हमनशीं राह पे बस और ना छल दो मुझको,
मुझे सीने से लगाओ या मसल दो मुझको।
मसनुई प्यार से अच्छा है के नफरत ही करो,
शर्त बस ये है के नफरत भी असल दो मुझको।
दिले बीमार ने बस कोने मकाँ माँगा है,
मेरी चाहत ये कहाँ ताजो महल दो मुझको।
मेरे बिगड़े हुए हालात में तुम आ जाओ,
वक़्त ए आखिर है के दो पल तो सहल दो मुझको।
डबडबाई हुई आँखों से न रुखसत करना,
बड़ा लम्बा है सफर खिलते कँवल दो मुझको।
Added by इमरान खान on February 8, 2012 at 2:46pm — 10 Comments
मैं घायल सा परिंदा हूँ कहाँ जाऊं कहाँ जाऊं,
हैं पर टूटे मैं सहमा हूँ कहाँ जाऊं कहाँ जाऊं.
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यही किस्मत से पाया है, जो अपना था पराया है,
परीशां हूँ मैं तनहा हूँ कहाँ जाऊँ कहाँ जाऊँ
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भले तपता ये सहरा हो, तुम्हें अपना बनाया तो,
घना साया सा पाया हूँ कहाँ जाऊँ कहाँ जाऊँ
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तुम्ही से जिंदगी मेरी, तुम्ही से हर ख़ुशी मेरी,
तुम्हें छोडूं तो जलता हूँ, कहाँ जाऊँ कहाँ जाऊँ
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मेरी गजलें अधूरी थी, तुम्हें पाया तो पूरी…
ContinueAdded by इमरान खान on January 2, 2012 at 4:00pm — 10 Comments
मन की कोमल घाटी में तुम शूलों से चुभ जाते हो,
उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।
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मेरे उजड़े उपवन की भी कली कली मुसकाई थी,
बीत गये वो दिन मेरे अधरों पर आशा आई थी।
पत्र टूटता शाखों से मैं चाहूँ धरती में मिलना,
किंतु वायुरथ से तुम मेरे जीवाश्म उड़ाते हो।
उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।
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तन मन आशा यहाँ तलक मेरा हर रोम जला डाला,
एक अगन ने मेरा जीवन काली भस्म बना डाला।
पीड़ा का अम्बार लगाकर दिवा रात्रि…
Added by इमरान खान on December 26, 2011 at 2:30pm — 2 Comments
बढ़ गई तिश्नगी मेरे दिल की,
आग सी जल गई मेरे दिल की।
वस्ल में कशमकश जगा बैठी,
धड़कनें खौलती मेरे दिल की।
फासले थे तो पुरसुकूँ दिल था,
साँस मिल के रुकी मेरे दिल की।
उसकी पलकें हया से हैं झिलमिल,
जूँ ही क़ुरबत मिली मेरे दिल की।
कँपकपाते लबों पे नाम आया,
फाख्ता है गली मेरे दिल की।
अब हमें रोकना है नामुमकिन,
धड़कनें कह रही मेरे दिल की।
फासले कुरबतों में यूं बदले,
मिल गई हर खुशी मेरे दिल की।
Added by इमरान खान on December 19, 2011 at 8:00am — 3 Comments
आये हैं सभी आज तो जाने के लिये,
ढूंढूं मैं किसे साथ निभाने के लिये.
तन्हाई भरे शोर ये कब तक मैं सुनूँ,
आ जाओ मुझे गीत सुनाने के लिये।
जल जल के मिरे दिल की ये शम्में हैं बुझी,
कोई भी नहीं फिर से जलाने के लिये।
जज़्बात की ये मौज उठी आज मुझे,
इक याद के दरिया में डुबाने के लिये।
सोये हैं वो 'इमरान' सुनाता है किसे,
चल हम भी चलें ख्वाब सजाने के लिये।
Added by इमरान खान on December 2, 2011 at 2:30pm — 4 Comments
ये परवत और गगन शीश झुकायेंगे,
पर फैलाकर हम जब उड़ने जायेंगे.
