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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (505)

भोर का सूरज उजला क्यों है -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२

ठूँठ हुआ पर छाँव में अपनी नन्हा पौधा छोड़ गया

कैसे कह दूँ पेड़  मरा  तो  मानव चिन्ता छोड़ गया।१।

**

वैसे तो  था  जेठ  हमेशा  लेकिन  जाने  क्या सूझी

अब के मौसम हिस्से में जो सावन आधा छोड़ गया।२।

**

"दिखे टूटता तो फल देगा", चाहे ये किवँदन्ती पर

आशाओं के कुछ तो बादल टूटा तारा छोड़ गया।३।

**

या रोटी की रही विवशता या सीमा की…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 23, 2020 at 12:08pm — 6 Comments

न्याय की जब से हुई हैं कच्ची सारी डोरियाँ - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



भाव अब तो पाप - पुण्यों के बराबर हो गये

देवता क्योंकर जगत में आज पत्थर हो गये।१।

**

थी जहाँ पर अपनेपन की लहलहाती खेतियाँ

स्वार्थ से कोमल ह्रदय  के  खेत ऊसर हो गये।२।

**

न्याय की जब से हुई  हैं कच्ची सारी डोरियाँ

तब से जुर्मोंं के  महावत  और  ऊपर हो गये।३।

**

दूध, लस्सी, घी अनादर का बने पहचान अब

पैग व्हिस्की मय पिलाना आज आदर हो गये।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 20, 2020 at 5:30pm — 10 Comments

पनघट के दोहे- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

पनघट पोखर बावड़ी, बरगद पीपल पेड़

उनकी बातें कर न अब, बूढ़े मन को छेड़।१।

**

जिस पनघट व्याकुल कभी, बैठे थे हर शाम

पुस्तक में ही शेष अब, लगता उस का नाम।२।

**

पनघट सारे खा गया, सुविधाओं का खेल

फिर भी सुख से हो सका, नहीं हमारा मेल।३।

**

पीपल देखे गाँव का, बीते कितने साल

कैसा होगा क्या पता, अब पनघट का हाल।४।

**

पथिक ढूँढ नव राह तू, अगर बुझानी प्यास

पनघट ही जब ना रहे, क्या गोरी की आस।५।

**

सब मिल पनघट थीं कभी, बतियाती चित खोल

घर- घर नल…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2020 at 9:59am — 13 Comments

सेज पर बिछने को होते फूल जैसे पर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२२/२



हम जरूरत के लिए विश्वास जैसे हैं

नाम पर सेवा के लेकिन दास जैसे हैं।१।

**

सेज पर बिछने को होते फूल जैसे पर

वैसे पथ के  पास  उगते  घास जैसे हैं।२।

**

है हमारा मान केवल जेठ जैसा बस

कब  तुम्हारे  वास्ते  मधुमास जैसे हैं।३।

**

दूध लस्सी  धी  दही  कब  रहे तुमको

कोक पेप्सी से बुझे उस प्यास जैसे हैं।४।

**

रोज हमको हो निचोड़ा आपने लेकिन

स्वेद भीगे हर  किसी …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 14, 2020 at 10:01am — 10 Comments

तेरे ख्वाहिशों के शह्र में- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२१/२



लिखना न मेरा नाम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में

आयेगा कुछ न काम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में।१।

**

सबको पता है धूल से बढ़कर न मैं रहा कभी

ऊँचा भले ही दाम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में।२।

**

सूरज न उगता भोर का तारों भरी न रात हूँ

ढलती हुई सी शाम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में।३।

**

रावण बना दिया है मुझे प्यास ने हवस की यूँ

करना न मुझको राम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में।४।

**

चाहत न कोई नाम की रिश्ता अगर बना कोई

चलना मुझे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 10, 2020 at 6:45am — 13 Comments

