मोहब्बत ...
गलत है कि
हो जाता है
सब कुछ फ़ना
जब ज़िस्म
ख़ाक नशीं
हो जाता है
रूहों के शहर में
नग़्मगी आरज़ूओं की
बिखरी होती
ज़िस्म सोता है मगर
उल्फ़त में बैचैन
रूह कहाँ सोती है
मेरे नदीम
न मैं वहम हूँ
न तुम वहम…
Added by Sushil Sarna on April 25, 2018 at 7:16pm — 10 Comments
चाँद बन जाऊंगी ..
कितनी नादान हूँ मैं
निश्चिंत हो गई
अपनी सारी
तरल व्यथा
झील में तैरते
चाँद को सौंपकर
हर लम्हा जो
एक शिला लेख सा
मेरे अवचेतन में
अंगार सा जीवित था
निश्चिंत हो गई
उसे
झील में तैरते
चाँद को सौंपकर
उम्र कैसे फिसल गई
अपने तकिये पर
तुम्हारी गंध को
सहेजते -सहेजते
कुछ पता न चला
निश्चिंत हो गई
अपनी चेतना के जंगल में व्याप्त …
Added by Sushil Sarna on April 23, 2018 at 11:30am — 10 Comments
निष्कलंक कृति .....
अवरुद्ध था
हर रास्ता
जीवन तटों पर
शून्यता से लिपटी
मृत मानवीय संवेदनाओं की
क्षत-विक्षत लाशों को लांघ कर
इंसानी दरिंदों के
वहशी नाखूनों से नोची गयी
अबोध बच्चियों की चीखों से
साक्षात्कार करने का
रक्त रंजित कर दिए थे
वासना की नदी ने
अबोध किलकारियों को दुलारने वाले
पावन रिश्तों के किनारे
किंकर्तव्यमूढ़ थी
शुष्क नयन तटों से
रिश्तों की
टूटी किर्चियों की
चुभन…
Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 4:25pm — 8 Comments
क्षणिकाएं ....
१.
खेल रही थी
सूर्य रश्मियाँ
घास पर गिरी
ओस की बूंदों से
वो क्या जानें
ये ओस तो
आंसू हैं
वियोगी
चाँद के
....................
२.
जीवन
मिटने के बाद भी
ज़िंदा रहता है
स्मृति के गर्भ में
अवशेष बन
श्वासों का
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 12:16pm — 6 Comments
इन्तिजार ....
दफ़्न कर दिए
सारे जलजले
दर्द के
इश्क़ की
किताब में
ढूंढती रही
कभी
ख़ुद में तुझको
कभी
ख़ुद में ख़ुद को
मगर
तू था कि बैठा रहा
चश्म-ए -साहिल पर
इक अजनबी बन के
मैं
तैरती रही
एक ख़्वाब सी
तेरे
इश्क़ की
किताब में
राह-ए-उल्फ़त में
दिल को
अजीब सी सौग़ात मिली
स्याह ख़्वाब मिले
मुंतज़िर सी रात मिली
यादों के सैलाब मिले
चश्म को बरसात…
Added by Sushil Sarna on April 18, 2018 at 12:30pm — 7 Comments
प्रपात.....
मौन
बोलता रहा
शोर
खामोश रहा
भाव
अबोध से
बालू रेत में
घर बनाते रहे
न तुम पढ़ सकी
न मैं पढ़ सका
भाषा
प्रणय स्पंदनों की
आँखों में
भला पढ़ते भी कैसे
ये शहर तो
आंसूओं का था
घरोंदा
रेत का
ढह गया
भावों को समेटे
आँसुओं के
प्रपात से
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 17, 2018 at 11:41am — 10 Comments
मैं सजनी उसकी हो गयी .....
