2122 1222 1212 22
शख्स हर वक्त जो नफ़रत का ज़हर घोले हैं।
खुद को शाइर भला वो जाने कैसे बोले हैं।।
क़ौम की एकता के नाम पर जो भड़काते।
ऐसे बहुरूपिये गिरगिट से बदले चोले हैं।।
मज़हबी आचरण जो सबका जाँचते अक्सर।
पूछिये क्या कभी वो लोग खुद को तोले हैं?
तालियाँ घर के ही लोगों ने जो बजा दी तो।
अपनी औकात से वो ज़्यादा ज़ुबाँ खोले हैं।।
झंडाबरदार-ए-ईमान जो बने खुद से।
वो तो साहित्य की गर्दन पड़े सपोले हैं।।
भक्त पंकज…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 7, 2016 at 7:30pm —
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अधरों पर झूठी मुस्कान, जिसमें भरी कुटिलता है।
सच तो ये है हे भैय्या जी, खद्दर उसी पे जँचता है।।
जाग रहे लोगों से भारत वासी का कब हृदय मिला।
जो संसद में ही सोता हो, वो ही असली नेता है।।
विष का घूँट तुम्हारी ख़ातिर, जो पी ले वो पागल है।
बीच सदन पव्वा ले बैठे, मान उसी का होता है।।
युग बदला परिभाषा बदली, गद्दारी क्या होती है?
भारत का आदर्श आज कल, सिर्फ विभीषण बनता है।।
साक्षरता के दर के आंकड़े, पर मत जाओ…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 6, 2016 at 10:03pm —
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अपने बच्चों को आज़माते क्यूँ हो?
निर्धनों को यूँ सताते क्यूँ हो?
वो तो वैसे ही है अभिशापित; फिर।
ख़्वाब मुफ़लिस को दिखाते क्यूँ हो?
जो कि रिश्ते में #भसुर# है धन का।
उसको महफ़िल में बुलाते क्यूँ हो?
जिसकी कुटिया में नहीं दरवाज़े।
बाप बेटी का बनाते क्यूँ हो?
मैं ख़फ़ा हूँ तेरी मनमानी से।
सामने आओ लजाते क्यूँ हो?
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 2, 2016 at 6:12pm —
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बैठा हुआ बस मनन कर रहा हूँ।
दुख बाँटने का जतन कर रहा हूँ।।
पीड़ा जगत की है मन को लपेटे।
नयन नीर से आचमन कर रहा हूँ।।
संसार से तम मिटाने की चाहत।
चिन्ता चिता पर हवन कर रहा हूँ।।
अधरों पे मुस्कान आई अचानक।
प्रियतम से मानो मिलन कर रहा हूँ।।
लिखता चला जा रहा भावनायें।
कहते हैं सब मैं सृजन कर रहा हूँ।।
हर शब्द महके मेरी लेखनी का।
मनुजता मनुजता भजन कर रहा हूँ।।
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 25, 2016 at 11:00pm —
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इज़ाज़त ये तुमसे, है माँगे सुखनवर।
ग़ज़ल खूबरू इक, लिखे तुझ ग़ज़ल पर।।
कहो तो लिखे झील, आँखों को तेरी।
लिखे, चाहता हुस्न, का इक समंदर।।
गज़ब की हो तुम तो, विधाता की रचना।
बहुत खूबरू ज्यूँ, हिमालय का मंजर।।
ये होंठों की मुस्कान, है क़ातिलाना।
कलम लिख रहा है, इसे ज़िंदा खंज़र।।
है जो मरमऱी सा, बदन ये तुम्हारा।
सजा कर बसाया, इसे मन के अंदर।।
मौलिक-अप्रकाशित
(आदरणीय समर सर की इस्लाह पर…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 14, 2016 at 12:00pm —
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दर पर तुम्हारे बसर छोड़ता हूँ।
लो मैं तुम्हारा नगर छोड़ता हूँ।।
क्या फ़र्क है, ग़र है धड़कन तुम्हीं से।
मैं ज़िन्दगी की बहर छोड़ता हूँ।।
चिंता नहीं कर न आऊँगा मिलने।
कच्चा ये माटी का घर छोड़ता हूँ।।
तुमको नज़र लग न जाये किसी की
काज़ल ये दिल भस्म कर छोड़ता हूँ।।
खुद पे तुम्हारा यकीं कम न होये।
तुमको ग़ज़ल में अमर छोड़ता हूँ।।
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 10, 2016 at 11:30am —
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हँसती निगाहें अधर मुस्कुराते
सच सच बताओ कि क्या चाहते हो?
रेशम सी ज़ुल्फ़ें हैं उड़तीं हवा से
बोलो किसे बांधना चाहते हो?
गालों पे ये जो भवर है तुम्हारे
किसको डुबाना भला चाहते हो?
बाँहों पे खुद की टिका करके सर तुम
दर पर किसे रोकना चाहते हो?
बोलो अदाओं की गिराकर
करना किसे तुम फ़ना चाहते हो?