वर्षा के दोहे -१

नगर खिन्न हो देखता, खुश होता देहात

हरियाली  उपहार  में,  देती  है ब रसात।१।

**

हलधर सोया खेत में, तन पर ओढ़े धूल

रूठी बदली देखिए, जा बैठी किस कूल।२।

**

धरती के  दुख  से  हुई, अँधियारी  हर भोर

बादल बिजली चीखते, मत आना इस ओर।३।

**

जब से आयी गाँव में, फिर रिमझिम बरसात

सौंधी मिट्टी  की  महक, उठती  है  दिन-रात।४।

**

वसन धरा के जो सुना, तपन ले गयी चोर

बौराए घन  नापते, पलपल  नभ का छोर।५।

**

मेंढक जी तो हैं सदा, बरखा के…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 6, 2020 at 10:51pm — 4 Comments

मगर हम स्वेद के गायें - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२२ × ४



कहीं पर भूख  पसरी  है  फटे कपड़े पुराने हैं

भला मैं कैसे कह दूँ ये सभी के दिन सुहाने हैं।१।

**

वो गायें गीत फूलों के जिन्हें गजरे सजाने हैं

मगर हम स्वेद के  गायें  हमें पत्थर उठाने हैं।२।

**

पुछें हर आँख से  आँसू  हमारा ध्येय इतना हो

न सोचो चन्द साँसों हित यहाँ सिक्के कमाने हैं।३।

**

बसाना हो तो दुश्मन का बसा दो चाहे पहले पल

पहल अपने से ही  करना  अगर घर ही जलाने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 6, 2020 at 8:30am — 7 Comments

पीड़ा के दोहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

मन को इतना  दे  गये, अपने  ही अवसाद

नाम पते सड़कें गली, क्या रक्खें अब याद।१।

**

जीवन जिसको रेतघर, बादल क्या दे नीर

उसको तो हर हाल में, मिलनी है बस पीर।२।

**

भूखा बेघर रख रहा, क्या कम यहाँ अभाव

उस पर करता रात - दिन, मँहगाई पथराव।३।

**

थकन बढ़ी है पाँव की, छालों के आसार

मिले कहाँ आराम को, तरुवर छायादार।४।

**

भले उजाले का हुआ, बहुत जगत भर शोर

दीपक नीचे  क्यों  रहा, तमस  भरा घनधोर।५।

**

आँसू अपने  डाल  दो, उस आँचल में और

हर…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2020 at 7:09pm — 8 Comments

मौत से कह दो न रोके -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२१२२/२१२२/२१२२/२१२

लेके आया फिर से बचपन शायरी का सिलसिला

मौत से कह दो  न  रोके  जिन्दगी का सिलसिला।१।

**

रोक  तेजाबों  घुएँ  की  गन्दगी  का सिलसिला

इन हवाओं में भरो कुछ ताजगी का सिलसिला।२।

**

कोशिशें दस्तक  जो  देंगी  शब्द तोड़ेगे कभी

मौन की गहरी हुई इस तीरगी का सिलसिला।३।

**

हैं बहुत  कानून  अपनी  पोथियों  में  यूँ मगर

रुक न पाया भ्रष्ट होते आदमी का सिलसिला।४।

**

एक जुगनू ने कहा  ये  भर तमस के काल में

डर न तम से मैं रखूँगा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2020 at 12:25pm — 10 Comments

लोटा है साँप फिर से जो उसके कलेजे पर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२



पाँवों में  छाले  देख  के  राहें नहीं खिली

दिनभर थकन से चूर को रातें नहीं खिली।१।

**

सुनते हैं  खूब  रख  रहे  पहलू में अजनबी

यार ए सुखन से आपकी आँखें नहीं खिली।२।

**

थकते  न  थे  जो  दूरी  का  देते  उलाहना

उनकी ही मुझको देख के बाँछें नहीं खिली।३।

**

लोटा है साँप फिर से जो उसके कलेजे पर

कहता  है  कौन  घर  मेरे  रातें  नहीं खिली।४।

**

लाया करोना  दर्द  तो राहत भी साथ में

ताजी हवा में कौन सी साँसें नहीं…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 29, 2020 at 9:20am — 4 Comments