हैं सब की दृष्टि में ही भले अधूरे हम,
किन्तु जग को हम सम्पूर्ण बनायेंगे.
लालच करने से हर काम बिगड़ता है,
काम क्रोध में पड़; इंसान झगड़ता है,
इच्छायें जिस दिन काबू हो जायेंगी,
वीर पुरुष उस दिन हम भी कहलायेंगे।
ये परवत और गगन शीश झुकायेंगे,
पर फैलाकर हम जब उड़ने जायेंगे.
बस दो पल का ही रंग रूप खिलौना है,
ये ढल जाता है रोना ही रोना…
ContinueAdded by इमरान खान on December 1, 2011 at 2:00pm — No Comments
बस क़दमों की आहट आये' आने का' इमकान कहाँ,
ऐसे झूटे' ख्वाबों के सच होने का' इमकान कहाँ।
उम्मीदों के' बागीचे का' पत्ता पत्ता बिखर गया,
इस गुलशन में' फूलों के' फिर खिलने का' इमकान कहाँ।
दाना खाने' के चक्कर में' पंछी जो' उस पार गये,
खा पीकर भी वापिस उनके' आने का' इमकान कहाँ।
हाँ दौलत के' ढेर नहीं ये' माना माँ के आँचल में,
पर' दो वक्ता रोज़ी के ना' मिलने का' इमकान कहाँ।
डगमग होके' गोते खाए रूहें बाबा अम्मा की,
टूटी नय्या' पर…
Added by इमरान खान on November 21, 2011 at 11:00am — 4 Comments
क़लम रुक रही है बहर खो रही है,
खड़ी है मुसलसल गज़ल रो रही है।
मुझे यूं ग़ज़ल से मुखातिब कराया,
तरन्नुम से मेरा जहाँ जगमगाया,…
Added by इमरान खान on October 13, 2011 at 11:31am — 5 Comments
क्यों आ गया मैं हाय कभी हाथ छुड़ा कर,
तड़पता हूँ के अब रोज़ तिरे दिल को दुखा कर।
आज नदामत से पथरा गई हैं ये आंखें
आजा के बस इक बार तो आंचल से हवा कर।
दिन को सुकूँ शब को भी आराम नहीं है,
हवा भी चली आज ये नश्तर से चुभा कर।
अब ए दिल मुझे हयात की ख्वाहिश नहीं रही,
आया है वो मुकाम के मरने की दुआ कर।
दरे मौत पे आकर अटका है ये 'इमरान'
आ जा के मिरे जिस्म से ये रूह जुदा कर।
इमरान…
ContinueAdded by इमरान खान on September 15, 2011 at 2:23pm — 4 Comments
Added by इमरान खान on August 14, 2011 at 10:14pm — 1 Comment
जिसकी ख़ातिर ख़्वाब जवाँ,
उसे तलाशूँ कहाँ कहाँ,
लाख छुपाऊँ अश्कों को,
चेहरे से है दर्द अयाँ,
सौ शहरों में घूम लिया,
नहीं मिला है एक मकाँ.
कितना तल्ख़ सफ़र काटा,
उखड़ी साँसें घायल पाँ,
चाहत में क्या क्या गुज़री,
रिसते छालें करें बयाँ,
दिल रोशन सा एक दिया,
आज उगलता एक धुआँ.
खुशियों की यूँ शाम हुई,
खूँ में डूबा आज समाँ
तेरी यादों की माला,
टूटी बिखरी यहाँ…
जब इच्छा हो मदिरा पी लूँ, प्रतिपग मधुशालायें है,
किन्तु सुलभ सुरा का पान, मन का मद भी जाये है.
