2122---1212---22
ख़ुद-परस्ती का दायरा क्या था
मैं ही मैं था, मेरे सिवा क्या था
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झूठ बोला तो बच गई गरदन
हक़-बयानी का फ़ाएदा क्या था
.
चाह मंज़िल की थी निगाहों में
ठोकरें क्या थीं आबला क्या था
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पर निकलते ही थे उड़े ताइर !
ये रिवायत थी, सानेहा क्या था
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दर्द, ग़ुस्सा, मलाल, मजबूरी
आख़िर उस चश्मे-तर में क्या क्या था
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क्यों मैं बर्बादियों का सोग करूँ
जब मैं आया, यहाँ मेरा क्या था
आग पानी हवा ज़मीन फ़लक
पेश-तर दहर के बता क्या था
.
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
वाह खूब सूरत ग़ज़ल के लिए बधाई .. ..
जनाब दिनेश साहिब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l शेर 4 में शब्द "सानेहा" को "सानिहा "कर लें l
आदरणीय निशब्द हूँ आपकी इस गहन भावों की अभिव्यक्ति वाली बेहतरीन ग़ज़ल पर। हार्दिक हार्दिक बधाई सर।
अच्छी गज़ल के लिए बधाई
आ. भाई दिनेश जी, बहुत अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
बहुत खूब आ. दिनेश जी
बहुत बहुत बधाई
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें । सादर |
झूठ बोला तो बच गई गरदन
हकबयानी का फायदा क्या था।
क्या कहने वाह बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है। हर शेर बोलता हुआ। बधाई
आदरणीय दिनेश जी, आपके अपने ख़ास अंदाज़ के उम्दा अशआर हुए हैं. हार्दिक बधाई.
बहुतखूब बहुतखूब आदरणीय..बेहतरीन ग़ज़ल
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