ट्रेन समय की
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना
तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 31, 2019 at 8:07pm — 11 Comments
जैसी हो
अच्छी हो
ऐसी ही रहना तुम
कांटो की बगिया में
तितली सी उड़ जाना
रस्ते में पत्थर हो
नदिया सी मुड़ जाना
भँवरों की…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2019 at 10:42am — 2 Comments
जाते हो बाजार पिया तो
दलिया ले आना
आलू, प्याज, टमाटर
थोड़ी धनिया ले आना
आग लगी है सब्जी में
फिर भी किसान भूखा
बेच दलालों को सब
खुद…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 10, 2019 at 10:05pm — 11 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
ख़ुद को थोड़ा और निचोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
वक़्त चुनावों का है, उमड़ा नफ़रत का दर्या
बाँध प्रेम का फौरन जोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
हम सबके भीतर सोई जो मानवता…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 7, 2018 at 10:48pm — 6 Comments
एक गाँव में कुछ लोग ऐसे थे जो देख नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो सुन नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो बोल नहीं पाते थे और कुछ ऐसे भी थे जो चल नहीं पाते थे। उस गाँव में केवल एक ऐसा आदमी था जो देखने, सुनने, बोलने के अलावा दौड़ भी लेता था। एक दिन ग्रामवासियों ने अपना नेता चुनने का निर्णय लिया। ऐसा नेता जो उनकी समस्याओं को जिलाधिकारी तक सही ढंग से पहुँचा कर उनका समाधान करवा सके।
जब चुनाव हुआ तो अंधों ने अंधे को, बहरों ने बहरे को, गूँगों ने गूँगे को और लँगड़ों ने एक लँगड़े को वोट दिया। जो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 4, 2018 at 9:11pm — 14 Comments
उसने कहा 2=3 होता है
मैंने कहा आप बिल्कुल गलत कह रहे हैं
उसने लिखा 20-20=30-30
फिर लिखा 2(10-10)=3(10-10)
फिर लिखा 2=3(10-10)/(10-10)
फिर लिखा 2=3
मैंने कहा शून्य बटा शून्य अपरिभाषित है
आपने शून्य बटा शून्य को एक मान लिया है
उसने कहा ईश्वर भी अपरिभाषित है
मगर उसे भी एक माना जाता है
मैंने कहा इस तरह तो आप हर वह बात सिद्ध कर देंगे
जो आपके फायदे की है
उसने…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 1, 2018 at 8:45pm — 6 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २
आह निकलती है यह कटते पीपल से
बरसेगा तेज़ाब एक दिन बादल से
माँगे उनसे रोज़गार कैसे कोई
भरा हुआ मुँह सबका सस्ते चावल से
क़ै हो जाएगी इसके नाज़ुक तन पर
कैसे बनता है गर जाना मखमल से
गाँव, गली, घर साफ नहीं रक्खोगे गर
ख़ून चुसाना होगा मच्छर, खटमल से
थे चुनाव पहले के वादे जुम्ले यदि
तब तो सत्ता पाई है तुमने छल से
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 10, 2017 at 2:38pm — 5 Comments
बिना तुम्हारे
हे मेरी तुम
सब आधा है
सूरज आधा, चाँद अधूरा
आधे हैं ग्रह सारे
दिन हैं आधे, रातें आधी
आधे हैं सब तारे
जीवन आधा
दुनिया आधी
रब आधा है
आधा नगर, डगर है आधी
आधे हैं घर, आँगन
कलम अधूरी, आधा काग़ज़
आधा मेरा तन-मन
भाव अधूरे
कविता का
मतलब आधा है
फागुन आधा, मधुऋतु आधी
आया आधा सावन
आधी साँसें, आधा है दिल
आधी है…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 9, 2017 at 9:39am — 10 Comments
महाबुद्ध से शिष्य ने पूछा, “भगवन! समाज में असत्य का रोग फैलता ही जा रहा है। अब तो इसने बच्चों को भी अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। आप सत्य की दवा से इसे ठीक क्यों नहीं कर देते?”