नैनो में प्राण बसे तू ही है मनमीत मेरा,
बनके बजती तू सरगम तू ही है संगीत मेरा,
तुझको दिवास्वप्न में देखूँ , देखूँ भोर के तारों में,
तेरी काया होती निर्मित, हिम पर्वत जलधारो में,
तू ही अतिथि अंर्तमन की दूजा कोई न भाये है
कथित चहुँ लोक में कोटि आकर्षक बालायें हैं
जब इच्छा हो मदिरा पी लूँ, प्रतिपग मधुशालायें हैं
किन्तु सुलभ सुरा…
ContinueAdded by इमरान खान on June 16, 2011 at 1:33pm — No Comments
वसीयत मे इमरोज़-ओ-अय्याम लिख दिए,
उसके लिए मैंने कई कलाम लिख दिए.
न रंज ही होता न दर्द ओ अलम था,
वो आ गया होता तो बेज़ार कलम था,
एहसान, ये उसी के तमाम लिख दिए.
उसके लिए मैंने कई कलाम लिख दिए.
मेरी ख्वाहिशें मुलजिम मेरी रूह गिरफ्तार,
मशकूक कर दिया हालात ने किरदार,
झूटी दफा के दावे मिरे नाम लिख दिए,
उसके लिए मैंने कई कलाम लिख दिए.
लिखूं अगर ग़ज़ल तो वो जान-ए-ग़ज़ल है,
अलफ़ाज़-ओ-एहसास मे उसका ही दखल…
ContinueAdded by इमरान खान on June 15, 2011 at 6:44pm — 2 Comments
पंछी ए ख्वाब के पर काट के सारे तुमने,
कर दिये फौत ये अरमान हमारे तुमने।
बेकरारी में ये मदहोश मेरी धड़कन है,
अपना साथी तो फकत टूटा हुआ दरपन है,
बेसदा मेरा तराना हुये अल्फाज भी गुम,…
Continueतेरी याद के अम्बार लिए बैठे हैं,
गुल तेरे हम ख्वार लिए बैठे हैं.
क़त्ल कर.. दफना गया है तू जिसको,
हाथो मे वोही प्यार लिए बैठे हैं.
जीत का सेहरा तो तेरे सर पे सजा,
हाथ मैं हम 'हार' लिए बैठे हैं.
दुश्मन भी शरमा गया.. अब मुझसे,
सीने मैं, इतने वार लिए बैठे हैं.
पत्थर का, मुझे देखके दिल भर आया,
आँखों मैं वोह. गुबार लिए बैठे हैं,
'उफ़' नहीं मेरी कभी दुनिया ने सुनी,
सदा-ए-दिल…
ContinueAdded by इमरान खान on June 11, 2011 at 8:00pm — 5 Comments
ये रचना मैंने लिखी तो महा उत्सव अंक 8 के लिए थी ... १० जून की रात को पोस्ट भी की लेकिन
शायद मैंने ही लेट हो गया जो सम्मिलित नहीं हो पायी कोई बात यहीं.. ऐसे ही पोस्ट कर देता हूँ...
ये गीत मुझे ही गुनगुनाने नहीं आते,
हाँ मुझे ही रिश्ते निभाने नहीं आते
प्यारी ज़मी को मैंने सींचा था खून से,
हर एक बीज बोया था मैंने जूनून से
इक रोज़ भी न मैं तो आराम कर सका,
इक रात भी न मैं तो सोया सुकून से
अपनाऊँ हर शख्स…
(अदबी महफ़िल की अज़ीम शख्सियात को मेरा आदाब ! मैं बस ऐसे ही किसी को ढूंढते हुए यहाँ चला आया !वो मुझे मिल गया .. लेकिन साथ ही जादूयी जगह भी मिली ! मुझ जैसे शख्स, जो बहुत कुछ लिखना चाहता है सुनना चाहता है ! न तो मुझ पर कुछ कहना आता है न ही साथ निभाना, जब ओपन बुक ज्वाइन कर ही ली है तो सोचा.. अपनी तुकबंदी भी यहाँ पर जोड़ता चलूँ ! गुज़ारिश है सभी से के कुछ तनक़ीद ज़रूर करैं ... तरीफ के लायक तो मेरे अलफ़ाज़ हैं नहीं…
ContinueAdded by इमरान खान on June 10, 2011 at 6:30pm — No Comments
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