आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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बदलती तस्वीर
बेटे ने पिता के हाथ से बैग झटके से छीन दूर फेंक दिया ।
" कहीं नहीं जाना है ! "
" मुझे रोकेगा ? तेरी इतनी हिम्मत ! "
" हिम्मत तो बहुत है , कहिये तो दिखाता हूँ ? "
" गया जी जा रहा हूँ ,धर्म -कर्म करने , क्या तू मुझे अब धर्म करने से भी रोकेगा ? "
" धर्म -करम... ! .... हुंह ! ....... आप वसीयत बदलने के फ़िराक में हो , मैं सब जानता हूँ , धर्म -करम गया अब तेल लेने "
" कैसे रोकेगा बता ? " भृकुटि तान ली उन्होंने .
" ऐसे ! " झपट कर उसने पिता की गर्दन दबोच ली ।
"अब से इस कमरे के बाहर जो कदम भी रखे तो .....ये देख रहे हैं मिटटी के तेल से भरा हुआ कुप्पा ..... ! " सुनते ही बूढ़े के पूरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी।
जब से घर - जायदाद इस निकम्मे के नाम किया है , लगता है जैसे खुद को मारने का लाईसेंस दे दिया है ।
अब वसीयत बदलना क्या आसान होगा ...... ! इसी मनहूस लम्हें के लिए यह पूत पैदा किया था , सोचता हुआ क्रोध को धैर्य के नाम पर पी गया ।
बाहर गाड़ी रूकने की आवाज़ से उसके कान खड़े हो गये ,
" कहाँ है तेरा बाप , जरा सामने बुला कर तो ला " धम्म से कुछ लोग बाहर दरवाजे से अन्दर आये ।
जानी -पहचानी आवाज सुन वह कमरे से निकला , " मोs.....! " अपनी आँखों पर एक बार तो भरोसा ही नहीं हुआ ।
" मोहरसिंह .... अरे मोहरा तू ! " लंगोटिया यार को सामने पा वह हुलस कर गले लग गया । बचपन की बहुत सारी बातें याद आई ।
कसाई बने बेटे के चेहरे पर पल -भर में कई रंग आये और गये । उसके चेहरे पर छाई कठोरता , अब मुलायम सी हो गई ।
सदाचार और शिष्टाचार नें अपना रूप पैरों पर झुक कर दिखाया ।
"इधर कैसे ........ ? इतने सालों बाद खबर - सुधि लेने आया " बुढा चकित था वर्षों बाद इस तरह उसके आने से ।
मोहरसिंह की जागिरी किसी से छिपी नहीं थी । दो लट्ठबाज हमेशा उसके साथ ही रहते थे ।
वहीं कोने में पास खड़ा बेटा पिटारी के साँप सा सिकुड़ा - सिकुड़ा ..... पिता की आज्ञा पाने के लिए तत्पर श्रवणकुमार बन हाथ जोड़े खड़ा था ।
" यहीं पास में भटठे पर आया था तो किसी ने तेरे हालातों के बारे में बताया तो..............! तू कहे तो इनमें से एक को तेरी सेवा में छोड़ जाऊं "
" क्यों छोड़ जाएगा , निपूता थोड़े हूँ जो मेरा देख-भाल करने के लिए तू अपना आदमी छोड़ जाएगा " बुड्ढा छाती फुला कर ....अपने अंश , अपने पौरुष अपने जवान बेटे को नज़र उठा कर देखते हुए बोला ।
मौलिक और अप्रकाशित
आदरणीया कांता जी बढ़िया प्रस्तुति से आयोजन का फीता काटने के लिए हार्दिक बधाई. पुनः उपस्थित होता हूँ. सादर
कांता जी फ़िता कातने के लिए हार्दिक बधाई. बेटे के बदलते व्यवहार के कई रंगो की सुंदर तस्वीर पेश की आपने.पुन: बधाई
आदरणीय कान्ता जी ,आयोजन का श्री गणेश करने के लिए हार्दिक बधाई ।उम्दा बात कही हैं आपने रचना की माध्यम से चाहे अंश जो कर ले लेकिन पिता उसकी तस्वीर धूमिल नहीं होने देते।
आदरणीया कान्ता जी,
तस्वीर के बदलते रूख को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है. पुत्र और पिता दोनो ही आपने रुख और रुप को बदल कर तस्वीर को बदलने की कोशिश करते हैं. सुन्दर कथा.
सादर.
पूत कपूत हो सकता है माता पिता कभी भी किसी भी परिस्थिति में बच्चों को बुरा नहीं कहते तस्वीर के बदलते कई रंगों को सार्थक करती हुई आपकी ये लघु कथा बेहतरीन बनी है आ० कांता जी दिल से बधाई लीजिये और हाँ फीता काटने की बधाई अलग से |
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