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Seema Singh's Blog (21)

जिजीविषा (लघुकथा)

“छह महीने होने आए, डॉक्टर साहब माई की सेहत में कोई खास अंतर तो दिख नही रहा!”

आश्रम के संचालक ने अपने आश्रम के नियमित डॉक्टर से चिंता बांटी, जो अभी अभी सब मरीज़ों का रुटीन चेकअप करके आश्रम स्थित छोटे से कमरे में आकर बैठें थे जो कि उनका आश्रम में क्लिनिक था।

“हाँ, विलास बाबू! है तो चिंता की बात, इतनी ऊँचाई से गिरी थी और उम्र भी है,आप खुद ही सोचिए।” डॉक्टर साहब में गोल-गोल शब्दों में स्पष्ट किया।

“हाँ आपने कहा तो था शहर ले जाने को, पर क्या करें हमारी विवशता है। वो तो आपका सहारा है…

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Added by Seema Singh on May 21, 2017 at 9:00am — 6 Comments

ज़ेवर ( लघुकथा)

"अरे! लड़कियों जल्दी से भीतर आओ बड़ी मालकिन बुला रही हैं।" हवेली की बुजुर्ग नौकरानी ने आंगन में गा-बजा रही लड़कियों को पुकारा तो सब उत्साहित हो झट से चल पड़ी।

मालकिन की तो ख़ुशी का कोई ठिकाना न था। आखिर इकलौते पोते की पसन्द को स्वीकारने के लिए उन्होंने अपने बहू-बेटे को मना जो लिया था। पर इसके लिए उन्होंने यह शर्त भी रखी थी कि विवाह उनके पारिवारिक रीति-रिवाज से होगा। भावी वधू के साथ-साथ घर की स्त्रियां भी चाव से गहने देखने लगी।

"अरे ! ये मांग टीका अब कौन पहनता है?" होने वाली बहू की छोटी…

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Added by Seema Singh on January 14, 2017 at 11:00pm — 21 Comments

वामा ( लघुकथा)

"आज तो इसकी सारी फरमाइशें पूरी कर दूंगा",सोई पत्नी के चेहरे पर स्नेहिल दृष्टि डालते हुए जैसे उसने स्वयं को याद दिलाया।



सोती हुई स्त्री के चेहरे पर बीते दिन की उदासी अब भी दिख रही थी। पलकें घण्टों रोते रहने से अब भी सूजी हुई थीं। आंसुओं के साथ बह गए काजल ने गाल पर धब्बे छोड़ दिए थे। सोई हुई पत्नी उसे बहुत सुंदर लग रही थी। जाने कितने दिन बाद उसका चेहरा इतने गौर से देखा था। वो और भी निहारता पर उसने कुलबुलाकर सिर थोड़ा और घुमा लिया और बिना आँख खोले फिर सो गई।



"कौन कहेगा ये दो… Continue

Added by Seema Singh on October 18, 2016 at 1:48pm — 4 Comments

पुनर्नवा ( लघुकथा)

“चलो भैया घर नहीं चलना है क्या?”

साथी के स्वर सुन,सोच में डूबा मदन, चौंक कर बोला, “हाँ हाँ चलो भाई निकलतें हैं”

सब अपनी-अपनी साईकिल लेकर बढ़ चले, तो साथ ही काम करने वाला राघव, अपनी साईकिल मदन के आगे लगाकर बोला,

“चलिए दद्दा हम भी चलते हैं”

“जिनसे नाता था वो तो कब का छोड़ गए... तू कौन से जन्म रिश्ता निभा रहा है, रे?” साईकिल पर बैठते हुए उसने कहा.

साईकिल बढ़ाते हुए राघव बोला, “दद्दा, उम्र में छोटा हूँ, आपसे कहने का हक तो नहीं है. मगर...”