निष्पंद देह में
जाने कैसे
सिहरन सी हो गई
सानिध्य में लिप्त श्वासें
अबोध स्पर्शों की
सहचरी हो गयीं
बर्फ़ीले आलिंगन
मासूम समर्पण से
चरम की ओर
बढ़ने लगे
तृप्ति की
अतृप्ति से होड़ हो गई
शोर थम गया
सभी प्रश्न
अपने चिन्हों के घरोंदों में
सो गए
लक्ष्य
स्वप्न मग्न हो गए
असंभव
संभव हो गया
भाव वेग
तरल हो…
Added by Sushil Sarna on April 16, 2018 at 2:53pm — 8 Comments
जीवन .....क्षणिकाएं :....
1.
सूरज
सागर की लहरों पर
तैरती
अपनी रश्मियों के ढेर को
काटता-छाँटता रहा
ताकि
मिल सके
रोशनी
हर किसी को
हर किसी के
नसीब की
.... .... .... .... .... ....
2.
देखा जो
आसमाँ से
उतरते हुए
लाल सूरज को
सागर के आँगन में
घबरा गया
मयंक
कि कहीं
सागर वीचियों पर
उसका अस्तित्व
मेरे अस्तित्व का
हरण न करले
..... .... ....…
Added by Sushil Sarna on April 12, 2018 at 2:00pm — 7 Comments
आज फिर ....
नहीं जला
चूल्हा
उसके घर
आज फिर
घर से निकला
उदासी में लिपटा
काम की तलाश में
एक साया
आज फिर
लौट आया
रोज की तरह
खाली हाथ
आज फिर
पेट में
क्षुधा की ज्वाला
सड़क पर
काम की ज्वाला
नौकरियों में
आरक्षण की ज्वाला
ज्ञान गौण
प्रश्न मौन
उलझन ही उलझन
माथे पर
चिंताओं को समेंटे
यथार्थ से निराकृत
खाली हाथ
लौट आया
आज…
Added by Sushil Sarna on April 10, 2018 at 8:13pm — 10 Comments
चंद हायकू ....
आँखों की भाषा
अतृप्त अभिलाषा
सूनी चादर
सूनी आँखें
वेदना का सागर
बहते आंसू
साँसों की माया
मरघट की छाया
जर्जर काया
टूटे बंधन
देह अभिनन्दन
व्यर्थ क्रंदन
बाहों का घेरा
विलय का मंज़र
चुप अँधेरा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 9:08pm — 6 Comments
रेगिस्तान में ......
तृषा
अतृप्त
तपन का
तांडव
पानी
मरीचिका सा
क्या जीवन
रेगिस्तान में
ऐसा ही होता है ?
हरियाली
गौण
बचपन
मौन
माँ
बेबस
न चूल्हा , न आटा ,न दूध
भूख़
लाचार
क्या जीवन
रेगिस्तान में
ऐसा ही होता है ?
पेट की आग
भूख का राग
मिटी अभिलाषा
व्यथित अनुराग
पीर ही पीर
नयनों में नीर
सूखी नदिया
सूने तीर
खाली मटके…
Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 1:22pm — 11 Comments
यथार्थ ....
कुछ पीले थे
कुछ क्षत-विक्षत थे
कुछ अपने शैशव काल में थे
फिर भी उनका
शाखाओं का साथ छूट गया
धरा पर पड़े
इन पत्तों की बेबसी पर
हवा कहकहे लगा रही थी
जिसके फैले बाज़ुओं पर
निश्चिंत रहा करते थे
उम्र के पड़ाव पर
उन्हीं बाजुओं से
साथ छूटता चला गया
अब उनका बाबा
एक कंकाल मात्र ही तो था
पीले पत्ते बात को समझते थे
कभी -कभी हवा के बहकावे में
इधर -उधर हो जाते थे
लेकिन…
Added by Sushil Sarna on April 3, 2018 at 6:17pm — 7 Comments
Added by Sushil Sarna on April 1, 2018 at 1:05pm — 9 Comments
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