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भाई जितेन्द्रजी, सही कहा आपने.. सरकारी दफ़्तरों के ढंग देखिये. आँखें खुली की खुली रह जायेंगीं. कथा को समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद भाई
कटुआ तिवारी : [पहचान] :लघु कथा
“रात का सन्नाटा , चारों तरफ पुलिस ,लाठी दिखा के गाड़ी रुकवा दी गयी !”
“हां भाई कहाँ से आ रहे हो इतनी रात को ,देख नहीं रहे हो शहर में कर्फु लग गया है , कौन धर्म के हो ,अबे अपनी कोई पहचान तो बताओ ?”
“ये लीजिये मेरा ड्राईविंग लाईसेंस !”
“अबे इस पर तो ‘कटुआ तिवारी’ लिखा है !”
“जी ,यही मेरा नाम है ,मां इस्लाम को मानती हैं ,पिता हिन्दू धर्म को और मैं दोनों को, बचपन में काटता बहुत था इसलिए यही नाम पड़ गया !”
“अबे गज़ब पहचान है , जाओ यार ,कुछ समझे में नहीं आ रहा ,क्या बोलें तुमको !”
(मौलिक और अप्रकाशित)
एक नज़र में बहुत सामान्य रचना प्रतीत होती है ये लेकिन शीर्षक अपने आप में एक सम्पूर्ण कथा है । बहुत संवेदनशील विषय पर एक बेहतरीन प्रस्तुति , बहुत बहुत बधाई आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी..
मजहब भेद नहीं सिखाता, लेकिन माता-पिता को मानने के कारण इस भेद को काट कर भरने का भरपूर प्रयत्न किया कटुआ ने| सार्थक रचना हेतु बढ़िया आदरणीय हरी प्रकाश जी सर !
सुंदर !! ये नाम भी बहुत प्रयोग किया जाता है | इस तरह की पहचान ही तो भारत भूमि के वसुधैव कुटुम्बकम को सार्थक कर जाती है .सादर
// अबे गज़ब पहचान है // ..... हरी भाई कथा भी आप की गज़ब बनी है बधाई स्वीकार करे.....
बस एक सुझाव मेरी और से ..... // इसलिए यही नाम पड़ गया ! //” ... के आगे ये शब्द और लगा दीजिये मेरे विचार से " अब कौन धरम का हु मैं ये आप देख लीजिये//
साम्प्रदायिक दंगों की प्रष्टभूमि में जन्मी लघु कथा प्रतीत होती है ....
“जी ,यही मेरा नाम है ,मां इस्लाम को मानती हैं ,पिता हिन्दू धर्म को और मैं दोनों को, बचपन में काटता बहुत था इसलिए यही नाम पड़ गया !” धर्म ,नाम के नाम पर पहचान कर यातना देने वालों मारने वालों के लिए सबक है ये लघु कथा ,,एक संवेदनशील मुद्दे पर बहुत अच्छी कहानी ,हार्दिक बधाई आपको आ० हरि प्रकाश जी|
“
मेरा निजी मत है कि हर लघुकथाकार को लघुकथा कहने से पहले इन तीन बातों का ध्यान रहना चाहिए :
१. क्या कहना है ? (कथानक या विषय)
२. क्यों कहना है ? (रचना का उद्देश्य या सन्देश)
३. कैसे कहना है ? (रचना की शैली)
यदि आपकी लघुकथा का अवलोकन उपरोक्त तीनो बिन्दुओं के परिपेक्ष्य में किया जाये, तो ऐसा लगता है कि आपको कुछ हद तक इस बात का पता है कि आपको क्या कहना है। किन्तु कैसे कहना है या क्यों कहना है, यहाँ आप भटक भटक गए लगते हैं। अगर आपकी रचना का समअप किया जाये तो - कर्फ्यू के दौरान एक व्यक्ति को पुलिस ने रोका, उसका परिचय पूछा। उस व्यक्ति ने अपना एक अजीब सा नाम और उस नामकरण का कारण बताया, जिसे सुनकर पुलिस वालों ने उसको जाने दिया। बात क्या बनी ? रचना ने क्या सिद्ध किया? क्या सन्देश दिया ? क्या "कटुआ" शब्द आपको आपत्तिजनक नहीं लग रहा ? इस्लाम को मानने वाली माँ या एक मुस्लिम औरत से शादी करने वाले पति को यह नाम गवारा हो सकता है ? रचना अंत में एक स्टेटमेंट सी बनकर रह गई जो कम से कम मुझे प्रभावित नहीं कर पाई भाई हरिप्रकाश दुबे जी।
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी, आप लघुकथा में जो कहना चाह रहे हैं वह तरीके से प्रस्तुत नहीं हो सकी है, मुझे नहीं लगता कि कोई पुलिस गाड़ी रोकने के साथ धर्म पूछेगा हां यदि वो धर्म जानना भी चाहेगा तो सीधे ड्राइविंग लाइसेंस मांगेगा. कटुआ तिवारी नाम मुझे नहीं लगता की कोई हिन्दू बाप या मुश्लिम माँ अपने बच्चों का रखेगी.
यह जरुर है कि आपकी प्रस्तुति आश्वश्त करती है कि आप लघुकथा लिखने की दिशा में सार्थक कदम बढ़ा चुकें हैं. बधाई आदरणीय.
आदरणीय हरि प्रकाश जी,
भले ही ये कहा जाये... नाम में क्या रखा है. लेकिन नाम के कारण ही आपकी पहचान होती है, और इस घालमेल वाली पहचान के साथ इस लघु कथा को सुन्दर बिम्ब दिया है.
सादर.
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