“पता है तू क्या कहेगा... मगर…

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Added by Seema Singh on August 22, 2016 at 9:00am — 26 Comments

इस बार भी (लघुकथा)

“हर साल भाई को राखी डाक से भेज देतीं हूँ,. इस बार सोच रहीं हूँ उसकी कलाई पर बांधने चली जाऊँ.” विमला ने सकुचाते हुए अपने मन की बात पति कही.

पति की चुप्पी को अनुमोदन जान आगे बोल उठी:

“आप चिंता मत करो मैंने कुछ रूपये बचा कर रखें हैं, फल मिठाई और भाई के लिए एक कमीज आराम से आ जायेगी आप बस आने जाने का टिकट करा देना मेरा. सुबह जाकर रात तक वापस आ जाऊँगी.”

पति को अब भी चुप देख पूछ बैठी:

“क्या कहते हो, चली जाऊँ?”

पति ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ खत उसकी ओर बढ़ा दिया, जो उसकी…

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Added by Seema Singh on August 12, 2016 at 1:00pm — 7 Comments

नशा लघुकथा

नशा

कभी बाएं कभी दायें डोलती सी तेज गति से आती अनियंत्रित गाड़ी मोड पर पलट गई. भीड़ जमा हो गई आसपास किसी तरह से गाड़ी में सवार दोनों युवकों को बाहर निकाला गया. उफ़...ये क्या दोनों नशे में धुत थे..

पुलिसवाला होने के नाते मेरा फ़र्ज़ था कि ड्यूटी पर न होते हुए भी मामले को सुलझाऊ. मैंने दोनों मे से एक के पिता जो प्रोफेसर भी थे, को बुलवाया..

ये क्या वो शर्मिंदा होने के स्थान पर मुझसे ही उलझ गए “न कोई मरा है न किसी को चोट आई है तो एक्सीडेंट कहाँ से हो गया..ले दे कर बात खत्म करो बच्चों को घर… Continue

Added by Seema Singh on March 26, 2016 at 11:29am — 5 Comments

सोनचिरैया (लघुकथा)

“तुम साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती, विमला की माँईं, तुम्हे शादी करवानी भी है या नहीं? एक से एक रिश्ते बताये तुमको... तुम हो कि किसी के कान छोटे, किसी के होठ मोटे बता रिश्ते ठुकराती ही चली जा रही हो!” वामन काकी के सब्र का बाँध टूट गया था आज तो. “पूरे गाँव के रिश्ते करवाएं हैं मैंने. कोई कह तो दे किसी की भी बिटिया अपने घर में सुख से ना है, या किसी भी घर में बेमेल बहू आई है आज तक.”

“ना, ना, काकी, तुम तो बेकार में लाल-पीली हो रही हो. मेरा वो मतलब ना था,” ठकुराइन मक्खन सी नरमी आवाज़ में लाकर बोली.…

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Added by Seema Singh on March 15, 2016 at 6:00pm — 8 Comments

हालात उतने भी ख़राब नहीं ( लघुकथा)

हालात उतने भी खराब नहीं



घड़ी पर नज़र डाल शांता बुदबुदाई, “छः बज गए, श्वेता ने फोन नहीं किया अभी तक! कितनी बार कहा है कि ऑफिस में मनाही है तो क्या हुआ, बाहर निकलने पर तो तुरंत फोन कर दिया करे. पता है पापा भी घर पर नहीं हैं और मैं अकेली हूँ, पर ये आज कल के बच्चे माता-पिता की चिंता समझे तब ना!”

‘ओह! अब तो साड़े छः हो गए, मैं ही कर लूँ,’ सोच शांता ने फोन मिलाया

टिक-टिक-टिक ट्रिंग!

