क्यों हम लौट चलें !
कि चाहत देख कर हमारी ज़माना जलता है ,
कि घर बहार हर दम कोई फ़साना पलता है .
निगाहें घूम जाती हैं, तेरे साथ आने से
दीवारें सुन ही लेती हैं हमारे गुनगुनाने से
क्यों हम लौट चलें !
ये अंकुर है जो फूटा है, नहीं शुरुआत ये जाना
ये बढ़ते कदम तो बस एक परवाज़ है जाना .
ये दीपक है जो लड़ता है , तूफां में अँधेरे में,
ये जुगनू चमकेगा फिर से, अंधियारे घनेरे में
क्यों हम लौट चलें !
ये मंजिल बन चुकी है…
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on March 31, 2012 at 4:54pm — 1 Comment
गीतों से दिल की बातें, कैसे तुम्हें सुनाऊं .
बेबस नयन की बोली, कैसे तुम्हें दिखाऊ.
दिल कुमुदनी सा देखो, प्रियतम मेरी तुम्हारा ,
चन्द्र चन्द्रिका से दिल की, कैसे इसे खिलाऊं .
दर्पण से दिल में जो भी ,संजोये तुमनें सपने ,
दर्पण में अक्स दिल का , कैसे तुम्हें दिखाऊ.
काज़ल ने है बचाया, नज़र से ज़माने की ,
वो ख्वाब तुम्हारे हैं, ज़माने से मैं छिपाऊं .
ऋतु बसंत पतझड़ पर, छा गयी गुलिस्ताँ में,
मैं खिल उठा…
ContinueAdded by Dr Ajay Kumar Sharma on March 22, 2012 at 4:36pm — 8 Comments
मृगनयनी नवयौवना
लावण्य क्या कहना !
संकोच व लज्जा
बनी सुसज्जा.
सप्त-अंगुल भर
कटी प्रदेश कमाल.
ओ गजगामिनी
तेरी मदमस्त चाल.
अर्ध- पारदर्शी वस्त्र में कैद
अंग -प्रत्यंग में
लाती भूचाल,
तिर्यक दृष्टीपात
करती हृदय अघात
नारी सौंदर्य .
निहारते चक्षु.
अट्टालिकाओं से
चतुष्पथ पर...
रचयिता : डा अजय कुमार शर्मा ( सौंदर्य रस पूर्ण बिम्ब )
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on March 15, 2012 at 11:45am — 7 Comments
.
मैं
और
तन्हाई
लड़ते रहते हैं
कभी बिखरते
कभी संवरते
रहते हैं.
ओ तन्हाई !
तुम क्यों
दुःख -पीड़ा को
रखती हो अपने साथ
फिरती हो यहाँ वहां
लिये हाथों में हाथ .
तन्हाई मुस्काई
कुछ इठलाई
बोली ...
बचपन की यादें
मोहब्बत के बातें
कहानी कहती नानी
रिमझिम बरसता पानी
पहली मुलाकात
महबूब की बात
उनका इतराना
रूठना मनाना
सब के…
ContinueAdded by Dr Ajay Kumar Sharma on March 14, 2012 at 11:57am — 6 Comments
मैनें कहा
कुछ और नहीं
सिर्फ वो ही
जो युगों से
सहा था...
सहा था फूलों नें
ख्वाबों में लहराते
सावन के झूलों नें
उन शब्दों नें
जो आ न पाए
लबों पर तुम्हारे ही
ज़ुल्मों से ...
सहा था उस प्यासे नें...
जो दम तोड़ गया
समंदर में रह कर
पर छू न पाया
पानी को जुबान से कभी.
सहा था उन पलकों नें...
जो युगों से भरी हैं
अनमोल मोतियों से
आतुर हैं
छलकने को
पर…
ContinueAdded by Dr Ajay Kumar Sharma on March 12, 2012 at 11:30pm — 6 Comments
1.
प्रकृति प्यारी
रुई बिछी धरती
ये बर्फ़बारी .
२.
मुखौटे छाए
जनमानस लुटा
चुनाव आये .
३.
उड़ते गिद्ध
फिर मारा आदमी
लो आया युद्ध .
४.
ये दुपहरी
अलसाया शरीर
जेठ का माह .
रचयिता : डा अजय कुमार शर्मा
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on March 2, 2012 at 5:26pm — 6 Comments
शोख सी परी .
ज्यों बनी, खून सनी.
कोख में मरी.
( शोख = चंचल ; कोख = माँ का गर्भाशय / Uterus )
रचयिता : डा अजय कुमार शर्मा
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on March 1, 2012 at 4:08pm — 5 Comments
हर सुंदर
प्रभात वेला में
प्रतिदिन
मैं पाता हूँ
स्वयं को
सीलन भरी लकड़ी सा
जो चाहती है
सुलगना
और...
सुलगना भी
इस तरह की
उसमें होम हो जाए
सीलन .
सीलन अहम् की
बहुत सारे
भ्रम की
मेरी हमसफ़र !
आओ ...
पवित्र अग्नि में
प्यार की .
भस्म कर दें
सीलन
हृदयों के
संसार की .
.
.
करोगी स्वीकार ?
मेरा निमंत्रण !!
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on March 1, 2012 at 3:00pm — 8 Comments
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