Added by sanjiv verma 'salil' on March 31, 2011 at 12:06pm — 3 Comments
Added by neeraj tripathi on March 26, 2011 at 3:25pm — 15 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on March 21, 2011 at 6:40pm — 7 Comments
Added by Abhinav Arun on March 20, 2011 at 6:30pm — 18 Comments
हर उर भरे रंग हर होली कर संग
(मधु गीति सं. १७३३, दि. २० मार्च, २०११)
हर उर भरे रंग, हर होली कर संग;…
ContinueAdded by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on March 20, 2011 at 1:49pm — 2 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on March 19, 2011 at 11:52pm — 2 Comments
'हंसी-ठिठोली', मस्तियों की "टोली"... करें 'अठखेली', बन "हमजोली"...
हर 'साल' की तरह... लो फिर आई "होली"... ... ...…
ContinueAdded by Julie on March 19, 2011 at 6:30pm — 9 Comments
Added by satish mapatpuri on March 19, 2011 at 2:46pm — 5 Comments
Added by Abhinav Arun on March 19, 2011 at 1:30pm — 3 Comments
Added by Rash Bihari Ravi on March 18, 2011 at 6:09pm — No Comments
Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on March 18, 2011 at 12:42pm — 4 Comments
इन अकेली वादियों में चले आये
(मधु गीति सं. १७१७, दि. १० मार्च, २०११)
इन अकेली वादियों में चले आये, भरा सुर आवादियों का छोड़ आये;
गान तुम निस्तब्धता का सुन हो पाये, तान नीरवता की तुम खोये सिहाये.…
ContinueAdded by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on March 17, 2011 at 1:06pm — 2 Comments
OBO पर आकर बहुत अच्छा लगा. यहाँ पर एक से एक उस्ताद शायर और कवियों की रचनाएं पढ़कर आनंद आ गया.
अपनी एक नयी ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ, आप सब से मार्गदर्शन की आशा है.
अँधेरा है नुमायाँ बस्तियों में
उजाले कैद हैं कुछ मुट्ठियों में
ये पीकर तेल भी, जलते नहीं हैं…
Added by Saahil on March 16, 2011 at 8:07pm — 11 Comments
Added by Abhinav Arun on March 13, 2011 at 1:30pm — 6 Comments
Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on March 11, 2011 at 12:00am — 6 Comments
हर अँधेरा ठगा नहीं करता
हर उजाला वफा नहीं करता
देख बच्चा भी ले ग्रहण में तो
सूर्य उसपर दया नहीं करता
चाँद सूरज का मैल भी ना हो
फिर भी तम से दगा नहीं करता
बावफा है जो देश खाता है
बेवफा है जो क्या नहीं करता
गल रही कोढ़ से सियासत है
कोइ अब भी दवा नहीं करता
प्यार खींचे इसे समंदर का
नीर यूँ ही बहा नहीं करता
झूठ साबित हुई कहावत ये
श्वान को घी पचा नहीं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 8, 2011 at 11:30pm — 6 Comments
Added by Julie on March 8, 2011 at 8:38pm — 9 Comments
दिन-प्रतिदिन स्वयं में ही ध्वस्त हो
विच्छेद हो कण-कण में बिखर जाती हूँ
आहत मन,थका तन समेटे दुःसाध्यता से…
ContinueAdded by Venus on March 8, 2011 at 5:30pm — 3 Comments
Added by दुष्यंत सेवक on March 8, 2011 at 12:00pm — 5 Comments
Added by neeraj tripathi on March 7, 2011 at 5:48pm — 12 Comments
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