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विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी's Blog (64)

जीवन का सत्य

(१)

सुख औ दु:ख

प्रकृत या प्रारब्ध

मधु औ डंक।

(२)

आग औ धूम

प्रकाश संग तम

शराब गम।

(३)

आशा निराशा

कुछ पाने की आशा

पर हताशा।

(४)

मन है प्यासा

उत्कट अभिलाषा

जीत की आशा।

(५)

हार में जीत

हर जन से प्रीत

रहो निर्भीत।

(६)

पाने की चाह

उमंग औ उत्साह

सरल राह।

(७)

एकाग्र दृष्टि

सफलता की वृष्टि

मन की तुष्टि।

(८)

धैर्य औ ध्यान

उत्साह का उफान

लक्ष्य… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 9:00pm — 6 Comments

कल्पद्रुम

मेरा नीड़ जिस पेड़ पर है

लोग उसे कल्पद्रुम कहते हैं

जनविश्रुत है-

वह सब कुछ देता है

जो उससे मांगा जाता है

क्या यह सच है?

मेरे देखने में तो नहीं।

क्यों?

क्योंकि

वह कल्पद्रुम खामोश सा

खड़ा रहता है

अहर्निश!!!

उसके पत्ते गिर रहे हैं

सड़-सड़ कर

टहनियां सूख रही हैं

जड़ें धीरे-धीरे

ऊपर आ रहीं हैं

वह प्यासा मर रहा है

एक घूंट पानी बिन

कार्बन डाई ऑक्साइड के बजाय

ऑक्सीजन ले रहा है

अब वह खामोश… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 7:45pm — 6 Comments

प्यार का आल्हा

चढ़ल जवानी कै उदल जब,देहिया गढ़ के ऊपर नाय।

नैना यकटक देखन लागे,पुरवा चले देह घहराय॥

चन्द्रमुखी जब तिरछा ताकै,तन के आरपार होइ जाय।

मारै मुस्की जब धीरे से,दिल कै टूक-टूक उड़ि जाय॥

उड़ै दुप्ट्टा जब कान्हे से,मानौ दुइ गिरिवर बिलगाय।

देख के गोरिक भरी जवानी,लरिके मंद-मंद मुस्काय॥

आओ पंचो प्यार कै आल्हा,सुनि लौ आपन कान लगाय।

अइसन मौका फिर जिन्गी में,शायद मिलै न कब्भो आय॥

जेका यह जिन्गी में कब्भो,प्यार के रोग लगा है नाय।

मानों वै मानो कै जोनी,आपन विरथा दिहिन… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2012 at 7:01am — 25 Comments

जुदाई (गजल)

अपनों से जुदा अपने,होते हैं कहां प्रियवर।

अनमोल रतन धन,खोते हैं कहां प्रियवर॥



नजरों से दूरी तो,दूरी ही नहीं होती।

दिल से अलग अपने,होते हैं कहां प्रियवर॥



आंखों में आंसू हैं,अपनों के लिए ही हैं।

गैरों के लिए हम,रोते हैं कहां प्रियवर॥…



Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 3, 2012 at 9:30pm — 15 Comments

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