मौलिक-अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 6, 2016 at 11:25pm —
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2122 2122 1222 212
कैद हो रहने से बेहतर, चलो बंजारा बनें।
घुट के यूँ जीने से बेहतर, चलो आवारा बनें।।
देख पैसे की हवस हमको है ले आई कहाँ।
चल के जंगल में रहें आदमी दोबारा बनें।।
अपनी दुनिया में ही मशरूफ हैं लायक तो सभी।
चल मुहल्ले की उदासी हरें नाकारा बनें।।
पूछता कोई नहीं प्यासे हैं कुछ बूढ़े शज़र।
स्नेह बरसाए जो उन पर वही फव्वारा बनें।।
डोर रिश्तों की नहीं दिखती है अँधेरा घना।
हम ही दीपक से जलें रात में उजियारा…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 5, 2016 at 5:25pm —
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ग़ज़ल में एक नया प्रयास- #कुण्डलियाँ# शैली में
बतायें, तो मन में समाये भला क्यूँ।
समाये तो इसको सताये भला क्यूँ।।
सताये अगर तो बतायें ज़रा ये।
अदाओं से इसको रिझाये भला क्यूँ।।
रिझाये तो सपने जवाँ हो गये सब।
जगा कर के चाहत जगाये भला क्यूँ।।
जगाये अगर रात भर आप हमको।
तो घर से न निकले लजाये भला क्यूँ।।
लजाये भी तो सबसे पहले लजाते।
निगाहें निगाह से मिलाये भला क्यूँ।।
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 3, 2016 at 3:59pm —
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सताया मुझे रात भर आपने तो।
जगाया मुझे रात भर आपने तो।
न मिलने ही आये न सन्देश भेजा।
भुलाया मुझे रात भर आपने तो।।
नयन ये बरसते रहे रात भर कल।
रुलाया मुझे रात भर आपने तो।।
अमावस के हिस्से में बस कालिमा है।
सिखाया मुझे रात भर आपने तो।।
सुलगते रहे ख़्वाब जितने थे सारे।
जलाया मुझे रात भर आपने तो।।
मौलिक तथा अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 2, 2016 at 4:58pm —
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बहुत प्रताप था सम्राट अशोक
अब कहाँ है तुम्हारा सिंहासन?
बहुत जलवा था ज़िल्ले इलाही
कहाँ हैं अब मुग़लिया वंशज ?
जो महल जो हीरे जवाहरात
तूने खून से जुटाए थे न !
कोह-ए-नूर तो शो पीस ही रह गया
बादशाह सलामत?
तेरी खून पीने वाली तलवार
टीपू सुल्तान
बिक गयी- नीलाम हो गयी।
लेकिन तेरी वंशावली के
बूते की बात नहीं रही।।
गफ़लत में जीते हुए मौत से हारकर
सारी हेकड़ी और कौशल यहीं छोड़कर
जाना पड़ा तुमको भी महाराज…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 30, 2016 at 3:36pm —
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2122 2122 2122 212(1)
2122 2122 2122 212
ज़िद थी उनको चूमने की, चूम आये हम गुलाब।
पाक वो भी रह गये, औ हो न पाये हम ख़राब।।
थी ये ख़्वाहिश रात भर आगोश में उनके रहें।
चाँदनी बिखरी रही, शब भर रहा छत पर शबाब।।
कौन कहता जिस्म का मिलना ही पाना है मियाँ।
कौन मीरा का किशन था, पा गया मैं भी जवाब।।
धड़कनों में उसकी सरगम, और ख़्शबू साँस में।
देखिये चेहरे पे मेरे कैसा उसका है रुआब।।
प्यास थी इक जो महल में ख़त्म होती थी…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 26, 2016 at 6:00pm —
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2122 2122 2122 2
झाँक कर देखा दिलों में, सो रहे हैं सब।
एक जर्जर आत्मा ही ढ़ो, रहे हैं सब।।
कोठियों में लोग खुश हैं, भ्रम में ही था मैं।
किन्तु धन के वास्ते ही, रो रहे हैं सब।।
शीर्ष पर जो लोग लगता, पा गये सब कुछ।
जाके देखा पाया खुद को, खो रहे हैं सब।।
लग रहा था लोग मन्ज़िल, के सफर पर हैं।
हूँ चकित की दूर खुद से, हो रहे हैं सब।।
बंग्ले गाड़ी सुख के साधन, था गलत ये "मत"
आँधियाँ कह कर गयीं, दुख बो रहे हैं…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 8, 2016 at 11:30am —
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कभी आके खुद तुम यहाँ देख लेना।
मेरे इश्क़ की, इन्तेहाँ देख लेना।
यकीं इश्क़ पर गर, चे कम हो कभी भी।
तो ग़ज़लों का मेरी, जहाँ देख लेना।।
मिलेगा न मुझसा, दिवाना कहीं भी।
यहाँ देख लो फिर वहाँ देख लेना।।
मेरे हौसले की न पूछो कहानी।
झुकाऊँगा मैं, आसमाँ देख लेना।।
चलाना जो खंज़र, बचा लेना दिल को।
सजाया तुम्हें है, कहाँ देख लेना।।
