चाँद सितारों से लड़ना आसान नहीं
क्या होगा अब हश्र कोई अनुमान नहीं
वक़्त निभाएगा अपना दायित्व "अजय "
मेरे हांथों में अब कोई सामान नहीं................
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जो बांटा करता है सबको जीवन रस ,
पीने को बस गरल मिला केवल उसको
जो पथ पर तेरे फूलों का बना बिछौना ,
काँटों का इक सेज मिला केवल उसको
कैसी हैं हम सन्तति , हम पूत कहा के ,
बचा सके इक जननी का सममान नहीं
वक़्त निभाएगा अपना दायित्व "अजय "
मेरे हांथों में अब कोई सामान नहीं…
Added by ajay sharma on December 31, 2012 at 12:30am — 4 Comments
मैं हूँ बंदी बिन्दु परिधि का, तुम रेखा मनमानी |
मैं ठहरा पोखर का जल, तुम हो गंगा का पानी ||
मैं जीवन की कथा-व्यथा का नीरस सा गद्यांश कोई इक |
तुम छंदों में लिखी गयी कविता का हो रूपांश कोई इक |
मैं स्वांसों का निहित स्वार्थ हूँ , तुम हो जीवन की मानी ||
धूप छाँव में पला बढा मैं विषम्तायों का हूँ सहवासी |
तुम महलों के मध्य पली हो ऐश्वर्यों की हो अभ्यासी |
मैं आँखों का खारा संचय , तुम हो वर्षा अभिमानी ||
विपदायों, संत्रासों से मेरा अटूट अनुबंध रहा…
ContinueAdded by ajay sharma on December 27, 2012 at 10:30pm — 4 Comments
बदल गयी नीयति दर्पण की चेहेरो को अपमान मिले हैं !
निष्ठायों को वर्तमान में नित ऐसे अवसान मिले हैं !!
शहरों को रोशन कर डाला गावों में भर कर अंधियारे !
परिवर्तन की मनमानी में पनघट लहूलूहान मिले हैं !!
चाह कैक्टसी नागफनी के शौक़ जहाँ पलते हों केवल
ऐसे आँगन में तुलसी को जीवन के वरदान मिले हैं !!
भाग दौड़ के इस जीवन में , मतले बदल गए गज़लों के
केवल शो केसों में सजते ग़ालिब के दीवान मिले हैं !!
गीत ग़ज़ल की देह तौलते अक्सर सुनने वाले देखा !…
Added by ajay sharma on December 24, 2012 at 11:00pm — 4 Comments
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
सूरज की आँखों में कोहरे की चुभन रही
धुप के पैरो में मेहंदी की थूपन रही
शर्माती शाम आई छल गयी बाजारों को
समझ गए रिक्शे भी भीड़…
Added by ajay sharma on December 22, 2012 at 10:30pm — 3 Comments
Added by ajay sharma on December 13, 2012 at 10:30pm — 5 Comments
Added by ajay sharma on December 13, 2012 at 10:00pm — 3 Comments
खुशियों ने ऊँचे दामों की , फिर पक्की दूकान लगायी
Added by ajay sharma on December 10, 2012 at 11:12pm — 6 Comments
थकी हुयी शतरंज का, मैं पिटा हुआ इक दांव हो गया
Added by ajay sharma on December 3, 2012 at 10:30pm — 1 Comment
पेट के कहने में फिर हम आ गए
पीठ पे ढ़ोने शहर , हम आ गए
माँ ,बहन , भाई , पिता रिश्तें सभी
छोड़ कर गाँव का घर हम आ गए -----------------
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ऑफिस का रिक्शा पापा का और मदिर वो घंटा - घंटी
अम्मा की हर बात रटी थी हमको बरसों पंक्ति पंक्ति …
Added by ajay sharma on December 3, 2012 at 9:30pm — 1 Comment
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