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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-148

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 148 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा जनाब मिर्ज़ा 'ग़ालिब' साहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |

'जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं'
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम


रदीफ़ :- देखते हैं

क़ाफ़िया:-(अम की तुक) सनम,हरम,करम, ग़म, नम,अलम आदि

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी | मुशायरे की शुरुआत दिनांक 28 अक्टूबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 29 अक्टूबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

राणा प्रताप सिंह 

(सदस्य प्रबंधन समूह)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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आ. रिचा जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई।

गुणीजनों के सुझाव से यह और निखर गयी है।

तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीया ऋचा जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।

आदरणीय ऋचा यादव साहिबा, सादर नमन। बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने, इस पर दाद और दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिये।

न सोचा किसी को है हासिल यहाँ क्या
जो हमको मिला वो ही हम देखते हैं....वाह !

आदरणीया ऋचा यादव जी सादर, बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है आपकी. बहुत-बहुत मुबारकबाद क़ुबुलें. सादर

आदरणीया ऋचा जी, अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें।

आदरणीया  रिचा जी अच्छी ग़ज़ल हुयी बधाई स्वीकारें ।

तुम्हें बे - कराँ  जब भी  हम देखते हैं
तभी अपनी  आँखों को नम देखते हैं

चलें तिफ़्ल मंज़िल की जब जुस्तजू में
नहीं  राह के  पेच- ओ- ख़म  देखते हैं

बनाते हैं अपना  तमाशा वो ख़ुद ही
यहाँ  आगे  पीछे जो  कम  देखते हैं

अलग ज़ाविए है ज़माने के अब तो
पड़ोसी  पड़ोसी  को  कम देखते है

न  बारिश न  तूफ़ान का ख़ौफ़ उनको
सितम में जो लुत्फ़-ओ-करम देखते हैं

ग़रीबों  के घर बे - सबब कोई आये
सियासत में  ऐसा  न हम  देखते हैं

चलें  तेज़   रफ़्तार  से जो सड़क पर
वे अक्सर ही राह -ए -अदम देखते हैं

तेरी मुस्कुराहट भरी इक नज़र पर
कई   लड़खड़ाते  क़दम   देखते हैं

मुबाइल में इतने हैं मसरूफ़ यारो
किसी को नहीं मुहतरम देखते हैं

करूँ ये दुआ वो न दुश्मन भी देखे
अज़ीज़ों से अपने जो हम देखते हैं

गिरह: -
उसी को समझते हैं हम अपनी मंज़िल
'जहाँ तेरा नक़्श - ए- क़दम देखते हैं'

(मौलिक व अप्रकाशित)

जनाब नाथ सोनांचली जी आदाब, तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही आपने, दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएँ I  

'अलग ज़ाविए है ज़माने के अब तो'--इस मिसरे में 'है' को "हैं" कर लें I 

आद0 समर साहिब सादर प्रणाम। आपकी ग़ज़ल पर उपस्थिति और प्रतिक्रिया से गदगद हूँ। मूल ग़ज़ल में सुधार कर लिया हूँ। आभार आपका

आदरणीय नाथ जी , नमस्कार

बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार कीजिये, गिरह भी ख़ूब

सादर

आद0 ऋचा यादव जी सादर अभिवादन। आभार आपका

आदरणीय भाई  नाथ सोनांचली जी
सादर अभिवादन
तरही मिसरे पर उम्दः ग़ज़ल कही आपने। शैर दर शैर बधाई स्वीकार करें।

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