आज ‘नियति’ व ‘आदित्य ‘ आमने-सामने बैठे थे | सेमिनार के बाद यह उनकी पहली मुलाकात थी |और शायद .....
सेमिनार की उस आखिरी शाम से उनके बीच की बर्फ पिघलने लगी थी| शुरुवात एक चिट्ठे से हुई थी जब उसने बिल्कुल खामोश रहने वाली नियति की डायरी में अपना नम्बर लिखा और लिखा-“शायद हम दोनों का एक दर्द हो| तुम्हारी ये ख़ामोशी खलती है ,तुमसे बात करना चाहता हूँ |”
“ क्यों ?”
“ लगता है तुम्हारा मेरा कोई रिश्ता है शायद दर्द का - - “
पूरे सेमिनार वो चुप्प रही और वो उसे रिझाने अपनी और खींचने की चेष्टा करता रहा |उसका सारा प्रयास सारी उर्जा बस एक ही लक्ष्य पे केन्द्रित था -नियति |
वो नियति से अपनी नियति बनाना चाहता था |वो-वो सब पाना चाहता था जिसकी कसक उसे माधुरी से विवाह के पश्चात महसूस हुई |
वो अपने साथियों के प्रगतिशील विचारों से बहुत प्रभावित था -जहाँ पत्नियाँ नौकरी और घर दोनों सम्भालती हैं और पुरुष उनके क्रेडिट कार्ड को सम्भालते हैं और उनकी जरूरतों को पूरा कर आदर्शवादी पति बने रहते हैं |यानि बाज़ार और समाज का नया सिक्का-जहाँ पुरुष चित-पट दोनों पर काबिज था और स्त्री दोनों और छपी मुस्कुरा रही थी |
नियति को जीत लेने का मतलब था -उस परम्परावादी बोझ को कम करना जो पुरुष को आर्थिक साधन जुटाने के लिए बैलों की तरह हांका लगाता है और नियति का दब्बूपन और चुप्पी ईशारा थी की यही सही लक्ष्य है |इसी के मार्फत पुरे होंगे तेरे सपने - - -
चिंगारी सही जगह पड़े तो आग लगने में क्या देर |किसी इंसान को जीतना है तो उसकी सबसे कमज़ोर भावना को पकड़ना होता है |वह नियति की उसी कमज़ोर भावना को तलाश रह था किसी कुशल सेल्स-मैन की तरह -"बेशक ना खरीदों,देखने के पैसे थोड़े माँग रहा हूँ |"
इंसान के लिए जब कोई चीज़ अनिवार्य होती है तो उसे पाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता |
आखिरी दिन उसने आखिरी प्रयास किया और एक चिन्दा उसे दिया –“सिर्फ एक मौक़ा दे दो ,एक बार बात कर लो “
शाम तक कोई जवाब ना पाकर वो पुनः संडे का क्लासिफाइड पेज़ देखने लगा |
फ़ोन की घंटी बजी |पहले नराजगी व्यक्त की गई |फिर कारण पूछा गया |फिर ईधर-उधर की बाते |
आप से बात कर अच्छा लगा ? क्या एक मित्र की तरह सम्पर्क में रह सकते हैं |
“मित्रता में क्या बुराई है ?”