गेहूँ रहा अलीक न यूँ ही गुलाब से

२२१/२१२१/१२२१/२१२



मारा करे हैं  लोग  जो गम को शराब से

लाते खुशी को देखिए कितने हिसाब से।१।

**

खुशबू है भारी भूख पे सुनते जहान में

गेहूँ रहा  अलीक  न  यूँ  ही  गुलाब से।२।

**

लाता नहीं है होश भी अपने ही साथ क्यों

शिकवा है हमको एक ही यारो शबाब से।३।

**

साधी है हमने यूँ नहीं हर एक तिश्नगी

गुजरा है अपना दौर भी यारो सराब से।४।

**

उनको तो कुर्सी चाहिए पापों की नींव पर

मतलब न रखते आज भी सेवक सवाब…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 8, 2020 at 11:11am — 2 Comments

राजन तुम्हें पता - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२



छलकी बहुत शराब क्यों राजन तुम्हें पता

उसका नहीं हिसाब क्यों राजन तुम्हें पता।१।

**

हालत वतन के पेट की कब से खराब है

देते नहीं जुलाब क्यों राजन तुम्हें पता।२।

**

हम ही हुए हैं गलमोहर इस गम की आँच से

बाँकी हुए गुलाब क्यों राजन तुम्हें पता।३।

**

हर झूठ सागरों सा है इस काल में मगर

सच ही हुआ हुबाब क्यों राजन तुम्हें पता।४।

**

सुनते थे इन का ठौर तो बस रेगज़ार में

सहरा में भी सराब क्यों राजन तुम्हें…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 5, 2020 at 10:30am — 13 Comments

गंगादशहरा पर कुछ दोहे

...............

गंगा जी ने जिस दिवस, धरे धरा पर पाँव

माने गंगा दशहरा, मिलकर पूरा गाँव।१।

**

विष्णुपाद से जो निकल, बैठी शंकर भाल

प्रकट रूप में फिर चली, गोमुख से बंगाल।२।

**

करती मोक्ष प्रदान है, भवसागर से तार

भागीरथ तप से हुआ, हम सबका उद्धार।३।

**

गोमुख गंगा धाम है, चार धाम में एक

जिसके दर्शन से मिटें, मन के पाप अनेक।४।

**

अमृत जिसका नीर है, जीवन का आधार

अंत समय जो ये मिले, खुले स्वर्ग का द्वार।५।

**

अद्भुत गंगाजल कभी, पड़ें…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2020 at 1:39pm — 4 Comments

उम्मीद क्या करना -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल)

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२



रहेगा साथ सूरज यूँ  सदा  उम्मीद क्या करना

जलेगा साँझ होते ही दिया उम्मीद क्या करना।१।

**

जो बरसाता रहा कोड़े सदा निर्धन की किस्मत पर

करेगा आज  थोड़ी  सी  दया  उम्मीद  क्या करना।२।

**

बनाये  दूरियाँ  ही  था सभी  से  गाँव  में  भी  जो 

नगर में उससे मिलने की भला उम्मीद क्या करना।३।

**

चला करती है उसकी जब इसी से खूब रोटी सच

वो देगा छोड़ छलने की…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2020 at 5:00am — 4 Comments

करता रहा था जानवर रखवाली रातभर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२

जिसके लिए स्वयं को यूँ पाषान कर गये

दो फूल उसके आपको भगवान कर गये।१।

**

कारण से कुछ के मस्जिदें बदनाम हो गयीं

मन्दिर को लोग कुछ यहाँ दूकान कर गये।२।

**

करता रहा था जानवर रखवाली रातभर

बरबाद दिन में खेत को इन्सान कर गये।३।

**

अपनी हुई न आज भी  पतवार कश्तियाँ

क्या  खूब  दोस्ती  यहाँ  तूफान  कर गये।४।

**

दिखते नहीं दधीचि से परमार्थी सन्त अब

मरकर भी अपनी देह जो यूँ दान कर गये।५।

**

माटी भी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 30, 2020 at 9:30am — 18 Comments

