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Anwar suhail's Blog – March 2013 Archive (7)

मांगना

किसी से

कुछ भी माँगना

मुझे लगता है

बहुत बुरा...



कुछ भी मांगने से पहले

करना पड़ता है अभ्यास

कैसे हुआ जाएगा प्रस्तुत

देने वाले के सामने

समय कौन सा उचित हो

जब दाता का मूड ठीक हो

किस अंदाज़ में माँगा जाए

भाषा कैसी हो

कि पिघल जाए दाता...



मांगने का अर्थ है

कि गिरवी रख दिया जाए

अपना समूचा अस्तित्व

साथ ही मन में

रहा आये संशय

कि मांगने पर भी

कुछ न मिले तब....?



बड़ी शर्मिंदगी भर देता… Continue

Added by anwar suhail on March 29, 2013 at 8:59pm — 13 Comments

नरकवासी

हमने चुना

अपने लिए

एक नर्क

या धकेल दिया था तुमने

हमें नर्क में...

कोई फर्क नहीं पड़ता...

 

नर्क

भले ही जैसा था

हमने उसमें बसने का

बना लिया मन

और ठुकरा दिया

तुम्हारे स्वर्ग को

उन लुभावने सपनो को

जिसे दिखलाते रहे तुम

और तुम्हारे दलाल…

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Added by anwar suhail on March 27, 2013 at 7:52pm — 4 Comments

कैसे चले जांगर

थका तन

थका मन

कैसे चले जांगर

क्या जा पाएंगे घर ?

 

हुक्म देने वाले 

ठाने बैठे हैं जिद

एक काम होता नही खत्म

कि दूजे का हुक्म मिल जाता..

 

पंछी भी लौट आते

घर अपने

नियत समय पर

लेकिन हम पंछी नहीं

 

सूरज भी छिप जाता

क्षितिज पार

नियत समय पर

लेकिन हम सूरज नही

 

तो क्या हम समंदर की लहरें हैं

जो दिन-रात अनथक

आ-आकर टकराती रहतीं किनारों पर

और…

Continue

Added by anwar suhail on March 16, 2013 at 9:00pm — No Comments

टूथ-पेस्ट की ट्यूब

टूथ-पेस्ट की ट्यूब

 

और एक दिन ऐसा भी आता है

खूब खूब दबाने से निकलता

चने के दाने बराबर

इत्ता सा टूथ-पेस्ट...

कि बने झाग थोडा सा

मुंह की बदबू दूर हो जाए

मुहलत मिले इतनी कि

शाम खदान से लौटते वक्त

ज़रूर खरीद लाना है

एक नया टूथ-पेस्ट...

 

अगली सुबह

हड़बड़ी में

वाश बेसिन के सामने

ब्रुश उठाते ही हाथ में

दिख जाता वही

पिचका

चिपटा

तुडा-मुडा टूथपेस्ट

मुंह…

Continue

Added by anwar suhail on March 13, 2013 at 9:31pm — 4 Comments

समीक्षा उपन्यास पहचान

समीक्षा: उपन्यास ‘पहचान’

जद्दोजहद पहचान पाने की

-जाहिद खान

किसी भी समाज को गर अच्छी तरह से जानना-पहचाना है, तो साहित्य एक बड़ा माध्यम हो सकता है। साहित्य में जिस तरह से समाज की सूक्ष्म विवेचना होती है, वैसी विवेचना समाजशास्त्रीय अध्ययनों में भी मिलना नामुमकिन है। कोई उपन्यास, कहानी या फिर आत्मकथ्य जिस सहजता और सरलता…

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Added by anwar suhail on March 12, 2013 at 9:00pm — 1 Comment

ज़रूरी नहीं...

ज़रूरी नहीं

कि हम पीटें ढिंढोरा

कि हम अच्छे दोस्त हैं

कि हमें आपस में प्यार है

कि हम पडोसी भी हैं

कि हमारे साझा रस्मो-रिवाज़ हैं

कि हमारी मिली-जुली विरासतें हैं

कतई ज़रूरी नहीं है ये

कि हम दुनिया के सामने

अपने प्यार का इज़हार करें

क्योंकि जब दोस्ती टूटती है

जब प्यार नफरत में बदलता है

तब रिश्तों में खटास आती है

तब दिल टूट जाते हैं

तब अकबका जाते हैं वे लोग

जिनके दिल मोम हैं

जो…

Continue

Added by anwar suhail on March 10, 2013 at 7:24pm — 8 Comments

आतंकवादी

जाने क्यों आजकल

जब भी

देखता / सुनता हूँ ख़बरें

तो धड़कते दिल से

यही सुनना चाहता हूँ

न हो किसी आतंकी घटना में

किसी मुसलमान का हाथ...

 

अभी जांच कार्यवाही हो रही होती है

कि आनन्-फानन

टी वी करने लगता घोषणाएं

कि फलां ब्लास्ट के पीछे है

मुस्लिम आतंकवादी संगठन...

 

बड़ी शर्मिंदगी होती है

बड़ी तकलीफ होती है

कि मैं भी तो एक मुसलमान हूँ

कि मेरे जैसे

अमन-पसंद मुसलमानों के बारे…

Continue

Added by anwar suhail on March 8, 2013 at 9:11pm — 11 Comments

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