सौ साल बाद एक पैसे का सिक्का गढ्ढे से बाहर निकला। एक ऊँची इमारत बनाने के लिए खुदाई चल रही थी। एक मजदूर के फावड़े से टकराकर मिट्टी के साथ उछला और जाकर सड़क के किनारे गिरा। वर्षों बाद उसने खुली हवा में साँस ली और अपने आस पास नजर घुमाई तो उसे कई निर्माणाधीन इमारतें दिखाई पड़ीं। थोड़ी देर खुली हवा में साँस लेने के बाद धीरे धीरे उसकी चेतना लौटने लगी। उसे याद आने लगा कि कैसे वो एक सेठ की थैली से निकलकर गढ्ढे में गिर गया था। सेठ ने उसे निकालने की कोशिश की मगर अंत में थक हारकर सेठ ने उसे गढ्ढे में ही…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 19, 2012 at 5:56pm — 18 Comments
कजरी गाँव से नई नई आई थी शहर में अपने मामा के पास। उसकी माँ और तीन छोटी बहनें गाँव में ही थे। उसका बाप चौथी बेटी के जन्म के बाद घर छोड़कर भाग गया था ऐसा गाँव के लोग कहते थे। उसकी माँ का कहना था कि उसका बाप इलाहाबाद के माघ मेले में नहाने गया था और मेले के दौरान संगम के करीब जो नाव डूबी थी उसमें उसका बाप भी सवार था। जिन लोगों को थोड़ा बहुत तैरना आता था उनको तो बचा लिया गया पर जो बिल्कुल ही अनाड़ी थे उनको गंगाजी ने अपनी गोद में सुला लिया। तब वह छह साल की थी। उसकी माँ ने पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 16, 2012 at 6:58pm — 8 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 15, 2012 at 9:08pm — 9 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 5, 2012 at 12:00am — 10 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 3, 2012 at 5:55pm — 9 Comments
है मरना डूब के मेरा मुकद्दर भूल जाता हूँ
तेरी आँखों में भी है एक सागर भूल जाता हूँ
ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी तिलिस्मी है
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ
हमारे प्यार में इतना तो नश्शा अब भी बाकी है
पहुँचकर घर के दरवाजे पे दफ़्तर भूल जाता हूँ
तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ
न जी सकता हूँ तेरे बिन, न मरने दे तेरी आदत
दवा हो या जहर दोनों मैं रखकर भूल जाता हूँ
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 20, 2012 at 9:04pm — 11 Comments
मच्छर आवाज़ उठाता है
‘सिस्टम’ ताली बजाकर मार देता है
और ‘मीडिया’ को दिखाता है भूखे मच्छर का खून
अपना खून कहकर
मच्छर बंदूक उठाते हैं
‘सिस्टम’ ‘मलेरिया’ ‘मलेरिया’ चिल्लाता है
और सारे घर में जहर फैला देता है
अंग बागी हो जाते हैं
‘सिस्टम’ सड़न पैदा होने का डर दिखालाता है
बागी अंग काटकर जला दिए जाते हैं
उनकी जगह तुरंत उग आते हैं नये अंग
‘सिस्टम’ के पास नहीं है खून बनाने वाली…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 11, 2012 at 8:30pm — 8 Comments
शुरू में सब ठीक था
जब धरती पर
प्रारम्भिक स्तनधारियों का विकास हुआ
नर मादा में कुछ ज्यादा अन्तर नहीं था
मादा भी नर की तरह शक्तिशाली थी
वह भी भोजन की तलाश करती थी
शत्रुओं से युद्ध करती थी
अपनी मर्जी से जिसके साथ जी चाहा
सहवास करती थी
बस एक ही अन्तर था दोनों में
वह गर्भ धारण करती थी
पर उन दिनों गर्भावस्था में
इतना समय नहीं लगता था
कुछ दिनों की ही बात होती थी।
फिर क्रमिक विकास में बन्दरों का उद्भव हुआ
तब जब हम…
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 18, 2012 at 8:04pm — 2 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 7, 2012 at 11:58pm — 3 Comments
किसे नहीं अच्छे लगते
वफादार कुत्ते?
जो तलवे चाटते रहें
और हर अनजान आदमी से
कोठी और कोठी मालिक की रक्षा करते रहें
ऐसे कुत्ते जो मालिक का हर कुकर्म देख तो सकें
मगर किसी को कुछ बता न सकें
जो मालिक की ही आज्ञा से
उठें, बैठें, सोएँ, जागें, खाएँ, पिएँ और भौंकें
ऐसे ही कुत्तों को खाने के लिए मिलता है
बिस्किट और माँस
रहने के लिए मिलती हैं
बड़ी बड़ी कोठियाँ
और मिलती है
अच्छे से अच्छे नस्ल की कुतिया
और जब…
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 4, 2011 at 1:11am — 2 Comments
मैं हूँ सामान्य वर्ग का एक सामान्य अधेड़
न, न, अभी उम्र पचास की नहीं हुई
केवल पैंतीस की ही है
मगर अधेड़ जैसा लगने लगा हूँ
मेरी गलती यही है
कि मैं विलक्षण प्रतिभा का स्वामी नहीं हूँ
न ही किसी पुराने जमींदार की औलाद हूँ
एक सामान्य से किसान का बेटा हूँ मैं
बचपन में न मेरे बापू ने मेरी पढ़ाई पर ध्यान दिया
न मैंने
नौंवी कक्षा में मुझे समझ में आया
कि इस दुनिया में मेरे लिए कहीं आशा बाकी है
तो वह पढ़ाई में ही है
तब मैंने पढ़ना…
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 22, 2011 at 3:38pm — 17 Comments
लाश तेरी यादों की मैं न छोड़ पाता हूँ
रोज दफ़्न करता हूँ रोज खोद लाता हूँ
जो रकीब था कबसे बन गया खुदा मेरा
रोज सर कटाता हूँ रोज सर झुकाता हूँ…
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2011 at 3:30pm — 3 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 24, 2011 at 3:05pm — 1 Comment
भ्रष्टाचार के विरोध में हम भी खड़े हैं इस छोटी सी कविता के साथ
विरोध कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
कि कायम रहे
अणुओं का कंपन
अणुओं का कंपन कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
विद्रोह का तापमान
वरना ठंढा होते होते
हर पदार्थ
अंततः विरोध करना बंद कर देता है
और बन जाता है अतिचालक
उसके बाद
मनमर्जी से बहती है बिजली
बिना कोई नुकसान झेले
अनंत काल तक
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 5, 2011 at 10:19pm — 4 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 23, 2011 at 10:50pm — 3 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 17, 2011 at 11:44pm — 1 Comment
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 11, 2011 at 1:04pm — 5 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2011 at 10:20pm — 3 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2011 at 12:48am — 4 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 7, 2011 at 11:26pm — 3 Comments
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