फोन कट गया. दुबारा मिलाने पर दो बार ट्रिंग-ट्रिंग हुई और फोन कट गया. फिर चार बार, आठ… Continue

Added by Seema Singh on March 14, 2016 at 9:49am — 10 Comments

अधकढ़ा गुलाब (कहानी)

अधकढ़ा गुलाब

“अरे, आप अँधेरे में क्या कर रही हो? कौन सा खजाना खोल कर बैठी हो, मम्मा, जो हमारी आवाज़ तक नहीं सुन पा रही हो?”

शैली की आवाज़ से विचारों मे डूबी मृदुला वर्तमान में वापस आई.

“नहीं बेटा कुछ नहीं,” कह सामान समेटना चाह ही रही थी, कि दूसरी बेटी शिल्पी भी आ खड़ी हुई.

“प्लीज़ मम्मा, आज तो दिखा ही दो क्या है इस बैग में जो आप हमेशा अकेले में खोलती हो और किसी दूसरी दुनिया मे चली जाती हो!”

“क्या है? ऐसा कुछ भी तो नहीं. बस कुछ पुराने कपड़े और कागज़ वगैरहा हैं. चलो छोड़ो! तुम… Continue

Added by Seema Singh on February 28, 2016 at 8:06am — 8 Comments

ज़रूरतें,अपनी-अपनी(लघुकथा)

शूटिंग की तैयारी थी।सेट लग चुका था, बस निर्देशक महोदय के आने की प्रतीक्षा थी। उनके आते ही सब सचेत हो उठे।

“सब रेडी है?”आते ही अपने असिस्टेंट से पूछा।

“जी सर!” उसने मुस्तैदी से उत्तर दिया।

“एक बार सीन ब्रीफ करो।”

“जी, सीन है, माँ-बाप का लाड़ला बेटा रूठ गया है, तो माता पिता तरह-तरह की खाने पीने की चीज़े लाकर उसको मना रहे हैं और बच्चा गुस्से में फेंक रहा है।”

“और वो बाल कलाकार उसका क्या हुआ? अस्पताल से छुट्टी मिल गई ?”

“नहीं सर,पर दूसरे बच्चे का इंतजाम कर लिया है, यहीं… Continue

Added by Seema Singh on February 18, 2016 at 8:39pm — 6 Comments

बिचार (लघुकथा)

बिचार (छुआ-छूत विषयाधारित कथा)

मेज पर कहीं से परोसा आया रखा था..

“ये कहाँ से आया अम्मा?” भोजन सूघतें हुए मयंक ने पूछा.

“अरे वो पड़ोस से आया है सेठ जी की बरसी थी ना..”माँ ने बताया.

“मैं खा लूँ?”मयंक ने पूछा.

माँ के उत्तर देने से पहले दादी बोल उठी,

“राम राम, ‘उन लोगों’ के घर का खायेगा जिनके यहाँ आज भी जूते गांठे जाते हैं.”

“दादी उनके यहाँ लघु-उद्योग कारखाना है जूते नहीं गांठे जाते.”

मंयक ने खाना परोसते हुए कहा.

“तो…

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Added by Seema Singh on January 19, 2016 at 6:00pm — 8 Comments

दुविधा

दुविधा

सर्द साँझ थी जब शकीला अपने पति के साथ दफ्तर से घर लौट रही थी... वापसी में घर जाने की कोई जल्दी ना थी आराम से गंगा किनारे वाली शांत रोड पकड़, जहाँ अपेक्षाकृत कम ट्रैफ़िक रहता है, बीस-बाईस की गति से अहमद बाइक चला रहा था और शकीला उसकी पीठ से सर टिकाये अपनी थकान से मुक्ति पाने का प्रयास का रही थी. अभी आनंदेश्वर मंदिर पार भी ना हुआ था कि किसी बच्चे के रोने की आवाज़ से शकीला ने चौंक कर अहमद से पूछा, “आपने कुछ सुना?”