भूख तक तो ठीक था - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



जिन्दगी की डाँट खाकर भी सँभल पाये न हम

चाह कर भी यूँ  पुराना  पथ  बदल पाये न हम।१।

**

एक संकट क्या उठा के साथ छूटा सबका ही

हाथ था सबने बढ़ाया किन्तु चल पाये न हम।२।

**

फर्क था इस जिन्दगी को जीने के अन्दाज में

आप सा छोटी खुशी पर यूँ उछल पाये न हम।३।

**

भूख तक तो ठीक था मुँह फेरकर सब चल दिये

लुट रही इन इज्जतों  पर क्यों उबल पाये न हम।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2020 at 6:55am — 6 Comments

मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

कहते भरे हुए हैं अब भण्डार तो बहुत

लेकिन गरीब भूख से लाचार तो बहुत।१।

**

फिरता है आज देखिए कैसे वो दरबदर

जिसने बनाये खूब  यूँ सन्सार तो बहुत।२।

**

मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ

रेलों बसों को  कर  रहे  तैयार तो बहुत।३।

**

बनता दिखा न आजतक हमको भवन कोई

रखते  गये  हैं  आप  भी  आधार  तो  बहुत।४।

**

सारे अदीब चुप  हुए  संकट  के दौर में

सुनते थे यार उनका है बाजार तो बहुत।५।

**

मजदूर सह किसान  से  जाने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 24, 2020 at 11:11am — 13 Comments

मजदूर अपने गाँव के सस्ते नहीं गये -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

पथ से खुशी के दुख भरे काँटे नहीं गये

निर्धन के पाँव से  कभी  छाले नहीं गये।१।

**

दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर

होगी  गरीबी  दूर  के  वादे  नहीं  गये।२।

**

जिन्दा नहीं तो मरके वो पाये हैं लाख जो

मजदूर  अपने  गाँव  के  सस्ते  नहीं  गये।३।

**

कहते हैं इसको  आपदा  चाहे जरूर वो

शासन से इसके पर कभी रिश्ते नहीं गये।४।

**

किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की

आँगन में जिसके  फूल  के  डाले नहीं…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 18, 2020 at 4:03pm — 7 Comments

आस में अच्छे दिनों की शह्र आये थे मगर -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/ २१२२/२१२



शासकों को रोज अपनी दुख बयानी लिख रहे

एक चिकने घट को  जैसे  बूँद पानी लिख रहे।१।

**

अधजली दंगों में थी अब अधमरी है रोगवश

पर खबर में  खूबसूरत  राजधानी  लिख रहे।२।

**

दान दाता  बन  गये  कुछ  एक  मुट्ठी  दे  चना

खींचकर तस्वीर उसकी नित कहानी लिख रहे।३।

**

आस में  अच्छे  दिनों  की  शह्र  आये थे मगर

गाँव के वो आज सब को खूब मानी लिख रहे।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 17, 2020 at 2:00pm — 6 Comments

उम्मीद की चमक- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल )

२२१/ २१२१/२२२/१२१२



दिखती भला है अब किधर उम्मीद की चमक

खोने  लगी  है  खुद  सहर  उम्मीद की चमक।१।

**

माझी को धोखा दे  गयी पतवार हर कोई

दरिया में जैसे हो लहर उम्मीद की चमक।२।

**

बाँटेगा सबको आ के सच थोड़ी मिले भले

लेकर चला है वो  अगर उम्मीद की चमक।३।

**

कहते  उसे  किसान  हैं  निर्धन  बहुत  भले

झुकने न देगी उसका सर उम्मीद की चमक।४।

**

लूटा गया  है  हर  तरह  उसको  जहान में

आँखों में उसके है मगर उम्मीद की…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 12, 2020 at 7:38am — 8 Comments

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