फिर एस.म.एस. के गुड-मोर्निंग और गुड-नाईट मेसेज से हुई शुरुवात हल्के-फुल्के शे’र ,चुटकुलों और फिर भावनात्मक संदेशो पे पहुंच गई |फिर आदित्य ने उससे उसकी आदतों,पसंद-नापसंद .घर-परिवार सबको “ चार में से एक चुनो “ के संदेश-खेल से जाना |इसी से उसने नियति की चुप्पी की वजह भी तलाशी -
उसे विभाग में लगे एक महीने भी ना हुए थे की पिताजी एक दुर्घटना में चल बसे |हर जगह उसे साहस देने वाले ,माँ से उसे और पढाने के लिए लड़ने वाले ,पिताजी के जाते ही वो एकदम से बड़ी हो गई |घर में वो सबसे बड़ी,पीछे माँ,बहन ,दो भाई पर अब उसे सहारा देने वाला कोई नहीं |वो एकदम से बड़ी हुई थी -झटके से इतना बोझ उसके कंधे पर - -
ऊपर से रिश्तेदारों का माँ पर उसकी शादी कर देने का दबाब -माँ उसकी योग्यता के अनुरूप ही रिश्ता चाहती थी पर रिश्ते दरों को वो बोझ लगने लगी थी -दबी जबान में कहने लगे थे -बेटी की कमाई मुँह लग गई है |और माँ की ख़ामोशी और परिवार के दायित्त्व ने उसे खामोश बना दिया था |हर जगह शादी को लेकर होने वाली बात से वो खीझने लगी थी -मैं इन्सान नही क्या ?मेरी पसंद-नापसंद क्या कुछ नहीं |
उसका मन प्रतिवाद करने लगा था पर वो किस-किस को चुप कराए अत स्वयं चुप्प रहना शुरु कर दिया |आदित्य बहुत प्रसन्न था उसने विजय की तरफ पहला कदम बढ़ा दिया था अब जरूरत थी सही समय की |वह इसी तरह ये खेल खेलता रहा|
पर एक रोज़ उसकी चोरी पकड़ी गई – “बहुत चालक बनते हो मेरे बारे में इतना कुछ जान लिया पर अपने बारे में कुछ भी नहीं| “
“मैं तो खुला विज्ञापन हूँ जब चाहे पढ़ लेना “और फिर बहाना बनाकर वो चैट वहीं रोक देता है
एक रोज़ नियति ने लिखा-“तुम मेरे साथ बहुत बुरा कर रहे हो मुझे तुम्हारे संदेशों की आदत हो रही है |”
“तो आदत मत डालो |”उसने सपाट सा लिख दिया विजयी मुद्रा में
“ ठीक है ये सिलसिला यहीं खत्म |” नियति ने भी गुस्से में गम्भीरता से लिखा |
बाजी एकदम से पलटती लगी |पर वो हार नहीं चाहता था | नियति में वो सभी खूबियाँ थी जो वह चाहता था |बहुत मुश्किल से तो गाड़ी पटरी पे आई थी ,लंबे ईंतज़ार के बाद |उसने अभिमान को फिर एक कोने में पटका और याचक सा लिखा –“ तुमसे मिलना चाहता हूँ ,कुछ बताना है बहुत जरूरी “
“फ़ोन पे क्यों नहीं ?”सवाल आया
“नहीं ,बात ही ऐसी है ,बस एक बार, फिर चाहे तो कभी मत मिलना |” लिखते-लिखते रो पड़ा वो |
वक्त उसे इतना दीन बनाएगा उसने सोचा भी ना था |वो अच्छे-अच्छों के सामने नहीं झुका था पर आज - - -
“ सोच कर बताती हूँ |”-और वो ईंतज़ार करने लगा |
ये प्रतीक्षा सबसे लम्बी साबित हुई और सबसे अधिक पीड़ा दायक भी |
बहुत दिनों से अपने मन में चल रही कशमोकश को उसने और बढ़ता महसूस किया| वो आजतक खुद को खुला ईश्तहार समझता था| जो सरेआम चौराहे पर लगा हो, पर आज उसे एहसास हुआ था की खुला ईश्तहार भी भी वही लोग पढ़ते है| जो उस रास्ते से गुजरते हों या वो लोग जिन्हें उस विज्ञापन से लाभ हो| वैसे भी विज्ञापन हमेशा नफे- नुकसान के लिए ही होता है | बेचने वाला हमेशा फ़ायदा चाहता है और खरीदने वाला हमेशा किफ़ायत| विज्ञापन में कोई भावना नहीं होती है, संवेग नही होता, बस चमक होती है और परोसने की कला|
‘आदित्य’ बाजार के इस कलात्मक प्रस्तुतिक से इत्तफाक नही रखता था | शायद इसलिए अभी तक उसका विज्ञापन बाजार की चकाचौंध में धुंधला पड़ गया था| 6 प्रमुख विवाह वेबसाइट पर पड़े होने के बावजूद तथा सैकड़ो प्रोफाइल्स से सम्पर्क करने के बाद भी किसी ने अबतक उसे गंभीरता से नही लिया था | अब उसे बाजार का नियम ‘उपयोगिता का सिद्धांत’ समझ में आ गया था | वो अब लागत-मूल्य और वास्तविक मूल्य को समझ चुका था |उसका तिलिस्म टूट चूका था| कितनी भी अच्छी चीज हो जब वो शो-रूम से एक बार बाहर निकल गई तो वो सेकंड-हैंड ही कहलाती है |’ ‘माधुरी’ से जब कभी उसका झगड़ा होता था, तो वो नाराज होकर जाने की बात करती तो वो कह देता –“सरकारी दामाद हूँ, लोग खड़े हैं दामाद बनाने को .....” माधुरी को खामोश करने का यह सबसे ताकतवर हथियार होता था | पर अब...
