संध्या निश्चित है ,
सूर्य अस्ताचल की ओर
है अग्रसर ..
मुझे संदेह नहीं
अपनी भिज्ञता पर
तुम्हारी विस्मरणशीलता के प्रति
फिर भी अपनी बात सुनाता हूँ.
आओ बैठो मेरे पास
जीवन गीत सुनाता हूँ.
डूबेगा व सूरज भी
जो प्रबलता से अभी
है प्रखर .
तुम भूला दोगे मुझे, कल
जैसे मैं था ही नहीं कोई.
सुख के उन्माद में मानो
आने वाली व्यथा ही नहीं कोई.
सत्य का स्वाद तीखा है,
असत्य क्षणिक है,
मैं सत्य सुनाता हूँ…
Added by Neeraj Neer on April 1, 2014 at 9:24am — 12 Comments
सत्य की राह
होती है अलग,
अलग, अलग लोगों के लिए.
किसी का श्वेत ,
श्याम होता है किसी के लिए .
श्वेत श्याम के झगड़ें में
जो गुम होता है
वह होता है सत्य,
सत्य सार्वभौमिक है,
पर सत्य नहीं हो सकता
सामूहिक .
सत्य निजता मांगता है ,
हरेक का सत्य
तय होता है
निज अनुभूति से.
... नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on March 27, 2014 at 8:32am — 4 Comments
कुत्ते का बच्चा
गया मर,
एड़ियाँ रगड़,
किसे फिकर,
काली चमकती सड़क,,
चलती गाड़ियाँ बेधड़क,
बैठा हाकिम अकड़,
कलफ़ कड़क,
सड़क पर किसका हक़?
क्यों रहा भड़क?
किसके लिए बनी
काली चमकती सड़क?
कुत्ता कितना कुत्ता है
चला आता है,
धुल भरी पगडंडियां
गाँव की
छोड़कर.
.. नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on March 24, 2014 at 4:58pm — 16 Comments
कहो प्रिय , कैसे सराहूँ
मैं सौंदर्य तुम्हारा.
मैं चाहता हूँ,
तुम्हारे मुख को कहूँ माहताब.
अधरों को कहूँ लाल गुलाब .
महकती केश राशि को संज्ञा दूँ
मेघ माल की .
लहराते आँचल को कहूँ
मधु मालती .
पर, अपवर्तन का अपना नियम है,
मेरी दृष्टि गुजरती है,
तुम तक पहुचने से पहले
संवेदना के तल से,
और हो जाती है अपवर्तित
सड़क किनारे डस्टबिन में
खाना ढूंढते व्यक्ति पर,
प्लेटफार्म पर भीख मांगते
चिक्कट बालों वाली…
Added by Neeraj Neer on March 21, 2014 at 7:00pm — 10 Comments
आ रे कारे बादर
रँग बरसाने आ रे
श्याम खेलें होरी
तू बरसाने आ रे
रँग अलग अलग भर ला
लाल, बैंगनी, पीला
कोई बच ना जाए
सबको कर दे गीला
खुशियों की बारिश में
तू भिंगाने आ रे
इन्द्रधनुष से रँग ला
त्याग उदासी काली
उल्लसित जीवन, डाल
मुख पे उमंग लाली ..
जो उदास है जग में
उन्हें हँसाने आ रे
हाथों में पिचकारी
गाल पे रंग गुलाल
सब मिल खेलें होरी
अंचल धरा का लाल
जीवन में खुशियाँ भर…
Added by Neeraj Neer on March 16, 2014 at 2:04pm — 6 Comments
कैलाश पर शिव लोक में
था सर्वत्र आनंद.
चारो ओर खुश हाली थी
सब प्यार में निमग्न.
खाना पीना था प्रचुर
वसन वासन सब भरपूर.
जंगल था, लताएँ थी
खूब होती थी बरसात,
स्वच्छ वायुमंडल ,
खुली हुई रात.
धीरे धीरे नागरिकों ने
काट डाले जंगल
बांध कर नदियों को
किया खूब अमंगल.
एक बार पड़ गया
बहुत घनघोर अकाल.
चारो ओर मचा
विभत्स हाहाकार.
नाच उठा दिन सबेरे
विकराल काल…
ContinueAdded by Neeraj Neer on March 4, 2014 at 9:10am — 14 Comments
१. लगे अंग तो तन महकाए,
जी भर देखूं जी में आये,
कभी कभी पर चुभाये शूल,
का सखी साजन ? ना सखी फूल.
२. गोदी में सर रख कर सोऊँ,
मीठे मीठे ख्वाब में खोऊँ,
अंक में लूँ, लगाऊं छतिया.
का सखी साजन? ना सखी तकिया .
३ उससे डर, हर कोई भागे,
बार बार वह लिख कर माँगे.
कहे देकर फिर करो रिलैक्स.
का सखी साजन? ना सखी टैक्स ..
