ओस कण ....
ओ भानु !
कितने अनभिज्ञ हो तुम
उन कलियों के रुदन से
जो रोती रही
तुम्हारे वियोग में
रात भर
सन्नाटे की चादर ओढ़े
और बैरी जग ने
दे दिया
उन आँसूओं को
ओस कणों का नाम
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on September 11, 2018 at 7:56pm — 6 Comments
भ्रम ... (दो क्षणिकाएं )
लूट कर
नारी की
अस्मत
पुरुष ने
कर लिया
स्वयं को
नग्न
तोड़ दिया
उसकी नज़र में
पुरुषत्व का
भ्रम
2.
कोहराम मच गया
जब दम्भी
पुरुषत्व के प्रत्युत्तर में
हया
बेहया
हो गयी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on September 7, 2018 at 3:43pm — 10 Comments
शान्ति ....
वर्तमान के पृष्ठों पर
विध्वंसकारी स्याही से
भविष्य का सृजन करने वालो
होश में आओ
विनाश की कालिख़ से
कहीं आने वाले कल का
दम न घुट जाए
तुम
नए युग के निर्माण के लिए
संगीनों को
खून की स्याही में डुबोकर
आने वाले कल का
शृंगार करते हो
और हम
पवन के पृष्ठों पर
ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॐ शान्ति
के सुवासित सन्देश से
नव युग के निर्माण का
आह्वान करते हैं
विपरीत…
ContinueAdded by Sushil Sarna on September 5, 2018 at 7:02pm — 7 Comments
जन्म :
अंत के गर्भ में
निहित है
जन्म
या
जन्म के गर्भ में
निहित है अंत
अनसुलझा सा
प्रश्न है
सुलझा न सके
कभी
ऋषि मुनि और
संत
योनि रूप है
देह
मुक्ति रूप
अदेह
किस रूप को
जन्म कहें
किसे रूप को
अंत
अनसुलझा सा ये
प्रश्न है
सुलझा न सके
कभी
ऋषि ,मुनि और
संत
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on September 3, 2018 at 3:04pm — 4 Comments
मिश्रित दोहे -2
आसमान में चाँद का, बड़ा अजब है खेल।
भानु सँग होता नहीं, कभी चाँद का मेल।।
नैन मिलें जब नैन से, जागे मन में प्रीत।
दो पल में सदियाँ मिटें, बने हार भी जीत।।
बंजारी सी प्यास ने, व्यथित किया शृंगार।
अवगुंठन में प्रीत के, शेष रहे अँगार।।
आखों से रिसने लगा, बेआवाज़ अज़ाब।
अश्कों के सैलाब में, डूब गए सब ख्वाब।।
रिश्तों से आती नहीं, अपनेपन की गंध।
विकृत सोच ने कर दिए, दुर्गन्धित…
Added by Sushil Sarna on September 2, 2018 at 3:00pm — 10 Comments
नैन कटोरे ..
नैन कटोरे
कब छलके
खबर न हुई
बस
ढूंढता रहा
भीगे कटोरों से
अपना मयंक
उस मयंक में
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 31, 2018 at 1:14pm — 10 Comments
तेरे मेरे मुक्तक :मात्रा आधारित....
1.
ख़्वाब फिर महके हैं सावन की रात में।
जवाँ दिल बहके ..हैं सावन की रात में।
बारिश की बूंदों में .उल्फ़त की आतिश-
जज़्बात दहके हैं ..सावन ..की रात में।
2.
सालों साल उनकी खबर नहीं .आती ।
कभी ख़्वाबों में वो नज़र नहीं आती ।
ऐसे रूठे वो कि . रूठ गयी साँसें -
दिल के शहर में अब सहर नहीं आती।
3.
खुशी के पर्दे में क्यूँ नमी .बनी रहती है।
हर जानिब इक गम की चादर तनी रहती है।…
Added by Sushil Sarna on August 28, 2018 at 2:15pm — 28 Comments
Added by Sushil Sarna on August 27, 2018 at 7:01pm — 4 Comments
अफ़सुर्दा सा लम्हा ....
अफ़सुर्दा से लम्हों में
लफ़्ज़ भी उदास हो जाते हैं
बीते हुए लम्हों की लाशें
अपने शानों पर लिए लिए
चीखते हैं
मगर खामोशी की क़बा में
उनकी आवाज़ें
घुट के रह जाती हैं
रोज़ो-शब्
उनके ख़्यालों से
गुफ़्तगू होती है
लफ़्ज़ कसमसाते हैं
चश्म नम होती है
सैलाब लफ़्ज़ों का
हर तरफ है लेकिन
दर्द को तसल्ली
कहाँ होती है
लफ़्ज़ों के शह्र में
अफसानों की…
Added by Sushil Sarna on August 27, 2018 at 1:30pm — 5 Comments
राखी के पावन त्यौहार पर कुछ दोहे :
राखी का त्यौहार है, बहना की मनुहार।
इक -इक धागा प्यार का, रिश्तों का उपहार।।
'भाई बहना से सदा', माँगे उसका प्यार।
राखी पावन प्रेम के ,बंधन का आधार।।
बाँध जरा तू हाथ पर, बहना अपना प्यार।
दूँगा तुझको आज वो, जो मांगे उपहार।।
राखी है इस हाथ पर, बहना तेरी शान।
तेरे पावन प्यार पर, मुझको है अभिमान।।
सावन में सावन बहे, आँखों से सौ बार।
राखी पर परदेस से,'बहना भेजे…
Added by Sushil Sarna on August 26, 2018 at 1:00pm — 13 Comments
तृप्ति ....