.चींज़े जब हमे बिना प्रयास व अधिक्ता के मिलती है तो हम बेकद्र होते हैं| ‘उपयोगिता का नियम ’ हमारी ज़िन्दगी में भी ऐसे ही काम करता है | पत्नी के प्यार, अधिक ध्यान रखने की आदत को, देर से घर आने पर सवाल-जवाब करने को पति लोग अक्सर अपनी आज़ादी का हनन समझते हैं| उनके प्यार का अवमूल्यन करते हैं | भूखे इन्सान को सुखी रोटी का टुकड़ा भी बहुत स्वादिष्ट लगता है जबकि भरे पेट वालों को रसमलाई और लजीज व्यंजनों में भी स्वाद नहीं आता है| पति-पत्नी का प्यार भी शायद भूख व सूखी रोटी की तरह ही होता है|
माधुरी के बाद अब उसे यह खाली घर खाने को दौड़ता था| जब से ग्रीष्म-अवकाश हुए हैं भूख और बढ़ गई है | घर की पुरानी चीज़े और माधुरी का हरेक सामान मानों उससे बोलना चाहता हो| एक ऐसा गीत जिसके बोल तो हैं लेकिन धुन कहीं खो गई है| माधुरी को सजना-सवरना बहुत पसंद था | गहरी लिपस्टिक ,परफ्यूम, नई-नई साड़ियाँ और सोने के असली गहने| सादगी पसंद आदित्य और माधुरी में हमेशा इस बात को लेकर बहस होती थी | खासकर जब कभी बाहर जाना हो और जब तक माधुरी लिपस्टिक को हल्का ना कर लेती थी और गहने आधे नही हो जातें आदित्य कुर्सी से ना हिलता|
पर अब,जब कभी आदित्य की नजर ड्रेसिंग-टेबल में रखी माधुरी के मेकअप बॉक्स पर जाती तो उसकी ऑंखें छलक पड़ती हैं|
गहरी लिपस्टिक से सजे दो होंठ तथा काजल से उभरती दो मासूम ऑंखें, मानों सामने प्रस्तुत हो जाते हों |झगड़ा होने बाद जब माधुरी आदित्य को मनाने आती और अपने गहरी लिपस्टिक से उसके गालों पर अपना प्रेम लिखती तो आदित्य कहता –“मुझे छोड़ क्यों नही देती ....”