४. गाँठ खुले तो इत उत डोले,
जिधर हवा उधर ही हो…
ContinueAdded by Neeraj Neer on February 28, 2014 at 8:00pm — 31 Comments
वसंत
बीता कटु शीत शिशिर
मोहक वसंत आया
पुष्प खिले वृन्तो पर
मुस्काये हर डाली
मादक महक चहुँ दिशा
भरमाये मन आली
तरुण हुई धूप खिली
शीत का अंत आया
बीता कटु शीत शिशिर
मोहक वसंत आया
प्रिया की सांसों सी
मद भरा ऊषा अनिल
अंग अंग उमंग रस
जग लगे मधुर स्वप्निल
कुहूक बोले कोयल
कवि नवल छंद गाया
बीता कटु शीत शिशिर
मोहक वसंत आया…
ContinueAdded by Neeraj Neer on February 24, 2014 at 10:39pm — 8 Comments
आज सुबह से ही ठहरा हुआ है,
कुहरा भरा वक्त.
न जाने क्यों,
बीते पल को
याद करता.
डायरी के पलटते पन्ने सा,
कुछ अपूर्ण पंक्तियाँ,
कुछ अधूरे ख्वाब,
गवाक्ष से झांकता पीपल,
कुछ ज्यादा ही सघन लग रहा है.
नहीं उड़े है विहग कुल
भोजन की तलाश में.
कर रहे वहीँ कलरव,
मानो देखना चाहते हैं,
सिद्धार्थ को बुद्ध बनते हुए.
बुने हुए स्वेटर से
पकड़कर ऊन का एक छोर
खींच रहा हूँ,
बना रहा हूँ स्वेटर को
वापस ऊन का गोला.
बादल उतर आया…
Added by Neeraj Neer on February 21, 2014 at 8:16pm — 12 Comments
इस कविता के पूर्व थोड़ी सी प्रस्तावना मैं आवश्यक समझता हूँ. झारखंड के चाईबासा में सारंडा का जंगल एशिया का सबसे बड़ा साल (सखुआ) का जंगल है , बहुत घना . यहाँ पलाश के वृक्ष से जब पुष्प धरती पर गिरते हैं तो पूरी धरती सुन्दर लाल कालीन सी लगती है . इस सारंडा में लौह अयस्क का बहुत बड़ा भण्डार है , जिसका दोहन येन केन प्राकारेण करने की चेष्टा की जा रही है .. इसी सन्दर्भ में है मेरी यह कविता :
सारंडा के घने जंगलों में
जहाँ सूरज भी आता है
शरमाते हुए,
सखुआ वृक्ष के घने…
ContinueAdded by Neeraj Neer on February 18, 2014 at 9:21am — 13 Comments
मेरी आँखों के सामने
रूका हुआ है
धुएं का एक गुबार
जिस पर उगी है एक इबारत ,
जिसकी जड़ें
गहरी धंसी हैं
जमीन के अन्दर.
इसमें लिखा है
मेरे देश का भविष्य,
प्रतिफल , इतिहास से कुछ नहीं सीखने का .
उसमे उभर आयें हैं ,
कुछ चित्र,
जिसमे कंप्यूटर के की बोर्ड
चलाने वाले , मोटे चश्मे वाले
युवाओं को
खा जाता है,
एक पोसा हुआ भेड़िया,
लोकतंत्र को कर लेता है ,
अपनी मुठ्ठी में…
ContinueAdded by Neeraj Neer on February 13, 2014 at 9:00am — 21 Comments
क्या तुम्हें उपहार दूँ,
प्रिय प्रेम के प्रतिदान का.
तुम वसंत हो, अनुगामी
जिसका पर्णपात नहीं.
सुमन सुगंध सी संगिनी,
राग द्वेष की बात नहीं.
शब्द अपूर्ण वर्णन को
ईश्वर के वरदान का.
विकट ताप में अम्बुद री,
प्रशांत शीतल छांव सी,
तप्त मरू में दिख जाए,
हरियाली इक गाँव की.
कहो कैसे बखान करूँ
पूर्ण हुए अरमान का.
मैं पतंग तुम डोर प्रिय,
तुम बिन गगन अछूता…
ContinueAdded by Neeraj Neer on February 9, 2014 at 4:41pm — 33 Comments
पर्वत की तुंग
शिराओं से
बहती है टकराती,
शूलों से शिलाओं से,
तीव्र वेग से अवतरित होती,
मनुज मिलन की
उत्कंठा से,
ज्यों चला वाण
धनुर्धर की
तनी हुई प्रत्यंचा से.
आकर मैदानों में
शील करती धारण
ज्यों व्याहता करती हो
मर्यादा का पालन.
जीवन देने की चाह
अथाह.
प्यास बुझाती
बढती राह.
शीतल, स्वच्छ ,
निर्मल जल
बढ़ती जाती
करती कल कल
उतरती नदी
भूतल समतल
लेकर ध्येय जीवनदायी
अमिय भरे
अपने…
Added by Neeraj Neer on January 28, 2014 at 10:04am — 36 Comments
मंदरा मुंडा के घर में है फाका,
गाँव में नहीं हुई है बारिश,
पड़ा है अकाल.
