)
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सबपर उसका नेह,प्रकृति प्यारी है माता
खिलता हरसिंगार,रात में सुन ले भ्राता।
पँखुड़ी निर्मल श्वेत,मोह सबका मन लेती
सुंदरता है नेक,नयन को यह सुख देती
केसरिया है दंड,रंग जिसका चमकीला
हुआ मुग्ध मन देख,प्रकृति की ऐसी लीला
पुलकित होकर आज ,हृदय इसके के गुण गाता
खिलता हरसिंगार रात में सुन ले भ्राता।
देखो ज्यों ही तात, प्रात की बेला आए
अवनी पर तब पुष्प,सभी जाते छितराए
सुन्दर हरसिंगार,उठालो इनको चुनकर
बनते…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 3, 2016 at 6:00pm —
9 Comments
आधार छन्द -- वाचिक भुजंगप्रयात
मापनी - 122 122 122 122
समान्त-- आ
पदान्त -- है
गीतिका
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बिना कर्म के कब किसे कुछ मिला है
करे कर्म जो साथ उसके खुदा है।
लिए माल को आज चिल्ला रहा जो
गरीबी है' क्या वो नहीं जानता है।
सदा श्रम से' सींचा है' जिसने जमीं को
उसी से ही' तो अन्न सबको मिला है।
नहीं मिलता' उसको जो है चाहता वो
बहुत कुछ मगर उसने सब को दिया है।
सही कर्म…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 28, 2016 at 7:48pm —
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212 212 212 212
बढ़ रहा दर्द है औ दवा कुछ नहीं
फिर भी होठों पे तेरे दुआ कुछ नहीं।
मर मिटा एक मुफ़लिस किसी शौक से
पर अमीरी नजर में हुआ कुछ नहीं।
हौंसलों से बनें काम सब जान लो
बुज़दिली से कभी तो बना कुछ नहीं।
बस तग़ाफ़ुल तेरा है बड़ा कीमती
इश्क से वास्ता अब रहा कुछ नहीं।
काम आलिम का होता बड़ा साथियो
सीखना उन बिना तो हुआ कुछ नहीं।
ज्यों जिए जा रहे बढ़ रही हसरतें
*जिंदगी हसरतों के सिवा कुछ नहीं।*
हर तरफ इस…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 24, 2016 at 9:59am —
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