माधुरी. सिर्फ इतना कहती –“ मरने तक तो नही छोडूंगी|”
माधुरी के अचानक चले जाने तथा 3 माह के रविश को अकेले संभालने की जिम्मेदारी ने जैसे आदित्य को हिलाकर रख दिया था| वो असमंजस में पड़ गया की वो क्या करे ? बड़ी दीदी और जीजा ने रविश को अपने पास रखा हुआ है |
” ‘रविश’ हमें दे दे , तू दूसरी शादी कर ले, अपनी पसंद की| “-जीजा-जीजी अक्सर कहते |
आदित्य आज दोराहे पर खड़ा है, वो रविश को छोड़ना भी नही चाहता और अपनी पसंद की शादी भी करना चाहता है|
उसे यह बिल्कुल पसंद नही कोई उसे ‘गैर-जिम्मेदार’ कहे| वो ये बर्दाश्त नही कर सकेगा कि कल उसका बेटा उसे ‘मामा’ कहे |अपनी पसंद की लकड़ी को दोबारा ढूढ़ने की चाहत,अपने लिए पत्नी और अपने बेटे के लिए ‘माँ’ ढूढने की चुनौती ने उसे कभी ना पसंद आने वाले बाजार में धकेल दिया है|शादी के बाज़ार में- -
मैट्रि-मोनियल साइट्स और न्यूज़-पेपर के मैट्रिमोनियल कॉलम बस इसी में उसका खाली समय बीतता था |बड़ी बेशर्मी से वो अपने परचितों-सम्बन्धियों से अपने पसंद-नापसंद के बारे में बात करता था |उसमें अभी भी अभिमान था सरकारी नौकर होने का-पुरुष होने का |दुर्भाग्य ने उसे एक मौक़ा दिया था और वो उसे गवाना नहीं चाहता था ,फिर चाहे लोग उसे बेशर्म कहें या माधुरी से उसके रिश्ते को शंका से देखें |माधुरी उसका अतीत थी पर अब उसके सामने उसका और बेटे का भविष्य था |अपने कोसने वालों को वो बस यही जवाब देता –
“ कहने वालों का कुछ नहीं जाता/सहने वाले कमाल करते हैं
कोई कैसे जवाब दे दर्दों का लोग तो बस सवाल करते हैं |”
पर सच्चाई यही थी की वो अब सवालों से क्षत-विक्षत हो चला था |उसका धीरज टूट रहा था |रविश बड़ा हो रहा था |घर वाले उस पर सबकी पसंद की लड़की से शादी करने का दबाब डाल रहे थे |
शादी के ऑनलाइन बाज़ार ने उसे आईना दिखाया था –तलाकशुदा बच्चे वाली नौकरीशुदा औरतें भी बिना बच्चे वाला,बिना झंझट वाला पुरुष चाहती थीं,बाकियों की तो वो कल्पना ही नहीं कर सकता था |बाज़ार के कड़वे सच्च ने उसका भ्रम तोड़ दिया था-वो बेशक खुद को सोना समझे पर उसे इस बाज़ार ने उसे पीतल की तरह भी नहीं आँका था |ऐसे में नियति एक उम्मीद की तरह थी-वो जानता था वो कौआ है नियति मोती | पर वो उसे पाना चाहता था और दिशा में बढ़ भी चुका है नियति के मन में उसके लिए भावनाएं पनपने लगी हैं पर वो उसकी असलियत से वाकिफ नहीं है | पर सच को छुपा कर वो प्यार और रिश्ते की बुनियाद नहीं रख सकता |सच जितना भी कठोर हो यह उसके मन को हल्का और कद को भारी रखेगा |झूठ से शायद उसका भला हो जाए पर वो कभी ऊँची नजरों से बात नहीं कर सकता और अपने बेटे के लिए वो मातृत्व और स्वयं के लिए वो प्रेम नहीं पा सकता जिसके लिए वो इतना कुछ सह रहा है | अभी तक नियति ने उसे पूरा पढ़ा नहीं था,भले ही वो कईयों के लिए एक खुला विज्ञापन हो पर नियति के लिए तो बिना पढ़ी किताब ही है |उसने ठान लिया था की अब नियति को अपना सारा सच बताएगा लेकिन ऐसी बाते फ़ोन पर थोड़े होती हैं |
