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Sushil Sarna's Blog – October 2018 Archive (11)

कसमों की डोरी ....

कसमों की डोरी ....

चलो

कोशिश करते हैं

जीवन को

कसमों की डोरी में

रस्मों की गंध से

अलंकृत कर दें

चलो

कोशिश करते हैं

हिना के रंग को

स्नेह अभिव्यक्ति के

अनमोल पलों से

अमर कर दें

चलो

कोशिश करते हैं

अपरिचिति श्वासों को

हवन कुंड की अग्नि के समक्ष

एक दूजे में समाहित कर

सृष्टि की पावनता को

श्रृंगारित कर दें

चलो

कोशिश करते हैं

लकीरों में छुपे

अपने…

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Added by Sushil Sarna on October 29, 2018 at 7:44pm — 10 Comments

2 क्षणिकाएं - शान्ति/होड़

शान्ति :

बहुत आज़मा लिया
शान्ति के लिए
युद्ध को
एक बार तो
प्यार को भी
आज़माया होता
शान्ति के लिए

...............................

होड़ ... 

बारूद के धुऐं में
झुलस गई
ज़िंदगी
सो गए
सीमाओं पर
गोलियों के बिछौने पर
खामोशियों का
कफ़न ओढ़े
पथराये से
खामोश रिश्ते
जाने क्या पाने की होड़ में
सीमा पर

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 29, 2018 at 4:34pm — 12 Comments

ज़िंदगी..............

ज़िंदगी   .... 

तुम आईं
तो संवरने लगी
ज़िंदगी


साथ जीने
और मरने के
अर्थ
बदलने लगी
ज़िंदगी


मौसम बदला
श्वासें बदलीं
अभिव्यक्ति की साँझ में
बिखरने लगी
ज़िंदगी


प्रतीक्षा
मौन हुई
शब्द शून्य हुए
चुपके-चुपके
स्मृति के परिधान में
सिमटने लगी
ज़िंदगी


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 27, 2018 at 4:00pm — 8 Comments

मानव छंद में प्रयास :

मानव छंद में प्रयास :

मेरे मन को जान गयी ।

फिर भी वो अनजान भयी।।

शीत रैन में पवन चले।

प्रेम अगन में बदन जले।।

..................................

देह श्वास की दासी है।

अंतर्घट तक प्यासी है।।

मौत एक सच्चाई है।

जीवन तो अनुयायी है ।।

................................

रैना तुम सँग बीत गई।

मैं समझी मैं जीत गई।।

अब अधरों की बारी है।

तृप्ति तृषा से हारी है।।

सुशील सरना

मौलिक एवं…

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Added by Sushil Sarna on October 23, 2018 at 8:30pm — 6 Comments

नए आयाम ....

नए आयाम ....

मुझे

नहीं सुननी

कोई आवाज़

मैंने अपने अन्तस् से

हर आवाज़ के साथ जुड़े हुए

अपनेपन की अनुभूति को

तम की काली कोठरी में

दफ़्न कर दिया है

अपनेपन का बोध

कब का मिटा दिया है

अपनेपन की सारी निधियाँ

लुटा चुका हूँ

अब तो मैं

किसी स्मृति का अवशेष हूँ

आवाज़ों के मोह बंधन में

मुझे मत बाँधो

हम दोनों के मन

एक दूसरे की अनुभूतियों के

अव्यक्त स्वरों से

गुंजित हैं

आवाज़ों को चिल्लाने दो…

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Added by Sushil Sarna on October 22, 2018 at 7:42pm — 6 Comments

रावण :

रावण :

एक रावण
जला दिया
राम ने
एक रावण
ज़िंदा रहा
मन में
किसी
राम के इंतज़ार में

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 19, 2018 at 9:24pm — 1 Comment

अनकहा ...

अनकहा ...

अभिव्यक्ति के सुरों में

कुछ तो अनकहा रहने तो

अंतस के हर भाव को

शब्दों पर आश्रित मत करो

अंतस से अभिव्यक्ति का सफर

बहुत लम्बा होता है

अक्सर इस सफ़र में

शब्द

अपना अर्थ बदल देते हैं

शब्दों अवगुंठन में

अभिव्यक्ति

मात्र मूक व्यथा का

प्रतिबिम्ब बन जाती है

भावों की घुटन

मन कंदराओं में

घुट के रह जाती है

जीने के लिए

कुछ तो शेष रहने दो

अभिव्यक्ति के गर्भ में

कुछ तो…

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Added by Sushil Sarna on October 17, 2018 at 6:30pm — 6 Comments

पागल मन ..... (400 वीं कृति )

पागल मन ..... (400 वीं कृति )

एक

लम्बे अंतराल के बाद

एक परिचित आभास

अजनबी अहसास

अंतस के पृष्ठों पे

जवाबों में उलझा

प्रश्नों का मेला

एकाकार के बाद भी

क्यूँ रहता है

आखिर

ये

पागल मन

अकेला

तुम भी न छुपा सकी

मैं भी न छुपा सका

हृदय प्रीत के

अनबोले से शब्द

स्मृतियाँ

नैन घनों से

तरल हो

अवसन्न से अधरों पर

क्या रुकी कि

मधुपल का हर पल

जीवित हो उठा

मन हस पड़ा…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 15, 2018 at 7:48pm — 14 Comments

३ क्षणिकाएं....

३ क्षणिकाएं....

भावनाओं की घास पर

ओस की बूंदें

रोती रही

शायद

बादलों को ओढ़कर

रात भर

चांदनी

... ... ... ... ... ... .

गोद दिया

सुबह की ओस ने

गुलाब को

महक

तड़पती रही

अहसासों के बियाबाँ में

यादों की नोकों पर

... ... ... .. .. .. .. . .

आकाश

ज़िंदगी भर

इंसान को

छत का सुकून देता रहा

उसे

धूप दी, पानी दिया ,

ईश के होने का

अहसास दिया

मगर

वह रे इंसान

आया जो…

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Added by Sushil Sarna on October 8, 2018 at 7:07pm — 18 Comments

अजनबी लगता है ... ...

अजनबी लगता है ... ...

न वज़ह पूछी

न मौका मिला

वक्त सरकता रहा

कोई अपना

हर लम्हा

अजनबी लगता रहा

किसे आवाज़ दूँ

तारीकियों की क़बा में

उजालों को ओढ़ कर

खो गयी कोई तलाश

टूट गया

उसके साये होने का भ्रम

बावज़ूद ज़िस्मानी करीबी के

वो हर नफ़स

जाने क्यूँ

अजनबी लगता रहा

झूठ है

वो अजनबी है

मेरी तिश्नगी का

समंदर है वो

मेरे हर ख्वाब का

मंज़र है वो

मेरे ज़ह्न में सदियों से…

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Added by Sushil Sarna on October 5, 2018 at 6:07pm — 7 Comments

बेज़ुबान पहचान ...

बेज़ुबान पहचान ...

कितनी खामोशी होती है
कब्रिस्तान में
जिस्मों की मानिंद
कब्रों पर लिखे नाम भी
वक्त के थपेड़ों से
धीरे -धीरे
सुपुर्द-ए-ख़ाक हो जाते हैं


रह जाती है
कब्रों पर
उगी घास के नीचे
ख़ामोशी की कबा में सोयी
अपने -पराये रिश्तों की
बेज़ुबान पहचान

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 3, 2018 at 4:00pm — 10 Comments

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