महाबुद्ध ने शिष्य को एक गोली दी और कहा, “शीघ्र एवं सम्पूर्ण असर के लिये इसे चबा-चबाकर खाओ, महाबुद्धि।”
महाबुद्धि ने गोली अपने मुँह में रखी और चबाने लगा। कुछ ही क्षण बाद उसे जोर की उबकाई आई और वो उल्टी करने लगा। गोली के साथ साथ उसका खाया पिया भी बाहर आ गया। वो बोला, “प्रभो ये गोली…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 5, 2017 at 10:30am — 16 Comments
ये दुनिया है भूलभुलैया
रची भेड़ियों ने
भेड़ों की खातिर
पढ़े लिखे चालाक भेड़िये
गाइड बने हुए हैं इसके
ओढ़ भेड़ की खाल
जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है
उन सबको बागी घोषित कर
रंग दिया है लाल
फिर भी कोई राह न पाये
इस डर के मारे
छोड़ रखे मुखबिर
भेड़ समझती अपने तन पर
खून पसीने से खेती कर
उगा रही जो ऊन
जब तक राह नहीं मिल जाती
उसे बेचकर अपना चारा
लायेगी दो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 10, 2017 at 8:13pm — 6 Comments
बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२
जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है
न यहाँ तेरा भला है न वहाँ तेरा भला है
अभी तक तो आइना सब को दिखा रहा था सच ही
लगा अंडबंड बकने ये स्वयं से जब मिला है
न कोई पहुँच सका है किसी एक राह पर चल
वही सच तलक है पहुँचा जो सभी पे चल सका है
इसी भोर में परीक्षा मेरी ज़िंदगी की होगी
सो सनम ये जिस्म तेरा मैंने रात भर पढ़ा है
यदि ब्लैकहोल को हम न गिनें तो इस जगत…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 1, 2017 at 8:19pm — 15 Comments
बह्र : 2122 1122 1122 22
दिल के जख्मों को चलो ऐसे सम्हाला जाए
इसकी आहों से कोई शे’र निकाला जाए
अब तो ये बात भी संसद ही बताएगी हमें
कौन मस्जिद को चले कौन शिवाला जाए
आजकल हाल बुजुर्गों का हुआ है ऐसा
दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए
दिल दिवाना है दिवाने की हर इक बात का फिर
क्यूँ जरूरी है कोई अर्थ निकाला जाए
दाल पॉलिश की मिली है तो पकाने के लिए
यही लाजिम है इसे और उबाला…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 21, 2016 at 9:17pm — 2 Comments
बह्र : 1212 1122 1212 22
प्रगति की होड़ न ऐसे मकाम तक पहुँचे
ज़रा सी बात जहाँ कत्ल-ए-आम तक पहुँचे
गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में
चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे
वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा
गले के दर्द से केवल जुकाम तक पहुँचे
न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ
नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे
जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यकीन कानों पर
चले वो भक्त से…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 12, 2016 at 11:28pm — 13 Comments
बह्र : 2122 2122 2122 212
आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में
और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में
आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में
प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में
जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे
वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में
छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा
उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में
ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ
पर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 2, 2016 at 10:23am — 16 Comments
बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२
सनम छोड़ जाते हैं यादों के मेले
हम उनके बिना भी रहे कब अकेले
मैं समझाऊँ कैसे ये चारागरों को
उन्हें छू के हो जाते मीठे करेले
रहे यूँ ही नफ़रत गिराती नये बम
न कम कर सकेगी मुहब्बत के रेले
मैं कितना भी कह लूँ ये नाज़ुक बड़ा है
सनम बेरहम दिल से खेले तो खेले
इन्हें दे नये अर्थ नन्हीं शरारत
वगरना निरर्थक हैं जग के झमेले
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(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 27, 2016 at 6:30pm — 12 Comments
बह्र : १२२२ १२२२ १२२
उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।
सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।
शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।
न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।
वो दोहों को ही दुनिया मानता है,
कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।
समझदारी है उससे दूर जाना,
अगर हो बैल कोई मरखना तो।
जिसे मशरूम का हो मानते तुम,
किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।
न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’
किसी दिन गर यही…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 19, 2016 at 10:08pm — 10 Comments
हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये
दस बड़ी अजीब संख्या है
ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक
मैं हूँ
तुम शून्य हो
मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं
मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो
हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें
क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे
तो हम ग्यारह होंगे
दस नहीं
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(मौलिक एवंं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 9, 2016 at 8:02pm — 3 Comments
बह्र : १२२ १२२ १२२ १२
बिखर जाएँ चूमें तुम्हारे क़दम
सुनो, इस क़दर भी न टूटेंगे हम
किये जा रे पूँजी सितम दर सितम
इन्हें शाइरी में करूँगा रक़म
जो रखते सदा मुफ़्लिसी की दवा
दिलों में न उनके ज़रा भी रहम
ज़रा सा तो मज़्लूम का पेट है
जो थोड़ा भी दोगे तो कर लेगा श्रम
जो मैं कह रहा हूँ वही ठीक है
सभी देवताओं को रहता है भ्रम
मुआ अपनी मर्ज़ी का मालिक बना
न अब मेरे बस में है…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 27, 2016 at 11:30am — 8 Comments
झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”
कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”
झील बोली,…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2016 at 10:04am — 22 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है
वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है
दूर गुणगान से मैं रहता हूँ
एक तो जह्र तिस पे मीठा है
मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं
सच बड़ा गर्म और तीखा है
देखिए बैल बन गये हैं हम
जाति रस्सी है धर्म खूँटा है
सब को उल्लू बना दे जो पल में
ये ज़माना मियाँ उसी का है
अब छुपाने से छुप न पायेगा
जख़्म दिल तक गया है, गहरा है
आज…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 16, 2016 at 1:00am — 10 Comments
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