बह्र:- 1212 1122 1212 112
दिया जला के उसी सम्त फिर हवा न करे
किया है जो मेरे दुश्मन ने वो सगा न करे [1]
उसे है इल्म बिछड़ने से लोग टूटते हैं
तभी वो मोतियों को डोर से जुदा न करे [2]
बुज़ुर्ग हो गया हूँ ज़िंदगी से इसलिए भी
वो देख भाल करे पर मेरी दवा न करे [3]
नहीं है ख़ौफ़ समंदर में डूबने का मुझे
मगर यूँ क़र्ज़ में मरना पड़े ख़ुदा न करे [4]
मुहाल है ज़मीं से आसमान तक का सफ़र
बुलंदियों पे यूँ जा कर कोई गिरा न करे [5]
मैं झूटी ज़िंदगी से अब नजात चाहता हूँ
तवील उम्र की मेरी कोई दुआ न करे [6]
ख़ुदा क़ुबूल करे आख़री दुआ ये मेरी
वो मेरे बा'द किसी और का बुरा न करे [7]
हमें भी हक़ है यहाँ सर उठा के जीने का
ज़माना तल्ख़-बयानी से तब्सिरा न करे [8]
तुम्हारी ज़ुल्फ़ तो बिखरेंगी उंगलियों से मेरी
बस इसका ध्यान रहे ये कहीं हवा न करे [9]
मैं अपने दिल से तेरा दिल निकाल फेंकूँगा
मैं वो नहीं हूँ जो वा'दा करे वफ़ा न करे [10]
ये भाग दौड़ भरा शहर है ज़रा ठहरो
किसी के वास्ते कोई यहाँ रुका न करे [11]
मुक़ाम-ए-फ़ख़्र पे लब से ये बद-दुआ निकली
हमारे साथ ज़माना चले ख़ुदा न करे [12]
"मौलिक व अप्रकाशित"
-रूपम कुमार 'मीत'
Comment
जनाब रूपम कुमार 'मीत' जी आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने मुबारकबाद पेश करता हूँ। एक अदना कोशिश की है, देखियेेगा।
दिया जला के उसी सम्त फिर हवा न करे
रक़ीब मेरा भला कैसे ये दग़ा न करे सादर।
प्रिय Rupam kumar -'मीत
सादर अभिवादन
एक बहतरीन ग़ज़ल के लिए बधाइयाँ स्वीकार करें,जैसा कि कबीर साहब ने कहा या तो जुल्फें कर लो या बिखरेगी कर लो,खुश रहो और यूँ ही लिखते रहो.
'लगा के आग मेरे घर को फिर हवा न करे
किया है जो मेरे दुश्मन ने वो सगा न करे'
मुझे इनमें भी रब्त नहीं लगता ।
आदरणीय समर कबीर साहिब दंडवत प्रणाम, मत्ला यूँ कहे तो
लगा के आग मेरे घर को फिर हवा न करे
किया है जो मेरे दुश्मन ने वो सगा न करे
मार्गदर्शन कीजिए साहिब,,
आ, लक्ष्मण धामी साहिब प्रणाम, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत शुक्रिया साहिब।
आदरणीय नीलेश जी, बहुत शुक्रिया हौसला अफ़ज़ाई का।
आ. भाई रूपम जी, अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई ।
आदरणीय रूपम साहब,बहुत ही उम्दः ग़ज़ल कही है आपने बधाई स्वीकार करें इस ग़ज़ल के लिए ..
आदरणीया अमिता तिवारी जी,, बहुत शुक्रिया आपका ग़ज़ल तक आई, और बालक का हौसला बढ़ाया।। आपका दिन शुभ हो। प्रणाम।
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