“हाँ मंदिर की घंटियों की आवाज़... क्यों क्या हुआ? मंदिर के पास वही…

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Added by Seema Singh on December 21, 2015 at 2:35pm — 2 Comments

मातृत्व की नई परिभाषा (लघुकथा)

“अरे संभल कर मालती अपना ख्याल रख भई..” झुझलाहट पर काबू करते हुए काम्या ने कहा.

“मुझे दिखा नहीं और पैर उलझ गया मगर तुम चिंता ना करो, मैंने तीन बच्चों को जन्म दिया है,” मालती ने अपने पेट पर हाथ लगाते हुए कहा, “और इस तेरे वाले का भी ख्याल रख लूंगी.”

“हाँ खास ध्यान रखना तू, ये हमारे लिए बहुत जरुरी है.” काम्या ने कहा.

“हाँ मैं जानती हूँ.. ये तेरा बच्चा ही है”, मालती भावुक हो उठी.

 “कुछ चाहिए हो तो बताना, मेरा नम्बर  तो है ही तेरे पास”,काम्या ने कुछ नोट मालती को पकड़ाते हुए…

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Added by Seema Singh on September 2, 2015 at 8:30pm — 8 Comments

समर्पण

समर्पण

“वाह री मर कर भी तर गईं तिवारिन तो” मिथिला काकी ने मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी अपनी सखियों के समूह में सुरसुरी छोड़ी..

“वो कैसे बहन जी ?” उन्ही की समवयस्क जानकी ताई ने उत्सुकुता से पूछा.

“अरे कितनी सेवा की थी बहुरिया उनकी और अब उनके सिधारने के बाद अपनी नौकरी छोड़ ससुर की सेवा में लग गई.” मिथिला काकी ने खुलासा किया.

मुहल्ले भर की बुढियों को ईर्ष्या हो उठी स्वर्ग-सिधारी तिवारिन से, कितनी समर्पित बहू मिली है.

घर आते हुए महिला मंडल की बात चीत-सुन रधिया से रहा ना गया. सीधे… Continue

Added by Seema Singh on August 27, 2015 at 12:23am — 12 Comments

बटवारा ( लघुकथा)

बटवारा

“माँजी के सामान पर हम सब का बराबर अधिकार है.” सास की तेरहवीं के दिन ही बड़ी बहू ने कहना शुरू कर दिया. मझली ने भी हाँ में हाँ मिलाई. “हाँ हाँ क्यों नहीं भाभी वैसे भी हम अपने साथ कहाँ कुछ ले जा पाएंगे..” छोटे पुत्र अमर ने कहा तो पत्नी ने खा जाने वाली नज़रों से घूरा.अब तक जो आँगन मेहमानों से भरा था वो घर-गृहस्थी के सामान से भर गया.चांदी के गिलास-प्लेट,पीतल के कलश,बड़े-बड़े थाल, सब आँगन में सज गए. पुराने डिब्बों से लेकर दीवार घड़ियाँ बिस्तर सब छोटा बड़ा सामान आँगन में जुट गया था..

दस… Continue

Added by Seema Singh on August 13, 2015 at 2:38pm — 6 Comments

आस्था (लघुकथा)

सुबह-सुबह ऑफिस के लिए तैयार होती दिव्या ने छोटी सी काली बिंदी माथे पर सजाई, बालों का सुरुचिपूर्ण जूड़ा बनाया और एक नज़र बरामदे में बैठी कनखियों से उसे ही देख रहीं सासू माँ पर डाली.

“ज़रा सा सिंदूर भी लगा लिया कर भली-मानस,” सासू माँ ने मजाकिया लहजे में दिल की बात कही, “शुभ होता है.”

“पर माँ बारिश का मौसम है, चार बूंदें भी गिर गई तो ऑफिस में बंदरिया बन कर पहुँचूंगी.” अपना टिफिन पैक करते हुए दिव्या ने हँसकर कहा.

