परम आत्मीय स्वजन,
"ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते"
(ये मिहनत गाँ/व में करते/ तो अपना घर/ बना लेते)
1222 / 1222 / 1222 / 1222
मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन
बहर :- बहरे हजज मुसम्मन सालिम
मुशायरे की शुरुआत दिनाकं २७ नवम्बर दिन रविवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक २९ नवम्बर दिन मंगलवार के समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा |
अति आवश्यक सूचना :- ओ बी ओ प्रबंधन ने यह निर्णय लिया है कि "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक १७ जो पूर्व की भाति तीन दिनों तक चलेगा,जिसके अंतर्गत आयोजन की अवधि में प्रति सदस्य अधिकतम तीन स्तरीय गज़लें ही प्रस्तुत की जा सकेंगीं | साथ ही पूर्व के अनुभवों के आधार पर यह तय किया गया है कि नियम विरुद्ध व निम्न स्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये और बिना कोई पूर्व सूचना दिए प्रबंधन सदस्यों द्वारा अविलम्ब हटा दिया जायेगा, जिसके सम्बन्ध में किसी भी किस्म की सुनवाई नहीं की जायेगी |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ
( फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो २७ नवम्बर दिन रविवार लगते ही खोल दिया जायेगा )
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान सम्पादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन
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असल रोटी मकां कपड़ा गरज इन्सान की तो है
अगर ज्यादा न भी होता गुजारे भर बना लेते... वाह..
आदरनीय अश्वनी जी... बहुत उम्दा ग़ज़ल...
सादर बधाई स्वीकारें....
आद अश्विनी रमेश जी, अपने अशार में काफी अच्छी बातें कहीं हैं आपने जिसके लिए आपको मेरी दिली बधाई ! आखरी शेअर में दूसरे मिसरे में काफिया गायब है, ज़रा नज़र-ए-सानी फरमाएं !
सत्प्रयास... शुभकामनायें..
असल रोटी मकां कपड़ा गरज इन्सान की तो है
अगर ज्यादा न भी होता गुजारे भर बना लेते
वाह साहब वाह
बहुत शानदार प्रयास है अश्विनी जी, दाद कुबूल कीजिए।
//असल रोटी मकां कपड़ा गरज इन्सान की तो है
अगर ज्यादा न भी होता गुजारे भर बना लेते//
बहुत सुन्दर कहा तुमने अरे ओ अश्विनी भाई,
तबीयत खुश हुई अपनी हँसी मंजर बना लेते.
नहीं आते यहाँ सब आपको इस्लाहियत करने,
इशारों से समझ जाते जरूरत भर बना देते.
हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय :
बचाते रिश्तों को तो ज़िन्दगी बेहतर बना लेते
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते।
न होते दुनिया से हम, पत्थरों के बदले देते फल
सफल हो जाता जीवन, खुद को अगर शजर बना लेते ।
न समझे ईंट-पत्थर से मकां बनते, न बनते घर
मकानों में न उलझते, काश कोई घर बना लेते ।
तबाह कर रहे हो दुनिया को क्योंकर, तुम बताओ तो
बम बनाने वालो कोई हसीं मंजर बना लेता ।
न देते दिल को अहमियत, न करते बात उल्फत की
हसीं होता सफर अगर खुद को पत्थर बना लेते ।
उमर बीती हमारी विर्क बस धन जोड़ने में ही
जो दोस्त बनाते कुछ तो खुशगवार सफर बना लेते ।
----------- दिलबाग विर्क
न समझे ईंट-पत्थर से मकां बनते, न बनते घर
मकानों में न उलझते, काश कोई घर बना लेते ।....achchha sher दिलबाग bhai.
भाव पक्ष से सभी बंद बेहतर हैं. वस्तुतः ग़ज़ल की धमक होती ही ऐसी है जो कहने वाले से अपेक्षा करती है उसकी सीमाओं का अतिक्रमण न हो. आयोजन में आपकी प्रतिभागिता संतुष्टिकारी है, दिलबाग़जी. सहयोग बना रहे.
हार्दिक बधाइयाँ.
दिलबाग साहब ..उम्दा ख़यालों से सजी ये रचना गज़ल का नाम ले लेती अगर इस बह्र या मीटर में कस दिया जाता| आपके इस सत्प्रयास के लिए बधाई| शुभकामनाएं|
बहुत ख़ूब !
न देते दिल को अहमियत, न करते बात उल्फत की
हसीं होता सफर अगर खुद को पत्थर बना लेते ।
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