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सोचिये फिर डूबने में कितनी आसानी रहे
उनकी आँखों में जो मेरे वास्ते पानी रहे.
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मैं किसी को जोड़ने में घट भी जाऊँ ग़म न हो
ज़िन्दगानी के गणित में इतनी नादानी रहे.
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क़त्ल होते वक़्त भी मैं मुस्कुराता ही रहूँ
ताकि क़ातिल को मेरे ता-उम्र हैरानी रहे.
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क़ाफ़िला यादों का गुज़रे रेगज़ार-ए-दिल से जब
आँखों में लाज़िम है सारी रात तुग़्यानी रहे.
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क्यूँ भला सोचूँ वो दुश्मन है मेरा या कोई दोस्त
मैं रहूँ अव्वल तो बेशक़ कोई भी सानी रहे.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. दिनेश भाई
आदरणीय भाई श्री नीलेश जी नमस्कार , बेहतरीन ग़ज़ल !
क़त्ल होते वक़्त भी मैं मुस्कुराता ही रहूँ
ताकि क़ातिल को मेरे ता-उम्र हैरानी रहे. बेहतरीन शे'र
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय नीलेश जी सादर नमस्कार , लाजबाब हुई आपकी गजल वाह वाह और वाह , बधाई आपको
वाह वाह वाह, बहुत ख़ूब आदरणीय नीलेश जी, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ. क्या कहने,
क़त्ल होते वक़्त भी मैं मुस्कुराता ही रहूँ
ताकि क़ातिल को मेरे ता-उम्र हैरानी रहे.
सादर.
क़त्ल होते वक़्त भी मैं मुस्कुराता ही रहूँ
ताकि क़ातिल को मेरे ता-उम्र हैरानी रहे. ....
वाह...बहुत ही उम्दा...बधाई कुबूल फ़रमाइये
हमेशा की तरह बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है, आदरणीय नीलेश जी।
बधाई स्वीकार करें।
सादर।
वाह सर जी ये एक और खूबसरत ग़ज़ल आपकी पढ़ने को मिली । मतले सहित सभी अशआर शानदार हुए , बहुत बधाई आपको
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई आ. निलेश सर। वाह वाह वाह।
Taaki qatil ko mere... kya shaandar sher huye hain
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