मिलेगी यहाँ सिर्फ तस्वीर तेरी।
यही धन किया है जमाँ देख…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 5, 2016 at 6:03pm —
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आपकी नज़रें ताज़ा ताज़ा, फूल कमल ही लगती हैं।
बह्र नयी सी आप तो कोई, उम्दा ग़ज़ल ही लगती हैं।।
चाह रहे हैं छू लें लेकिन, रुसवाई से हम डर जाते।
जबकी मुस्का कर मिलती हैं, आप सरल ही लगती हैं।।
इसकी प्यास कई सदियों की, है मन का पंछी व्याकुल।
आप स्रोत सब मदिराओं की, असली तरल ही लगती हैं।।
जितने रूप धरा के सुन्दर, सारे हैं फीके फीके।
आपकी फ़ोटो कॉपी सारे, आप…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 2, 2016 at 8:00pm —
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2122 2122 2122 212
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खो गया है अक्स असली ढूँढता है आईना।
होंठ पर मुस्कान नकली देखता है आईना।।
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इक कहानी है लिखी जो रूप के इस पृष्ठ पर।
किसका हस्ताक्षर जटिल है पूछता है आईना।।
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हाथ की सारी लकीरें जल गयीं तन्दूर में।
क्या पढ़ें किस्मत का लेखा सोचता है आईना।।
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बालपन से ढ़ो रहा वो ईंट सर पर पूज्यवर।
भूख से संघर्ष का कल बाँचता है आईना।।
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मर रहा था अस्थि का ढाँचा जिलानें के लिये।
बिक गयी माता…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 30, 2016 at 11:30pm —
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बहुत बेचैन हूँ इस पल
कोई छेड़े न गर, बेहतर।
उठा भूकम्प है मन में
सभाले तो कोई ये घर।।
चली है आरी-ए-मतलब
नहीं बाक़ी शज़र कोई।
हुआ पूरा शहर नंगा
ये दिल तो हो गया बंज़र।।
कहाँ तुमको खिलाऊँगा
न वो पनघट न पानी है।।
लहर नफ़रत की बहती है,
बहुत ही ख़ार है अंदर।।
अभी तो नींद टूटी है
अभी दुनिया से मिलना है।
मिलाकर आँख कहना है
ज़रा दिखलाओ अपने "पर"।।
डरायेगा कोई मुझको
अतल गहराइयों से क्या?
बताया जाये…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 12, 2016 at 9:53am —
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प्रीत रीत हम निभा न पाये, खूब हुई गद्दारी है।
ग़म का ताप चढ़ा है मन पर, सावन की तैयारी है।।
इस गुलशन में स्वप्न पुष्प के, बाग़ लगाना अपनी ख़ता।
खारे जल से इसका सिंचन, करना तो लाचारी है।।
चिटख गया है शीशा-ए-दिल,चुभता है, हर धड़कन पर।
साँसें थामे रखना मुश्किल, जीना इक दुश्वारी है।।
उसे बेवफ़ा बोलूँ महफ़िल, में ये कैसे है सम्भव।
जिसे पूजता रहा उसे बदनाम करूँ, मक्कारी है।।
जब भी हाथ दुआ में उट्ठें, सिर्फ…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 10, 2016 at 10:30pm —
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तलाशी ले रहा है आईना, पर मैं लजाता हूँ।
लगे हैं दाग जो अंदर, मेरे उनको छिपाता हूँ।।
चढ़ा कर रंग रोगन का, कवर मैं खुद के चेहरे पर।
हूँ मैं भी खूबरू बस, ऐसा दुनिया को दिखाता हूँ।।
मग़र मालूम है मुझको, हक़ीक़त क्या है अन्तस की।
महज़ मैं मोह औ मद के लिए, महफ़िल सजाता हूँ
।।
यही सच है छिपाना व्यर्थ है सब जानता है "मन"
की मैं दौलत की ख़ातिर ही, तो बस जीवन गँवाता हूँ।।
इसे सुंदर बनाने को, हाँ अंदर घर सजाने…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 10, 2016 at 10:00am —
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राजनीति से जिन लोगों की, रोज़ी रोटी चलती है।
सच का करें विरोध अगर वो, तो उनकी क्या गलती है।।
किन्तु लेखनी वाले लोगों, से मेरा बस प्रश्न यही।
उनकी नैतिकता क्यों झूठे रंगों में हाँ ढ़लती है।।
वर्ग विभाजन लोकतंत्र में तो बस सत्ता की कुंजी।
किन्तु नीति यह सृजन क्षेत्र में आख़िर काहें मिलती है।।
यद्यपि आज़ादी से लेकर तुझसे नेता कई लड़े।
फिर भी अरे गरीबी तेरी चूल न काहें हिलती है।।
सोचो नफ़रत…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 4, 2016 at 11:51pm —
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