जंगल जाने पर
सरकार ने लगा दी है रोक ,
जंगल, जहाँ मंदरा पैदा हुआ,
जहाँ बसती है,
उसके पूर्वजों की आत्मा.
भूख विवेक हर लेता है.
उसके बेटों में है छटपटाहट.
एक बेटा बन जाता है नक्सली.
रहता है जंगलों में.
वसूलता है लेवी.
दुसरे को कराता है भरती
पुलिस में.
बड़े साहब को ठोक कर आया है सलामी
चांदी के बूट से .
चुनाव…
ContinueAdded by Neeraj Neer on January 23, 2014 at 2:00pm — 6 Comments
संस्कृति का क्रम अटूट
पांच हज़ार वर्षों से
अनवरत घूमता
सभ्यता का
क्रूर पहिया.
दामन में छद्म ऐतिहासिक
सौन्दर्य बोध के बहाने
छुपाये दमन का खूनी दाग,
आत्माभिमान से अंधी
पांडित्य पूर्ण सांस्कृतिक गौरव का
दंभ भरती
सभ्यता.
मोहनजोदड़ो की कत्लगाह से भागे लोगों से
छिनती रही
अनवरत,
उनके अधिकार,
किया जाता रहा वंचित,
जीने के मूलभूत अधिकार से,
कुचल कर सम्मान
मिटा दी…
ContinueAdded by Neeraj Neer on January 16, 2014 at 9:58am — 11 Comments
औरत और नदी
………
औरत जब करती है
अपने अस्तित्व की तलाश और
बनाना चाहती है
अपनी स्वतंत्र राह -
पर्वत से बाहर
उतरकर
समतल मैदानों में .
उसकी यात्रा शुरू होती है
पत्थरों के बीच से
दुराग्रही पत्थरों को काटकर
वह बनाती है घाटियाँ
आगे बढ़ने के लिए
पर्वत उसे रखना चाहता है कैद
अपनी बलिष्ठ भुजाओं में
पहना कर अपने अभिमान की बेड़ियाँ,
खड़े करता है,
कदम दर कदम अवरोध .
उफनती ,…
ContinueAdded by Neeraj Neer on January 10, 2014 at 10:39pm — 27 Comments
नदी मर गयी,
बहुत तड़पने के बाद.
घाव मवादी था.
आती है अब महक.
अब शहर में गिद्ध नहीं आते.
कुत्ते लगाते हैं दौड़
उसकी मृत देह पर
फिर भाग खड़े होते हैं.
नदी जवान थी, खूबसूरत.
वह थी चिर यौवना.
भर देती थी जीवन से.
खेलती थी , करती थी अठखेलियाँ,
छूकर कभी इस किनारे को
कभी उस किनारे को.
उछालती जल, करती कल्लोल,
भिंगोती तट के पीपल को.
पुरबाई में पीपल का पेड़
झूम कर करता था…
ContinueAdded by Neeraj Neer on January 2, 2014 at 6:01pm — 24 Comments
कह पथिक विश्राम कहाँ
मंजिल पूर्व आराम कहाँ
रवि सा जल
ना रुक, अथक चल
सीधी राह एक धर
रह एकनिष्ठ
बढ़ निडर .
अभी सुबह है,
बाकी है अभी
दुपहर का तपना.
अभी शाम कहाँ,
मंजिल पूर्व आराम कहाँ.
चलना तेरी मर्यादा
ना रुक, सीख बहना
अवरोधों को पार कर
मुश्किलों को सहना
आगे बढ़ , बन जल
स्वच्छ, निर्मल
अभी दूर है सिन्धु
अभी मुकाम कहाँ
मंजिल पूर्व आराम…
ContinueAdded by Neeraj Neer on December 15, 2013 at 7:00pm — 10 Comments
तुमने खीची थी जो
सादे पन्ने पर
आड़ी तिरछी रेखाएं
वही मेरी जिंदगी की
तस्वीर है
वही जी रहा हूँ.
रस भरी के फल
जिसे छोड़ दिया था
तुमने कड़वा कहकर
वही मेरी जिंदगी की
मिठास है .
वही जी रहा हूँ ..
मंजिल पाने की जल्दी में
जिस राह को छोड़ कर
तुमने लिया था शोर्ट कट
वही मेरी जिंदगी की
राह है .
वही जी रहा हूँ .
तुम हो गये मुझसे दूर
तुम्हे अंक के…
ContinueAdded by Neeraj Neer on December 8, 2013 at 7:00pm — 14 Comments
जम्हूरियत के बुर्ज पर
बैठा सियासत का गिद्ध
फेरता है चारो ओर
पैनी निगाह
जो है अप्रेरित
भूख से,
वह ढूंढता नहीं है
लाश,
भिड़ाता है तरकीब
लाश बिछाने की..
सत्ता की अंध महत्वकांक्षा में
ये निगाह रहती है
चिर अतृप्त.
चुनावों के मौसम में बढ़ जाती
आवाजाही गिद्धों की .
.......... नीरज कुमार ‘नीर’
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on November 24, 2013 at 3:30pm — 9 Comments
2018
2017
2016
2015
2014
2013
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