मेरा कहाँ था
वो पल
जो बीत गया
वक्त के साथ
तुम्हारा आकर्षण भी
रीत गया
यादों के धागों पर
मिलते रहे
अतृप्त तृप्ति की
अव्यक्त अभियक्ति के साथ
कहीं तुम
कहीं हम
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 25, 2018 at 1:20pm — 5 Comments
मिश्रित दोहे :
कड़वे बोलों से सदा, अपने होते दूर।
मीठी वाणी से बढ़ें, नज़दीकियाँ हुज़ूर।।
भानु किरण में काँच भी, हीरे से बन जाय।
हीरा तो अपनी चमक, तम में ही दिखलाय।।
घडी-घड़ी क्यों देखता, जीव घडी की चाल।
घड़ी गर्भ में ही छुपा, उसका अंतिम काल।।
हंस भेस में आजकल, कौआ बांटे ज्ञान।
पीतल सोना एक सा, कैसे हो पहचान।।
राखी का त्यौहार है बहना की मनुहार।
इक -इक धागे में बहिन, बाँधे अपना…
Added by Sushil Sarna on August 24, 2018 at 4:15pm — 4 Comments
ऐ आसमान ....
क्या हो तुम
आज तक कोई नहीं
छू पाया तुम्हें
फिर भी तुम हो
ऐ आसमान
किसी बेघर की
छत हो
किसी का ख्वाब हो
किसी परिंदे का लक्ष्य हो
या
किसी रूह का
अंतिम धाम हो
क्या हो तुम
ऐ आसमान
नक्षत्रों का निवास हो
किसी चातक की प्यास हो
मेघों का क्रीड़ा स्थल हो
सूर्य का पथ हो
या
चाँद तारों का आवास हो
क्या हो तुम
ऐ आसमान
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on August 21, 2018 at 1:53pm — 14 Comments
जीवन के दोहे :
बड़ा निराला मेल है, श्वास देह का संग।
जैसे चन्दन से लिपट, जीवित रहे भुजंग।1।
अजब जहाँ की रीत है, अज़ब यहाँ की प्रीत।
कब नैनों की रार से, उपजे जीवन गीत ।2।
बड़ा अनोखा ईश का, है आदम उत्पाद।
खुद को कहता है खुदा, वो आने के बाद।3।
झूठे रांझे अब यहां, झूठी उनकी हीर।
झूठा नैनन नीर है, झूठी उनकी पीर।4।
जैसे ही माँ ने रखा, बेटे के सर हाथ।
बह निकली फिर पीर की, गंगा जमुना…
Added by Sushil Sarna on August 20, 2018 at 4:30pm — 24 Comments
गर्द (लघु रचना ) .....
वह्म है
पोंछ देने से
आँसू
मिट जाते हैं
दर्द
मोहब्बत के शह्र में
जब उड़ती है
यादों की गर्द
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 18, 2018 at 6:00pm — 4 Comments
स्वतंत्रता दिवस पर ३ रचनाएं :
एक चौराहा
लाल बत्ती
एक हाथ में कटोरा
भीख का
एक हाथ में झंडा बेचता
कागज़ का
न भीख मिली
न झंडा बिका
कैसे जलेगा
चूल्हा शाम का
क्या यही अंजाम है
वीरों के बलिदान का
सुशील सरना
.... .... ..... ..... ..... ..... ....
हाँ
हम आज़ाद हैं
अब अंग्रेज़ नहीं
हम पर
हमारे शासन करते हैं
अब हंटर की जगह
लोग
आश्वासनों से
पेट भरते हैं
महंगाई,भ्रष्टाचार
और…
Added by Sushil Sarna on August 15, 2018 at 1:00pm — 14 Comments
मैं
आस था
विश्वास था
अनभूति का
आभास था
पथ पथरीला प्रीत का
लम्बा और उदास था
जाने किसके हाथ थे
जाने किसका साथ था
गोधूलि की बेला में
अंतिम जीवन खेला में
आहटों की देहरी पर
अटका
मेरा
श्वास था
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 13, 2018 at 6:30pm — 14 Comments
लघु रचना : यथार्थ ...
एक मैं
चल दिया
एक मैं को
छोड़कर
एक यथार्थ
आभास हो गया
एक आभास
यथार्थ हो गया
जिसका वो अंश था
उस अंश में
उस यथार्थ का
वास हो गया
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 5, 2018 at 11:05am — 13 Comments
आज के दोहे :.....
चरणों में माँ बाप के, सदा नवाओ शीश।
इनमें चारों धाम हैं, इनमें बसते ईश।। १
पथ पथरीला सत्य का , झूठी मीठी छाँव।
माँ के आँचल में मिले ,सच्चे सुख की ठाँव।। २
पग-पग पर घायल करें, पुष्प वेश में शूल।
दर्पण पर विश्वास के, जमी छद्म की धूल।।३
समय सदा रहता नहीं, जीवन के अनुकूल।
एक कदम पर फूल तो , दूजे पर हैं शूल।।४
शादी करके सब कहें, शादी है इक भूल।
जीवन में न संग मिले, जीवन के अनुकूल।।५
सदा लगे…
Added by Sushil Sarna on July 30, 2018 at 2:30pm — 17 Comments
परछाईयाँ (२ क्षणिकाएं ) ....
1.
एक अंत
मृतिका पात्र में
कैद हो गया
जीवन के धुंधलके में
अर्थहीन परछाईयों का
पीछा करते करते
..............................
2.
बीते कल की
क्षत-विक्षत अभीप्सा का
शृंगार व्यर्थ है
अन्धकार को भेदो
सूरज वहीं कहीं मिलेगा
दुबका हुआ
नई अभीप्सा का
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 24, 2018 at 12:50pm — 11 Comments
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