“और ये काली बिंदी मुझे नहीं भाती... बिंदी लाल होती है सुहाग का प्रतीक.”…

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Added by Seema Singh on July 20, 2015 at 10:00am — 18 Comments

कड़वा सच (कहानी)

“माँ ये औरत मुझे सूरत से ही सख्त नापसंद है! आप मना कर दो इसको हमारे ना आया करे.”

मंशा को पता नहीं क्या हो जाता था, जब भी उस महिला को देखती. उसका सिर पर हाथ फिराना, चेहरा-बाहें छूने का प्रयास तो और भी घृणा से भर देता था. कितनी बार माँ को कहा भी, “उसको बोल दो मुझसे दूर रहे.” मगर उसकी हर छोटी बड़ी जिद पूरी करने वाली माँ इस बारे में कुछ ना सुनती.

मगर आज तो हद ही हो गई. उसने मंशा को छूना चाहा और मंशा ने ज़ोर का धक्का मार दिया. वो बेचारी फर्श पर गिर गई और मेज से टकरा कर सिर में चोट भी…

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Added by Seema Singh on July 20, 2015 at 8:30am — 8 Comments

अनकहा सच

“माँ तू खुद ही तो कहती है वो दरोगा अच्छा आदमी नहीं हैं और हम दोनो बहनों को उस से दूर ही रखती है.. फिर तू खुद वहाँ क्यों जाती है.., बचपन से देखती चली आ रहीं हूँ बापू के गुजरने के बाद से  तू नियम से उसका खाना लेकर जाती है और देर रात वापस लौटती है. लोग कैसी कैसी बातें बनाते हैं.” बरसों से मन में घुमड़ते प्रश्न आज आखिर मदुरा ने माँ के सामने रख ही दिए..

“वो हमारा अन्नदाता है तो बदले में कुछ तो उसको भी देना ही होता है.” माँ ने बड़े शांत-भाव से उत्तर दिया और खाने का डिब्बा उठा कर गंतव्य की ओर…

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Added by Seema Singh on July 2, 2015 at 10:00am — 11 Comments

भाभी माँ

“क्या बना रही है रूपा” बगल वाली चाची की आवाज़ सुन कर रुपाली ने सिर उठा कर ऊपर देखा और मुस्कराहट बिखेरते हुए कहा . “आइये चाची जी ..बस धूप मे बैठी थी तो सोचा कुछ काम ही कर लूँ. आप बैठिए मै माँ को बुलाती हूँ.” “नही बेटा तू अपना काम कर मै भीतर जाकर मिल लेती हूँ.” और चाची प्यार से रूपा के सर पर हाथ फेर कर अंदर चली गई. सामने से रूपा की माँ आती दिखी. पड़ोसन से रहा न गया खुश होते हुए बोली “जीजी ! बड़ी गुणी है अपनी रूपा जिस घर जायेगी स्वर्ग बना देगी” रूपा की माँ कुछ न बोली बस हँस कर सर हिला दिया. “नही जीजी… Continue

Added by Seema Singh on June 17, 2015 at 12:59pm — 4 Comments

फौजी की डायरी

फौजी की डायरी

दिनांक

१२-जून

सचमुच अगर आज ये फार्मल-मीट न होती तो मै कभी जान ही ना पाता आखिर वो भी तो हमारे जैसे ही हैं.. उनका दिल भी अपने देश के लिए धडकता है.. उनके लिए भी फ़र्ज़ जान से बढ़ कर है. मगर... उनका भी परिवार है हमारी ही तरह... माँ है. बहन है.. पत्नी है बच्चे हैं घर है वो भी अपने परिवार से बहुत प्यार करते हैं..बिलकुल हमारी तरह... वो भी देश के लिए मरना चाहतें है और परिवार के लिए जीना चाहते हैं बेवजह लडनें की चाह उनको भी नही है मगर मातृभूमि पर किसी की बुरी नज़र वो भी सहन नही… Continue

Added by Seema Singh on May 12, 2015 at 4:04pm — 5 Comments

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