आज उसे महसूस हो रहा था कि शादी के इस बाज़ार में जहाँ एक से एक प्रोफाइल खुद को चमका कर बेंच रहे हैं वो एक फ़ीका ईश्तहार है |बाजार की चका-चौंध में उसकी सच्चाई धूल खा रही है | वो आज बाज़ार का खुला ईश्तहार है, जिसे खरीदने वाला कोई नही है, दिन-प्रतिदिन उसकी चमक फीकी पड़ रही है | शायद उसे भी यह आभास है इसलिए वो भी अपना भाव कम कर रह है| उसे डर है कि कहीं वो सेल का हिस्सा ना बन जाए| एक ऐसा खुला बाज़ार जहाँ अलग-अलग चीज़े स्टॉक निपटाने के लिए औने-पौने दामों पर बेच दी जाती हैं|वो इसी स्थिति से बचना चाहता है |
मोबाइल हिनहिनाता है वो खोलकर संदेश पढ़ता है “ कब और कहाँ मिलोगे ? “
सोमेश कुमार (२२/०५/२०१३) मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
kahani bahut achhi lagi but padne me maja nahi aaya. sabdo me ehsas nahi dal pae aap. sabdo me agar savnvednaye ho to bahut hi maja aata hai padne me. asha hai ic kahani ka agla part bhi likhenge or umse ic baat ka thoda dyan rakhenge.
muje agle part ka intzar rahega.................
सुंदर विषय पर कहानी रची है | कहानी में कुछ कसावट होती तो और अछा होता | प्रयास सराहनीय
कहानी कहने का सद्प्रयास हुआ है भाई सोमेश कुमार जी, सतत प्रयास एवं स्वाध्याय से रचना और परिपक्व होगी। बने रहें एवं प्रयासरत रहें।
khani ko srahne ke lie aabhar,mnch ke sbhi bde agrjon se aagrh hai ki mere nam ke sath aadrniy ya ji na lgaen keval bhai sbd likhna chahe to likhe ya naam likhen,
औपचारिक भाषा मानता हूँ एक साहित्यिक विवशता है
पर भाई कह देने में हृदय की निकटता है और मैं आप सभी की इसी निकटता का आकांक्षी हूँ |कृपया मेरे आग्रह को अन्यथा ना लें
आप सबका अनुज
बहुत सुन्दर ! आ. सोमेश भाई , एक सच ये भी है ! बधाई स्वीकारें ।
बाज़ार और समाज का नया सिक्का-जहाँ पुरुष चित-पट दोनों पर काबिज था और स्त्री दोनों और छपी मुस्कुरा रही थी |....सुन्दर रचना सोमेश जी ..बधाई |
आ. मार्गदर्शन एवं हौसलाअफजाई के लिए शुक्रिया ,निसंदेह कहानी में कहीं-कहीं टूटन या कमज़ोरी मुझे भी प्रतीत हो रही है पर साहित्य का नया छात्र होने के कारण ,उन कमियों को स्वयं पकड़ पाना कठिन है ,अगर आप कहानी के कमज़ोर पक्षों को सूचित कर सकें तो सुधार की कोशिश अवश्य करूँगा|बजारवाद और नायक का इसमें स्वयं को बेच पाने की व्यग्रता इस का मूल विषय है इस लिए कहानी में अर्थ-शास्त्र हावी हो सकता है ,परंतु मुझे आप लोगों के सहयोग से इस इश्तिहार को कहानी में परिणित कर के ख़ुशी होगी |
आ . दीदीजी आप ने समय निकल के रचना को पढ़ा इसके लिए शुक्रिया ,आप से भी मार्गदर्शन की अपेक्षा करता हूँ ,वस्तुतः f-बुक से इतर इस मंच पे ज़्यादा समय व्यतीत करने का ये एक बड़ा कारण कि यहाँ सीखने के अवसर अधिक दिखाई देते हैं पर इसके लिए ये जरूरी ही की आप सभी अग्रज उचित मार्गदर्शन दें
तहे दिल से पढ़ने वालों और मार्गदर्शन देने वालों का शुक्रिया |
अच्छी कहानी है बधाई आपको
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