आदरणीय साथिओ,
Tags:
Replies are closed for this discussion.
बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
आ० शुक्ल जी ----- क्या सचमुच यह कोई कथा है या सिर्फ मानसिक व्यायाम . कथाये आपने भी बहुत पढी होंगी . सादर .
मुह्तरम जनाब टी आर शुक्ल साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुंदर लघु कथा हुई है जिस
के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ---
आदरणीय समर कबीर जी , मैंने अपना मन्तब्य आदरणीय मिथिलेश जी की टीप के परिप्रेक्ष्य में वहां पर लिख दिया है कृपा कर वहां पर जाने का कष्ट करें। आपकी टिप्पणी में उर्दू भाषा के अनेक शब्द आये हैं जिन्हें मैं नहीं समझ पा रहा हूँ क्योकि मुझे उस भाषा का ज्ञान नहीं है। फिर भी भावार्थ के रूप में जितना समझ पाया हूँ उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि गुरुभक्ति हो तो आप जैसी।सादर ।
बहुत सारगर्भित आध्यात्म भाव से सुसज्जित लघु कथा हुई जिसके गूढ़ अर्थों को समझने में वक़्त तो लगा किन्तु बहुत अच्छी है जिसके लिए बहुत- बहुत बधाई आद० सुकुल जी |बस इतना जरूर कहना चाहूंगी की लघु कथा में जितनी सरल भाषा हो वो उतनी अधिक पाठकों को याद रहती है |
आदरणीया राजेश दीदी, इसे आध्यात्मिक चिंतन कहना उचित होगा. अभी इसे लघुकथा कहने का कच्चा माल जरूर कहा जा सकता है. इस प्रस्तुति को लघुकथा के शिल्प आधार पर प्रस्तुत किया जाता तो यह प्रस्तुति जटिल भी नहीं लगती और इसका प्रभाव भी दुगुना हो जाता. गूढ़ अर्थ को शब्द जाल में न उलझाया जाए तो बात सहजता से स्पष्ट हो जाती है. चूंकि आपने इसे लघुकथा कहा है इसलिए इतना निवेदन कर रहा हूँ. यदि इस विचार को लघुकथा की किसी भी शैली में प्रस्तुत किया जाता तो प्रस्तुति अधिक सम्प्रेषणीय नहीं हो जाती? उदाहरण के लिए यदि इस प्रस्तुति को कथोपकथन शैली में प्रस्तुत किया जाए. यथा -
प्रकृति और परम-पुरुष दिवकाल से साथ-साथ हैं किन्तु परम-पुरुष को इतना व्यथित इस काल से पूर्व कभी नहीं देखा था. अंततः प्रकृति ने पूछ ही लिया-
“हे परम-पुरुष! आप तो निर्गुण हैं फिर व्यथित क्यों?”
“एकमेव से अनेक होकर व्यथित हूँ।”
“किन्तु स्वयं आपने ही अपनी क्रियात्मक शक्ति से अपनी सगुणता को सृष्टि के रूप में असीमित आकार देकर ब्रम्हाण्ड रचा एवं सजीव-निर्जीव, समय व उर्जा को गतिशील कर ब्रह्मचक्र बना दिया है।”
“अवश्य मैंने किया है तथापि मेरी अपेक्षा यह भी थी कि मेरी ये सभी मानसिक तरंगें अपनी क्रमागत यात्रा करते हुए वापस मेरे पास ही आ जाएंगी किन्तु पृथ्वीवासी इन मनुष्यों ने तो मुझे बड़े ही असमंजस में डाल दिया है।”
“हे परम! कैसा असमंजस?”
“सभी मानव मेरे पास वापसी का मार्ग भूलकर, क्षुद्र कण धरती को ही सर्वसुखकारक और आनन्ददायक मान अपने को बना बैठे हैं स्वयंभू पृथक सम्राट। स्वार्थ, लोभ मोह जैसे कर्म से इस चक्र को पूर्ण ही नहीं होने दे रहे हैं।”
“आप तो सर्वशक्तिमान हैं आप इसे स्वयं समाप्त कर सकते हैं।”
“हे प्रकृति! यह इतना सहज नहीं है। नियम से बँधी मेरी विचार तरंगें जब तक सगुणता के सूक्ष्मतम भाग को भी उसके कर्मफल का भोग करा कर स्वच्छ नहीं हो जाती, मुझे विवश होकर इनका साक्षी बने रहना होगा।”
-------------------------
आदरणीया दीदी, चूंकि प्रस्तुति लम्बे-लम्बे वाक्यों और शब्दों के रख रखाव से असहज हुए वाक्य विन्यास के कारण जटिल लग रही है. आपने केवल प्रस्तुति के कथ्य को समझकर प्रतिक्रिया दी है मेरा निवेदन प्रस्तुति को लघुकथा कहने विषयक है. इसीलिए मैंने लघुकथा के कच्चे माल को लघुकथा में ढालने का प्रयास किया है. सादर
मैं आपसे व योगराज जी की बात से बिलकुल सहमत हूँ मिथिलेश भैया आध्यात्मिकता के साथ गूढ़ शब्द विन्यास के जाल में फँस कर रह गई आद० सुकुल जी की रचना लघु कथा की कसौटी पर अभी खरी नहीं उतरती .उन्ही के भाव को बरकरार रखते हुए जो आपने लघु कथा की संरचना की है इसे पढ़कर शायद आद० सुकुल जी समझ जाएँ कि हम किस दिशा में बात कर रहे हैं | वाह्ह्हह्ह बहुत बहुत बधाई देती हूँ आपके इस प्रयास पर बहुत शानदार लिखा |
आदरणीया राजेश दीदी, आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. हार्दिक आभार आपका. सादर
लघु कथा (बर्बाद मुहब्बत )
--------------------------------
राधा के माता पिता आज बहुत ही खुश नज़र आरहे हैं | जिस लड़के के साथ राधा की
मँगनी हो रही है वो विदेश में नौकरी करता है |राधा का पड़ोसी श्याम भी काम में हाथ बँटा
रहा है और सोच रहा है कि एक वक़्त था जब वो और राधा साथ साथ पढ़ते थे ,खेलते थे
और धीरे धीरे यह सिलसिला प्यार तक पहुँच गया मगर एक दूसरे से कहने की हिम्मत नहीं
कर सके | बे रोज़गार होने की वजह से शादी की बात कभी नहीं कर सका , मुहब्बत का
बनाया क़िला ख़याली क़िला बन कर रह गया | अचानक राधा के पिता ने श्याम को तसव्वुर
की दुनिया से बाहर निकालते हुए कहा " लड़के वाले आ गये ,उनका चलकर स्वागत करना है "
महमानो का स्वागत और नाश्ता करवाने के बाद राधा को दुल्हन की तरह सज़ा कर होने वाले
दूल्हा के सामने खड़ा कर दिया गया ,एक दूसरे को अंगूठी पहना कर मँगनी की रस्म पूरी की
गयी ,सारा घर तालियों की गड़गड़ाहट और मुबारकबाद की सदाओं से गूँज उठा ,मगर इस मंज़र
को देख पाना श्याम के लिए मुश्किल हो रहा था | वो ताली बजा रहा था मगर उसकी आँखें
राधा के चेहरे पर जमी हुई थी | उसके होंटो पर हँसी तो नज़र आ रही थी लेकिन आँखों में
नमी के रूप में ढहती मुहब्बत के क़िले का दर्द साफ नज़र आ रहा था --------
( मौलिक व अप्रकाशित )
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |