यही है ख़ुदाई उसकी, छोटी सी ये इल्तजा,
जो कभी की थी उससे, पूरी वो न कर सका;
तेरे मेरे बीच हैं अब, मीलों के फ़ासले
कभी सामने थे तुम, आज हो गए परे
तेरे मेरे बीच…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 2, 2012 at 2:00pm — 21 Comments
मैं और मेरी कृत्य के बीच एक रिक्त सदा से
खुद से खुद को जकडे जंजीरों के शून्य हो जैसे
बंधे है एक दूसरे से बाहों में बाहें डाल कर
फिर भी एक बड़ा घेरा जो घिर न रहा हो जैसे
युग्म एकाकार हैं संभावनाएं भी अपरम्पार हैं
लग रहा फिर भी…
Added by Anand Vats on March 2, 2012 at 12:30pm — 8 Comments
हम लगायेंगे जबान पर मसाला नहीं,
अपनी गजलो में शऊर का ताला नहीं.
पैरवी उनके हसीन दर्द की क्या करें,
जिनको लगा धूप नहीं, पाला नहीं.…
Added by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 2, 2012 at 10:30am — 20 Comments
है प्रियवर, तुम कब आओगे भेजो तुम सन्देश
थक गई मोरी अँखियाँ अब तो भेजो तुम सन्देश
भेजो तुम सन्देश प्रिये तो झपकूँ अपने नैन
राह तकूँ मै हर आहट पे देखूँ द्वारे …
ContinueAdded by Monika Jain on March 1, 2012 at 11:30pm — 7 Comments
मैं तुझको आज बताता हूं, के कमी क्या है,
तू मुझको आज ये बता, के ज़िंदगी क्या है..
ये ऊंच-नींच, जात-पात, ये मज़हब क्यूँ हैं,
ये रंग-देश, बोल-चाल, बंटे सब क्यूँ हैं,
तू-ही हर चीज़, तो फिर पाक़-ओ-गंदगी क्या है..
किसी पत्थर को पूज-पूज, नाचना-गाना,
सुबह-ओ-शाम, तेरा नाम, लेके चिल्लाना,
तेरा यकीं या ढोंग, तेरी बंदगी क्या है..
किसी को देके चैन, दर्द में सुकूं पाना,
किसी को देके दर्द, ज़ुल्म करके…
Added by Aditya Singh on March 1, 2012 at 5:54pm — 8 Comments
शोख सी परी .
ज्यों बनी, खून सनी.
कोख में मरी.
( शोख = चंचल ; कोख = माँ का गर्भाशय / Uterus )
रचयिता : डा अजय कुमार शर्मा
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on March 1, 2012 at 4:08pm — 5 Comments
हर सुंदर
प्रभात वेला में
प्रतिदिन
मैं पाता हूँ
स्वयं को
सीलन भरी लकड़ी सा
जो चाहती है
सुलगना
और...
सुलगना भी
इस तरह की
उसमें होम हो जाए
सीलन .
सीलन अहम् की
बहुत सारे
भ्रम की
मेरी हमसफ़र !
आओ ...
पवित्र अग्नि में
प्यार की .
भस्म कर दें
सीलन
हृदयों के
संसार की .
.
.
करोगी स्वीकार ?
मेरा निमंत्रण !!
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on March 1, 2012 at 3:00pm — 8 Comments
सच्चाई को खोजने चला था,
झूठ ही झूट मिले,
मोहब्बत खोजने चला,
तो बेवफाई मिली,
जब खोजना छोड़ दिया,
तो तन्हाई मिली,
अब तो खुदी को खोजने चला हूँ ,
जो चाहा था बेवजह था
जो मिला है बेइंतहा है
यूही भटक रहा था
अब सकून ही सकून है |
Added by Sanjeev Kulshreshtha on March 1, 2012 at 1:00pm — 8 Comments
है अर्ज़ जो तेरी मैं दूँगी उसे सुना,
हौले से मेरे कान में कहती है ये सबा;
*
अल्फ़ाज़ बहुत आसमाने दिल पर उमड़ रहे हैं,
कोई नहीं बरसता मगर बनकर मेरी दुआ;…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 1, 2012 at 11:30am — 26 Comments
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